राष्ट्रीय सहारा, 13 अक्टूबर 2009 : पाकिस्तान जैसी संकरी गली में अब फंसा है, पिछले 62 साल में पहले कभी नहीं फंसा| उसके मुंह में ऐसी मीठी गोली आ गई है, जिसे न वह उगल पा रहा है और न ही निगल पा रहा है| यह गोली है, डेढ़ बिलियन डॉलर की| लगभग साढ़े सात हजार करोड़ रू. अमेरिका पाकिस्तान को हर साल देने को तैयार है लेकिन उसने कुछ शर्तें भी लगा दी हैं| पाकिस्तान की ज़रदारी सरकार को ये शर्तें स्वीकार हैं लेकिन पाकिस्तान की फौज और विपक्ष दोनों ने ही तलवारें खींच ली हैं| उनका कहना है कि ये शर्तें पाकिस्तान की संप्रभुता का उल्लंघन करती हैं| अपमानजनक हैं| आंतरिक मामलों में सीधा हस्तक्षेप हैं| पाकिस्तान ऐसी फूहड़ शर्तों पर कोई भी मदद नहीं लेगा| मीडिया ने भी हंगामा मचा दिया है| अब पाकिस्तान की संसद में खुली बहस होगी कि इस मदद को स्वीकार करना चाहिए या नहीं|
पाकिस्तान की आर्थिक हालत बहुत नाजुक है| कुछ माह पहले तो हाल यह था कि पाकिस्तान की सरकार के पास अपने कर्मचारियों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं थे| बेचारे राष्ट्रपति ज़रदारी को हाथ में कटोरा लिए वित्तीय विश्व-संस्थाओं के चक्कर लगाने पड़े| मंहगाई और बेरोज़गारी ने गरीब तबकों की तो कमर तोड़ ही रखी है, अब मध्यम-वर्ग के लोग भी बेहद परेशान हो उठे हैं| जनरल मुशर्रफ की विदाई के बाद फौजियों को जो बेहिसाब फायदे मिल रहे थे, उनमें भी कटौती हो गई है| असंतोष के इस दावानल को फैलने से रोकना ज़रदारी सरकार की सबसे बड़ी चिंता है| इस संकट की वेला में अमेरिकी मदद तपते हुए रेगिस्तान में घने बादलों की तरह उभर रही थी लेकिन अब उस पर प्रश्न चिन्ह लग गया है| यह प्रश्न चिन्ह क्यों लगा ? आई लक्ष्मी को पाकिस्तानी लोग लात मारने पर उतारू क्यों हो गए हैं ? इसका कारण स्पष्ट है| यह अमेरिकी मदद पाकिस्तान के मूल चरित्र् पर लगा पहला प्रश्न-चिन्ह है| अमेरिका या किसी भी पश्चिमी राष्ट्र ने पहली बार यह कहा है कि हमारी मदद लोकतंत्र् के लिए है, फौजतंत्र् के लिए नहीं| अब तक पाकिस्तान को जितनी भी विदेशी मदद मिली है, उसका ज्यातर हिस्सा फौज के काम आया है, जनता के काम नहीं| इस बार साढ़े सात बिलियन डॉलर की मदद का कानून पास करते हुए अमेरिकी कांग्रेस ने कई शर्तें लगा दीं| उसने कहा कि फौज को नागरिक सरकार के मातहत काम करना होगा| फौज का बजट फौज नहीं, सरकार तय करेगी| फौजी पदोन्नतियां, फौज और सरकार के संबंध, फौज की चेन ऑफ कमांड तथा परमाणु गतिविधियां आदि सबका निर्धारण सरकार करेगी| अमेरिकी विदेश मंत्री हर साल कांग्रेस को यह प्रमाण पत्र् भी देगा कि पाकिस्तान परमाणु-अप्रसार में कितना सहयोग कर रहा है| यदि अमेरिकी विदेश मंत्री को यह लगा कि पाकिस्तान की फौज और गुप्तचर संगठन आतंकवादियों से सांठ-गांठ किए हुए हैं तो यह मदद रोक दी जाएगी| इस प्रसिद्घ केरी-लुगार विधेयक में सिर्फ अफगानिस्तान में तैनात अमेरिकी फौजों का ही जिक्र नहीं है बल्कि यह भी साफ़-साफ़ कहा गया है कि पड़ौसी देशों पर किए जानेवाले आतंकवादी हमलों पर अमेरिकी सरकार को कड़ी नज़र रखनी होगी| अमेरिका ने सिर्फ उसी आतंकवाद की चिंता नहीं की है, जिसने उसे तंग कर रखा है बल्कि उस आतंकवाद पर भी उसने पहली बार उंगली रखी है, जो भारत को तंग कर रहा है| पाकिस्तानियों के चिढ़ जाने का यही सबसे बड़ा कारण है| भारत-भय पाकिस्तान की सबसे बड़ी ग्रंथि है| भारत कहीं पाकिस्तान को खत्म न कर दे, इस नक़ली डर के कारण पाकिस्तान के लोग अपनी छाती पर फौज क्या, किसी को भी बिठाने को तैयार हो जाते हैं| पाकिस्तान के नेताओं ने वहां की आम जनता के दिलों में भारत की इतनी दहशत बिठा दी है कि विदेशों से मिलनेवाली हर मदद का इस्तेमाल उन्होंने भारत के खिलाफ किया है| फिर वह मदद चाहे सोवियत रूस से लड़ने के लिए मिली हो या अफगानिस्तान की कम्युनिस्ट सरकारों से या उनके अपने इस्लामी आतंकवादियों से ! शरणार्थियों की सेवा के लिए मिली मदद को डकारने मे भी फौज को कोई संकोच नहीं हुआ| भारत की आपत्तियों पर पश्चिमी सरकारों ने कभी ध्यान नहीं दिया| लेकिन अमेरिका ने पहली बार यह माना है, जैसा कि कृष्णमेनन कहा करते थे कि दुनिया में कोई तोप ऐसी नहीं बनी है कि जो एक ही दिशा में गोला दागती हो| पाकिस्तान को मिलनेवाली तोपों का लक्ष्य सोवियत रूस था लेकिन गोले भारत पर गिरते थे| अब अमेरिका को यह भी पता चल गया है कि उसकी जूती उसी के सिर पर पड़ रही है| जिस आई.एस.आई. का इस्तेमाल उसने रूस के खिलाफ किया था, वही उसे अब अफगानिस्तान में चित कर रही है|
आश्चर्य है कि पाकिस्तान का विपक्षी दल याने नवाज़ शरीफ की मुस्लिम लीग इस अमेरिकी कानून का विरोध कर रही है| ये नवाज़ शरीफ वही हैं जो फौजी तख्ता-पलट के शिकार हुए थे| भारत से संबंध सुधारने की पहल मियां नवाज ने तब भी की थी और अब भी वे यही चाहते हैं| तो फिर इस विरोध का कारण क्या है ? क्या वे ज़रदारी-सरकार को कठघरे में खड़ा करना चाहते हैं ? क्या वे दुबारा फौजी की पीठ थपथपाना चाहते हैं ? क्या यह कम आश्चर्य की बात है कि पाकिस्तान के सेनापति जनरल अशफ़ाक कयानी ने खुले-आम इस कानून का विरोध किया है ? क्या अब पाकिस्तानी संसद और फौज में सीधी टक्कर होगी? यदि पाकिस्तानी संसद ने इस अमेरिकी कानून पर मुहर लगा दी तो क्या होगा ? क्या फौज तख्ता-पलट कर सकती है? क्यों नहीं ? फौज का कोई क्या कर लेगा ? ज़रदारी की सरकार उतनी ताकतवार भी नहीं हैं, जितनी 1999 में नवाज़ की सरकार थी| भारत-भय की बद्घमूल ग्रंथि के कारण पाकिस्तान की भोली-भाली जनता भी फौज के साथ हो लेगी| जिस जनता ने फौज को अपदस्थ किया, क्या वह फिर फौज का पल्ला पकड़ेगी ? अमेरिका क्या कर सकता है ? वह भी मजबूर है| उसका प्रमुख लक्ष्य अल-क़ायदा और तालिबान को हराना है, पाकिस्तान में लोकतंत्र् लाना नहीं है| दूसरे शब्दों में केरी-लुगार विधेयक ने पाकिस्तान को एक बार फिर इतिहास के चौराहे पर ला खड़ा किया है| ज्यादा संभावना यही है कि इस विधेयक पर ओबामा चुप खींच जाएं| दस्तखत ही न करें| ‘पॉकेट वीटो’ कर जाएं| सबकी बला टलेगी|
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