दैनिक भास्कर, 11 अगस्त 2010| जिन लोगों के हाथ में हमने देश की पतवार दे रखी है, उनका हाल क्या है, इसका हमेंसही-सही पता लग रहा है, जातीय गणना के सवाल से ! 2011 की जन-गणना में जाति को जोड़ा जाए या नहीं, इस मुद्रदे परहमारे प्रमुख राजनीतिक दलों को दिग्भ्रम आश्चर्यजनक है| यहां मैं उन दलों की बात नहीं कर रहा हूं, जो पूर्णत: जातिवादी हैं, मूलत: प्रांतीय हैं और निजी कंपनियों की तरह चल रहे हैं| मेरी चिंता उन दलों के बारे में है, जो राष्ट्रीय हैं, जिन्होंने देश कानेतृत्व किया है और जो वास्तव में भारत की विविधता का प्रतिनिधित्व करते हैं| उनका दावा है कि वे किसी न किसी विचारधाराका प्रतिनिधित्व भी करते हैं| ये दल हैं, कांग्रेस, भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियाँ|
इन तीनों प्रमुख पार्टियों का रवैया क्या है ? इन तीनों पार्टियों ने संसद के पिछले सत्र् में जातीय गणना के लिए अचानक अपनीसहमति तो दे दी लेकिन वे चक्रव्यूह में फंस गए | अब उन्हें बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा है| जातिवादी दलों कीमांग पर इन तीनों दलों ने कह दिया कि हॉं, जनगणना में जाति को जोड़ लिया जाए| सदन में कोई खास सोच-विचार नहींहुआ| बाद में कुछ प्रमुख नेताओं ने बताया कि यह सोचकर ज्यादा चीर- फाड़ नहीं हुई कि यदि जरूरतमंदों को आरक्षण देनाहै तो उनकी गिनती क्यों न कर ली जाए ? अब तक आरक्षण का आधार जाति रही है और जाति के आंकड़े आखिरी बार 1931 में इकट्रठे किए गए थे| वे पुराने पड़ गए हैं| नए आंकड़ों से बेहतर नीति बनेगी| अपनी हामी जताते हुए नेताओं ने यह नहींसोचा कि आखिर अंग्रेज ने 70 साल (1861-1931) तक जिस जाति-नीति पर अपना माथा खपाया, उसे उसने छोड़ क्यों दिया ? क्या कारण था कि 1931 की जन-गणना के अंग्रेज कमिश्नर डॉ. जे.एच. हट्रटन ने जातीय जनगणना को अवैज्ञानिक, मिथ्या औरविभ्रमकारी कहा था ? हमारे सांसदों ने यह भी नहीं सोचा कि हमारे संविधान-निर्माताओं ने बार-बार जातिविहीन समाज बनानेकी बात क्यों कहीं थी और उन्होंने जातीय-गणना को दुबारा शुरू करने की बात क्यों नहीं की ? जातीय गणना के समर्थक यहभी भूल गए कि आजाद भारत की जितनी भी सरकारें आईं, किसी ने भी जातीय गणना को उचित नहीं माना| ध्यातव्य यह भी हैकि पिछले चुनाव में सारे राजनीतिक दलों ने अपने घोषणा-पत्रें में छोटे-मोटे मुद्रदे तो उठाए हैं लेकिन किसी भी दल ने, यहांतक कि जातिवादी दलों ने भी जातीय गणना का मुद्दा छुआ तक नहीं|
ऐसी हालत में भारत की जनता के सीने पर जातिवाद के भूत को अचानक सवार कर देना कहां तक उचित है ? जन-गणना मेंजाति को जोड़ना हमारे स्वाधीनता-संग्राम के मूल्यों का निषेध है| स्वयं कांग्रेस ने 11 जनवरी 1931 को ‘जन-गणना बहिष्कारदिवस‘ मनाया था| जातीय गणना हमारे संविधान की आत्मा का भी उल्लंघन है| डॉ. बाबा साहब आंबेडकर और जवाहरलालनेहरू ने जातीय विभाजन को राष्ट्रीय एकता का दुश्मन बताया था| हमारे संविधान में जातीय आधार पर आरक्षण या संरक्षणदेने की बात कहीं भी नहीं कही गई है| जातीय गणना का मुद्रदा इतना संगीन है कि इसका असर आनेवाली कई सदियों औरपीढि़यों पर पड़ेगा| यह मामला उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि हमारे संविधान का मूल ढांचा है| इस मूल-ढांचे को न तोसंसद बदल सकती है और न ही अदालत| इस मूल ढांचे का असर देश की राजनीति और प्रशासन पर पड़ता है लेकिनजातिवाद का कैंसर तो भारत के सामाजिक और सांस्कृतिक ढांचे को ही नष्ट कर देगा| इसीलिए इस मुद्रदे पर 10 मंत्र्ियों कासमूह या संसद में बैठे कुछ नेता अचानक फैसला कर लें, यह सर्वथा अनुचित होगा| सच्चाई तो यह है कि यह मामला समूचीसंसद के सामने पेश होना चाहिए|
लेकिन संसद के सामने लाने के पहले इस मामले पर संसद की सर्वदलीय समिति को सांगोपांग विचार करना चाहिए| यहसमिति पहले तो समस्त विधानसभाओं से राय मांगे| फिर देश के अनुभवी विधिशास्त्र्ियों, नेताओं, जनगणना-विशेषज्ञों, सांस्कृतिक संगठनों, युवजनों, जातिवादियों, जाति-विरोधियों – सभी से विचार-विमर्श करे| यह मुद्रदा इतना महत्वपूर्ण है किइस पर प्रवासी भारतीयों का अभिमत भी लिया जाना चाहिए| समिति की सुविचारित रपट पर संसद बहस करे और फिर वहजो भी निर्णय करे, उसे मान्य किया जाए| यह प्रस्ताव इस आधार पर रखा जा रहा है कि हमें पूरा विश्वास है कि जो नेता वोटों केलालच में फंसकर जातीय गणना की मांग कर रहे हैं, वे भी राष्ट्रप्रेमी हैं और विवेकवान हैं| संसदीय समिति की रपट सिर्फ यहकरेगी कि उन्हें वह दूरंदेश भी बना देगी|
जिन दलों का शुरू में मैंने जिक्र किया था, वे अचानक संसद में फिसल गए| कौन नहीं फिसला ? आज देश के सारे नेता एकतरफ खड़े हैं और सारा आधुनिक और भावी-भारत दूसरी तरफ खड़ा है| नेता 18 वीं सदी में हैं और जनता 21 वीं सदी में ! जब से ‘सबल भारत‘ के ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी‘ आंदोलन ने जोर पकड़ा है, नेताओं को अपनी भूल समझ में आ गई है लेकिनअब वे पल्टा कैसे खाएं ? कम्युनिस्ट पार्टियों ने, जो हमेशा ‘जाति‘ के मुकाबले ‘वर्ग‘ को खड़ा करती रही हैं, आज अपनी स्थितिहास्यास्पद बना ली है| वे कह रही हैं, सब जातियों को नहीं, सिर्फ पिछड़ी जातियों की गिनती कर लीजिए| इन कामरेडों सेकोई पूछे कि देश में कौनसी जाति ऐसी है, जिसमें सब विपन्न और सब संपन्न हैं ? यह जातीय गणना उनके कौनसे वर्ग-विश्लेषण में फिट होती है ?
कम्युनिस्टों से भी ज्यादा विकट स्थिति कांग्रेस की है| वह सत्तारूढ़ पार्टी है| जो भी पाप चढ़ेगा, उसके माथे आएगा| उसकेनेता आपस में ही दंगल कर रहे हैं| मंत्र्ि-समूह के नेता प्रणब मुखर्जी ने जो पत्र् सभी दलों को भिजवाया है, वह बीरबल कीपहेली से कम नहीं है| कई विरोधी नेता एक-दूसरे से पूछ रहे हैं कि इसका जवाब क्या दें ? प्रणब दा ने पूछा है कि क्याजनगणना में जात का इस तरह प्रचार (केनवास) किया जाए कि व्यक्ति-गणना (हेडकांउट) की शुद्घता (इंटेगि्रटी) नष्ट न हो ? प्रतिपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने भी प्रणब दा को उन्हीं के शब्दों में टरका दिया और कहा कि हम आपसे सहमत हैं| बताइए, इतने गंभीर मसले पर इतनी मज़ाक हमारा देश क्यों बर्दाश्त कर रहा है ? हमारे नेता शब्दों की चिलमन डालकर बैठ गए हैं| साफ छुपते भी नहीं, सामने आते भी नहीं |भाजपाई और कांग्रेसियों को तय करना है कि यह देश जातिवादी पटरी पर चले याराष्ट्रवादी पर ! इतिहास दोनों के मुख पर कालिख पोतेगा या तिलक लगाएगा लेकिन दोनों एक-दूसरे के कंधे पर बंदूक रखने मेंजुटे हुए हैं| कोई भी बिल्ली के गले में घंटी बांधने को तैयार नहीं है| दोनों को पता है कि जातीय गणना कितनी विनाशकारी है| लेकिन दोनों को डर है कि वे जातीय गणना का विरोध करेंगे तो उनके वोट कट जाएंगे, ये डर झूठा है| वे यह भूल जाते हैं किपिछले साठ साल में भारत की जनता ने कई बार जातीय समीकरण को उलट दिया है| यदि 21 वीं सदी की राजनीति शुद्घजातीय आधार पर चलेगी तो कांग्रेस और भाजपा जैसी पार्टियों का नामो-निशान भी नहीं बचेगा| असली समस्या है कि हमारादेश आज नेतृत्वविहीन हो गया है| जनता तो नेताओं के पीछे चलती है लेकिन नेताओं को यह पता नहीं कि वे कैसे चलें ?
(लेखक, ‘सबल भारत‘ के संस्थापक और ‘मेरी जाति हिंदुस्तानी आंदोलन‘ के सूत्र्धार हैं|)
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