नवभारत टाइम्स, 2 मार्च 2007 : यदि किसी पार्टी की केंद्र में सरकार हो और दो-तीन राज्यों में वह चुनाव हार जाए तो यह मानकर चला जाता है कि कोई खास फर्क नहीं पड़ता| दो-चार पेड़ों के गिर जाने से क्या जंगल खाली हो जाता है ? प्राय: नहीं होता लेकिन पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर के चुनावों के कारण जंगल में कोहराम मच गया है| ढाई साल बाद सुलगनेवाले दावानल की लपटें अभी से आसमान छूने लगी हैं| ऐसा नहीं है कि केंद्र में सत्तारूढ़ होने के बाद काँगे्रस गठबंधन राज्यों में पहली बार हारा है| वह केरल, प. बंगाल, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, कर्नाटक आदि पहले भी खो चुका है लेकिन उत्तर भारत के इन तीन अपेक्षाकृत छोटे राज्यों ने मोटे संकेत हवा में लहरा दिए हैं|
इन राज्यों के चुनाव-परिणामों के पहले महा राष्ट्र, उत्तर प्रदेश और केरल के स्थायी निकायों के चुनावों में भी काँगे्रस मात खा चुकी थी| यह स्थानीय काली छाया इतनी घनी नहीं थी कि केंद्र की चमक को फीका कर दे लेकिन पंजाब और उत्तराखंड ने तो केंद्र शासन और सत्तारूढ़ दल, दोनों के वर्तमान और भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगा दिए हैं| पंजाब तो प्रधानमंत्र्ी का अपना प्रदेश है और उत्तराखंड में काँगे्रस के सबसे कद्दावर नेता नारायण दत्त तिवारी की हुकूमत थी लेकिन दोनों हाथ से निकल गए| सोनिया गाँधी का तिलिस्म भी टूट गया| वे स्वयं चुनाव-प्रचार के लिए जगह-जगह गई थीं लेकिन मतदाताओं ने उन्हें भी उपकृत नहीं किया| यह ठीक है कि पंजाब और उत्तराखंड, दोनों प्रदेशों में काँगे्रसी गृह-युद्घ में उलझे हुए थे, बागी उम्मीदवारों ने नाक में दम कर रखा था और प्रादेशिक सरकारों ने विकास कार्यों में मुस्तैदी भी नहीं दिखाई थी लेकिन इनमें से कई दोष तो प्रतिपक्षी दलों में भी थे| इसके बावजूद काँगे्रस क्यों हार गई ?
काँगे्रस की हार का मुख्य कारण राज्यों में नहीं, केंद्र में खोजा जाना चाहिए| सारे देश में काँगे्रस की हवा खराब करने का श्रेय जबर्दस्त महँगाई को है| वोट डालनेवालों में सबसे बड़ी संख्या उन्हीं लोगों की है, जिन पर महँगाई की मार सबसे ज्यादा पड़ती है| एक महान अर्थशास्त्र्ी भारत का प्रधानमंत्र्ी है और महँगाई सुरसा की तरह बढ़ती जा रही है, इससे अधिक विडंबना क्या हो सकती है ? उपभोक्ता त्र्स्त हैं ही, किसान और व्यापारी अन्य अर्थ-नीतियों के शिकार बनते चले जा रहे हैं| विशेष आर्थिक क्षेत्रें (सेज) के कारण चाहे लाखों किसानों की ज़मीनें न छिनी हो, जैसे कभी रूस और चीन में छिनी थीं लेकिन लाखों ही नहीं, करोड़ों किसानों के मन में यह बात घर कर गई है कि वर्तमान सरकार थैलीशाहों की सेवा में संलग्न है| इसी प्रकार खुदरा व्यापार के दरवाजे़ विदेशी महाकंपनियों के लिए खोलने का संकेत देकर केंद्र सरकार ने देश के लाखों छोटे व्यापारियों के भी कान खड़े कर दिए हैं| जिस 9-10 प्रतिशत की आर्थिक प्रगति का ढिंढौरा सरकार पीट रही है, वह आम आदमी के लिए सिर्फ एक आँकड़ा है| वह सिर्फ झुनझुना है| उसकी आवाज़ कानों को अच्छी लगती है लेकिन उससे पेट नहीं भरता| ताज़ा बजट ने आम लोगों की इस धारणा को और भी मजबूत कर दिया है|
साधारण मतदाता केंद्र को लेकर काफी दिग्भ्रम में है| उसके चश्मे में अब एक के बजाय दो-दो दिल्ली नज़र आती हैं| बरसों-बरस से काँगे्रस अध्यक्ष और प्रधानमंत्र्ी का पद एक ही व्यक्ति के पास होता था लेकिन अब ये दो पद दो व्यक्तियों के पास हैं| यह स्वस्थ परंपरा है| लोकतांत्र्िक परंपरा है लेकिन दुर्भाग्य है कि इसके उल्टे परिणाम सामने आ रहे हैं| न तो प्रधानमंत्र्ी प्रभावशाली सिद्घ हो पा रहे हैं न ही काँग्रेस अध्यक्ष ! सरकार की गलत नीतियों पर काँग्रेस-अध्यक्ष को खुले-आम कटाक्ष करना पड़ता है और सरकार के बारे में यह माना जाता है कि वह बेबस है, मजबूर है, अपने फैसले स्वयं नहीं कर सकती ! उसके गठबंधन-भागीदारों का दबाव उस पर अलग से है| दूसरे शब्दों में काँगे्रसी केंद्र की जो सत्ता दो भागों में बँटकर दुगुनी हो जानी चाहिए थी, वह आधी भी नहीं रह गई है| शिखर पर शून्य-सा निर्मित हो गया है| पंजाब और उत्तराखंड के चुनाव ने इस भयावह स्थिति को रेखांकित किया है|
अगर केंद्र सरकार की राजनीतिक छवि सुधरती चली जाती तो आम आदमी पर सत्ता के इस द्वैध का भी कोई खास फर्क नहीं पड़ता, लेकिन गरीब किसानों की आत्म-हत्या, आतंकवादियों का नंगा-नाच, विदेश नीति के क्षेत्र् में अमेरिका के प्रति झुकाव, पाकिस्तान के प्रति रहस्यमय नरमी और ईरान के प्रति अजीब-से पसोपेश ने केंद्र सरकार की छवि को धुंधला कर दिया है| उत्तर प्रदेश में मुलायमसिंह-सरकार के बारे में गरम-नरम और नरम-गरम नीतियाँ अपनाकर केंद्र सरकार ने आम मतदाता ही नहीं, काँग्रेस कार्यकर्ताओं को भी गहरी उलझन में डाल दिया है| काँग्रेस ने अपने आचरण से कुछ पर्यवेक्षकों के इस प्रारंभिक अनुमान को पुष्ट कर दिया है कि देश का नेतृत्व अ-नेताओं के हाथ में चला गया है| पार्टी और सरकार, दोनों ही ऐसे लोगों के हाथ में है, जिनका जनता से कभी सीधा संबंध नहीं रहा| इस कटु टिप्पणी को काँग्रेस चाहती तो अपने पिछले ढाई साल के शासन में एकदम गलत सिद्घ कर सकती थी लेकिन पंजाब और उत्तराखंड के चुनाव ने उस पर मुहर लगा दी है| क्वात्रेची के कब्र में से अचानक निकल आने ने बोफोर्स के भूत को दुबारा जगा दिया है| प्रधानमंत्र्ी की साख दाँव पर लग गई है|
इन चुनावों के कारण केंद्र सरकार और काँग्रेस, दोनों उत्तरोत्तर कमजोर होते चले जाएँगे| केंद्र सरकार के बरक्स अब भाजपा-गठबंधन का पलड़ा भारी हो जाएगा| भाजपा अब पहले से अधिक आक्रामक हो जाएगी| भाजपा में नए आत्म-विश्वास का उदय हो रहा है| उसे दिल्ली के ताज़ की झलक दुबारा दिखाई पड़ने लगी है| जिन्ना का जिन्न नेपथ्य में खिसकने लगा है और भाजपाई राजनाथ के नेतृत्व में राज का सपना देखने लगे हैं| राजनाथसिंह की दुकान अपने आप जमती चली जा रही है| पंजाब के असंप्रदायिक वोट ने यह संकेत भी दे दिया है कि उग्र हिंदुत्व का सहारा लिये बिना भी भाजपा दुबारा सत्ता में लौट सकती है| प्रतिपक्ष ही नहीं, काँग्रेस के सहयोगी वामपंथी दल भी अपने प्रहारों को प्रखर करेंगे| कोई आश्चर्य नहीं कि वे उत्तर प्रदेश, प. बंगाल, तमिलनाडु केरल, कर्नाटक, कश्मीर, आंध्र, असम आदि के प्रादेशिक दलों से साँठ-गाँठ करके कोई गैर-काँग्रेसी और गैर-भाजपाई विकल्प खड़ा करने की कोशिश करें| डूबते जहाज पर कौन सवारी करना चाहता है ? अब तक जो दल काँग्रेस-गठबंधन में शामिल हैं, वे भी अब अगल-बगल निहारना शुरू कर देंगे|
इस स्थिति का असर उत्तर प्रदेश के आसन्न चुनावों पर तो पड़ेगा ही, लोकसभा के पहले होनेवाले तीन-चार अन्य राज्यों के चुनावों पर भी पड़ेगा| लोकसभा का चुनाव आते-आते काँग्रेस की सत्ता दिल्ली के अलावा सिर्फ मुट्ठीभर राज्यों में सिकुड़कर रह जाएगी| उसका पूर्व रूप हमें राष्ट्रपति के चुनाव में ही मालूम पड़ जाएगा| राष्ट्रपति के चुनाव में राज्यों के जो साढ़े पाँच लाख वोट पड़ने हैं, उनमें भी काँग्रेस के सारे विधायक मिलकर भी दो लाख वोट पूरे नहीं करते| वामपंथी राज्यों के वोट भी शामिल कर लें तो भी राष्ट्रपति पद के लिए काँग्रेस अपना उम्मीदवार नहीं जिता सकती| दूसरे शब्दों में राष्ट्रपति के चुनाव में भी भाजपा-गठबंधन का पलड़ा भारी हो गया है| इसमें शक नहीं कि भाजपा-गठबंधन अपना उम्मीदवार जिताने की स्थिति में नहीं होगा लेकिन वह काँग्रेस को भी अपना उम्मीदवार थोपने नहीं देगा| मणिपुर में काँग्रेस की सरकार दुबारा बन रही है लेकिन पूर्वांचल भारतीय राजनीति का दर्पण कभी नहीं रहा
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