NavBharat Times, 21 Oct 2005 : हिंदी का कारवां किधर जा रहा है? वह आगे बढ़ रहा है या पीछे हट रहा है? साफ-साफ कुछ नहीं कहा जा सकता| इसका जवाब हां या ना में नहीं हो सकता| आगे बढ़ना और पीछे हटना परस्पर विरोधी क्रियाएं हैं| यदि ये एक साथ हों तो गाड़ी जहां खड़ी है, वहीं खड़ी रहेगी लेकिन हिंदी की गाड़ी खड़ी हुई नहीं है| वह सैकड़ों सड़कों पर एक साथ चल रही है| वह कहीं आगे बढ़ रही है और कहीं पीछे हट रही है| कहां-कहां आगे बढ़ रही है? अखबार में, बाजार में, टी वी में, इंटरनेट में ! और अब बड़े नेताओं में भी !
सबसे पहले तो नेताओं को ही लें| हिंदी चाहे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्र्ी के यहां पिछड़ रही हो, अपने उपराष्ट्रपति के यहां वह फल-फूल रही है| अभी कुछ दिन पहले उप-राष्ट्रपति भैरोसिंह शेखावत चार राष्ट्रों की सरकारी यात्र पर गए| उन्होंने चारों राष्ट्राध्यक्षों से अपनी बातचीत हिंदी में की| भारतीय दुभाषिए ने संबंधित देशों की भाषाओं में सीधा अनुवाद किया| स्वतंत्र् भारत के इतिहास की यह पहली उल्लेखनीय घटना है| भारत के नेता किसी भी देश में जाएं, वे बड़ी बेशर्मी से अपनी लचर-पचर अंग्रेजी झाड़े चले जाते हैं| उन्हें यह देखकर भी कुछ शर्म नहीं आती कि सामने बैठा शासनाध्यक्ष उनसे अपने देश की भाषा में ही बात कर रहा है, हालांकि उसकी अंग्रेजी इनसे बेहतर है| जब आपकी बोली हुई अंग्रेजी का भी चीनी, जापानी, रूसी या फ्रांसीसी याने स्थानीय भाषा में अनुवाद होना है तो आप हिंदी या किसी अन्य भारतीय भाषा में क्यों नहीं बोलते? उसका सीधा अनुवाद मेज़बान राष्ट्र की भाषा में हो सकता है| ऐसा होने पर स्थानीय लोग प्रसन्न भी होते हैं और आपके राष्ट्र के प्रति उनका सम्मान भी बढ़ता है| दुनिया के जिन चार-पांच देशों की राष्ट्रभाषा अंग्रेजी है, वहां अंग्रेजी बोलकर वाहवाही लूटने में कोई बुराई नहीं है लेकिन राजनयिक-संभाषण में तो वहां भी हमें अपनी भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए| संभाषण में स्वभाषा का इस्तेमाल तो अतिरिक्त फायदेमंद होता है| विदेश नीति के पेचीदा सवालों पर कभी गलती हो जाए तो अनुवाद की ओट में उन्हें सुधारना सरल होता है| वैदेशिक मामलों में स्वभाषा का प्रयोग राष्ट्रहित-रक्षा का रामबाण है| राजकीय विदेश-यात्र का एक मात्र् लक्ष्य राष्ट्रहित-रक्षा ही होता है| हमारे नेता स्वतंत्र् भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए विदेश जाते हैं, न कि उन्हें यह बताने कि हम कभी अंग्रेज के गुलाम रहे थे और न ही यह बताने कि भारत गूंगा है| उसकी कोई जुबान ही नहीं | भैरोंसिंह शेखावत ने भारत के इस गूंगेपन को दूर किया, इसके लिए करोड़ों देशभक्तों की ओर से उनको बधाई !
उनको तो बधाई लेकिन अपने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्र्ी और मंत्र्ियों से यह प्रश्न कि आपने भी कुछ सीखा या नहीं? जो भैरोंसिंहजी कर सकते हैं, वह आप क्यों नहीं कर सकते? अपने दूतावासों में जो दुभाषिए रखे जाते हैं, आखिर वे आपकी सेवा क्यों नहीं कर सकते? अगर वे अब काम नहीं आएंगे तो कब आएंगे? जो काम भैरोंसिंहजी ने किया, वही काम अब से लगभग 30 साल पहले उप-राष्ट्रपति बसप्पा दानप्पा जत्ती करना चाहते थे| जत्तीजी ने उप-राष्ट्रपति बनते ही हिंदी में लिखित भाषण देने शुरू कर दिए| कन्नड़भाषी उप-राष्ट्रपति की इस पहल ने उन्हें काफी लोकपि्रय बना दिया| यही प्रयोग वे विदेश जाकर भी करना चाहते थे लेकिन हमारे विदेश मंत्रलय ने कोई खास उत्साह नहीं दिखाया| उन्हें विदेशी अतिथियों से भी अंग्रेजी में ही बात करनी पड़ती थी लेकिन भैरोंसिंहजी की हिम्मत है कि वे विदेशी अतिथियों से भी हिंदी में बात करते हैं| यदि वे अपनी भाषा में बात करते हैं तो ये भी अपनी भाषा में ही बात करते हैं| इन्होंने ब्लादिमीर पूतिन से हिंदी में ही बात की| यदि कोई विदेशी उनसे अंग्रेजी में बात करता है तो उससे उन्हें अंग्रेजी में बात करने में आपत्ति नहीं होती| इस व्यावहारिक नीति को अन्य नेता भी अपना सकते हैं लेकिन जब भाजपा के नेता ही पसर गए तो दूसरे नेताओं से क्या आशा रखी जाए? प्रधानमंत्री के तौर पर अटलबिहारी वाजपेयी जब पेइचिंग गए तो उन्होंने विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग का उद्रघाटन अंग्रेजी में किया| धन्य हों, हिंदी के महान वक्ता और प्रवक्ता ! हिंदी अनुवाद की तैयारी में छह माह खपानेवाला चीनी विद्वान अवाक्र रह गया| प्रधानमंत्री नरसिंहराव ने बड़ी कोशिश की कि अपनी चीन-यात्र के दौरान वे हिंदी में बोलें लेकिन हमारा दुभाषिया ठीक से अनुवाद ही नहीं कर पाया| इस व्यतिक्रम को कौन ठीक करेगा?
वर्तमान सरकार में इस व्यतिक्रम के ठीक होने की काफी संभावनाएं हैं| यह ठीक है कि राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, दोनों ही अहिंदीभाषी हैं और यह भी सत्य है कि दोनों अपनी-अपनी मातृभाषा भी साधिकार नहीं बोल सकते लेकिन दोनों इतने सुशिक्षित और चतुर हैं कि हिंदी में लिखे हुए भाषण तो पढ़ ही सकते हैं| यदि देवनागरी में न पढ़ सकें तो तमिल और पंजाबी में लिखवाकर पढ़ें, जैसे देवेगौड़ा कन्नड़ में लिखवाकर पढ़ते थे| यदि उन्हें राजपदों पर बैठने का शौक है तो उन्हें राजभाषा बोलने का कष्ट तो उठाना ही चाहिए| यह सत्कार्य वे पहले अपने देश से ही शुरू करें और फिर उसे विदेशों में भी ले जाएं| इस मामले में सबसे प्रेरक काम तो सोनिया गांधी कर रही हैं| वे देवनागरी में लिखे हिंदी भाषण तो बखूबी पढ़ लेती हैं, कागज-पत्तर देखे बिना धड़ल्ले से हिंदी में भाषण भी देती हैं| एक विदेशी महिला जब इतनी दृढ़संकल्पी हो सकती है तो भारत में जन्मे और पले-पढ़े नेता यह कमाल क्यों नहीं दिखा सकते? यह सुसंयोग है कि सोनिया गांधी अंग्रेज नहीं हैं| अगर वे अंग्रेज होतीं तो भी शायद भारतीय बनने के बाद अंग्रेजी की गुलामी नहीं करतीं लेकिन उनका इतालवी होना भाषा की दृष्टि से और भी अच्छा है| भारत की तरह इटली कभी किसी का गुलाम नहीं रहा| इसके अलावा उसकी भाषा-परम्परा (रोमन) अंग्रेजी के मुकाबले अधिक प्राचीन और समृद्घ रही है| क्या हमारे भारतीय नेताओं को यह पता नहीं कि भारत की भाषा-परम्परा दुनिया की सबसे प्राचीन और समृद्घ परम्परा है? उन्हें पता है और उस पर उन्हें गर्व भी है लेकिन डेढ़-सौ साल की गुलामी और उनकी शिक्षा-दीक्षा ने उन्हें मजबूर कर रखा है| वे राष्ट्रपति और प्रधानमंत्र्ी तो बन जाते हैं लेकिन उनमें इतना आत्मविश्वास भी नहीं होता कि वे स्वभाषा का प्रयोग करें| उनके दिलों पर दयानंद, गांधी और लोहिया जैसे महापुरुषों की बातों का भी कोई असर नहीं होता है| ‘मर्दे नादां पर कलामे नर्म-ओ-नाजुक बेअसर !’ इक़बाल ने इस पंक्ति के पहले यह भी कहा है कि ‘फूल की पत्ती से कट सकता है हीरे का जिगर’! हीरे जैसे हमारे नेताओं का जिगर बहुत सख्त हो चुका है| उस पर भैरोंसिंहजी की छैनी का भी कोई असर होगा या नही, कुछ पता नहीं लेकिन फूल की पत्ती चाहे तो उसे काट सकती है|
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