Dainik Hindustan, 29 April 2010 : भारतीय लोकतंत्र में कई ऐसी चीजें हैं जो चौंका देती हैं। हमारी संसद में आमतौर पर ऐसे पांच या दस सदस्य भी नहीं होते, जो कुल मतों के 50 प्रतिशत से चुने जाते हों। स्पष्ट बहुमत से चुने हुए सदस्य पांच प्रतिशत भी नहीं होते यानी 95 प्रतिशत से ज्यादा सदस्यों को अपने कुल मतदाताओं के आधे वोट भी नहीं मिलते और वे जन-प्रतिनिधि कहलाते हैं। सिर्फ 1977 के चुनाव में 19 सांसद ऐसे थे, जिन्हें अपने-अपने चुनाव-क्षेत्र में 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले।
अभी तक भारत में कुल 15 संसद चुनी गई हैं। 1951 और 1998 के चुनाव में एक भी सांसद ऐसा नहीं चुना गया, जिसे 50 प्रतिशत वोट मिले हों। चार बार सिर्फ एक, एक बार सिर्फ दो, दो बार सिर्फ चार-चार, एक बार सिर्फ पांच, तीन बार सिर्फ छह-छह और एक संसद में सिर्फ 9 सदस्य ऐसे चुने गए, जिन्हें अपने कुल मतदाताओं के 50 प्रतिशत वोट मिले थे।
पिछली 15 संसद में लगभग 8100 सदस्य चुने गए, जिनमें सिर्फ 65 ऐसे थे, जिन्हें अपने कुल मतदाताओं में से 50 प्रतिशत के वोट मिले हैंयानी हमारे 99 प्रतिशत से ज्यादा सांसद स्पष्ट बहुमत से नहीं चुने गए। यदि हम पचास प्रतिशत वोटों को वैधता का आधार बनाएं तो क्या हमारी सभी संसदों की वैधता संदिग्ध नहीं हो जाएगी?
यदि थोड़े और गहरे उतरें, आंकड़ों की खुदाई करें तो मालूम पड़ेगा कि बहुत-से सांसद और विधायक अपने कुल मतदाताओं के सिर्फ 10-15 प्रतिशत वोट मिलने पर भी जीत जाते हैं। आज तक भारत में ऐसा एक भी प्रधानमंत्री नहीं हुआ (नरसिंहराव के अलावा) जिसे अपने निर्वाचन-क्षेत्र में कुल वोटों में से 50 प्रतिशत वोट मिले हों। राव साहब अकेले ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्होंने नांदियाल में 50 प्रतिशत के आंकड़े को बहुतपीछे छोड़ दिया।
क्या जवाहरलाल नेहरू, क्या इंदिरा गांधी, क्या अटल बिहारी वाजपेयी और क्या राजीव गांधी? किसी को भी अपने कुल मतदाताओं के 50 प्रतिशत वोट कभी नहीं मिले। सिर्फ राजीव गांधी को 1984 में अमेठी से 49.27 प्रतिशत वोट मिले थे। ये भी उस मौके पर चली जबरदस्त लहर का ही चमत्कार था। वरना ज्यादातर प्रधानमंत्री 19 प्रतिशत से 35 प्रतिशत के बीच झूलते रहे। जिस देश के प्रधानमंत्री अपने चुनाव-क्षेत्र की बहुसंख्या का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते, वे हमारे राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करते हैं।
नाक बचाने के लिए हम कह सकते हैं कि ज्यादातर प्रधानमंत्रियों को कुल वोटों का न सही, पड़े हुए वोटों का 50 प्रतिशत तो अवश्य मिलता रहा है। लेकिन यहां भी जवाहर लाल नेहरू जैसे इतिहास-पुरुष को 1951 और 1957 के चुनावों में क्रमश: 38.73 और 36.87 प्रतिशत वोट ही मिले। अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोकप्रिय नेता को 1999 के चुनाव में डाले गए वोटों का सिर्फ 48.11 प्रतिशत ही मिला। प्रधानमंत्रियों का यह हाल है तो सांसदों की स्थिति क्या होगी?
15 में से केवल पांच संसद ऐसी हुई हैं, जिनके बहुसंख्यक सदस्य पड़े हुए वोटों का 50 प्रतिशत ले पाए हैं। ये संसदें 1971 से 1989 के बीच चुनी गई हैं। इनके अलावा सभी 10 संसदों में ज्यादातर सांसदों को पड़े हुए वोटों का 50 प्रतिशत कभी नहीं मिल पाया। 2009 के चुनाव में सिर्फ 120 सांसदों को पड़े हुए वोटों का 50 प्रतिशत या थोड़े अधिक वोट मिले हैं। वर्तमान संसद में केवल पांच सदस्य ऐसे हैं, जो सच्चे अर्थो में इस तरह से चुनाव जीतकर आए हैं। ये भी ज्यादातर सिक्किम, त्रिपुरा, नागालैंड जैसे राज्यों से जीते हैं। उन्हें कुल मतदाताओं के 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट मिले हैं यानी 543 में से केवल पांच। एक प्रतिशत से भी कम।
जब हमारे सांसद और प्रधानमंत्री तक जनता का सच्चा प्रतिनिधित्व नहीं कर पाते तो सरकारें क्या करेंगी? भारत में आज तक एक भी ऐसी सरकार नहीं बनी, जिसे कभी 50 प्रतिशत वोट मिले हों। कुल वोटों का 50 प्रतिशत मिलना तो परीलोक के सपने के समान है लेकिन डाले गए वोटों का भी 50 प्रतिशत आज तक किसी भी एकदलीय या बहुदलीय सरकार को नहीं मिला।
22-22 पार्टियों की गठबंधन सरकारें बनीं लेकिन वे पड़े हुए वोटों के सिर्फ 23 या 25 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व करती रहीं। अगर यह मान लें कि मतदान 50 से 60 प्रतिशत के बीच होता रहा तो ये सरकारें मुश्किल से कुल मतदाताओं के 12 से 22 प्रतिशत हिस्से का ही प्रतिनिधित्व करती रहीं। हर भारतीय तो मतदाता नहीं है। भारत में लगभग 116 करोड़ लोग हैं और मतदाता 72 करोड़ हैं यानी कुल जनसंख्या का हिसाब लगाएं तो नतीजे बड़े अजीब होंगे। हमारी सरकारें कुल जनसंख्या के 10-15 प्रतिशत का भी प्रतिनिधित्व नहीं करतीं।
सरल शब्दों में कहें तो यदि किन्हीं पार्टियों को 10-12 करोड़ वोट मिल जाएं तो भी वे धन्ना सेठ बन बैठती हैं। वे अपने आपको लोकप्रिय सरकार कहने लगती हैं। 12 करोड़ वोटों से बनी सरकार 116 करोड़ लोगों की प्रतिनिधि होने का दावा करती है। अब इसे क्या कहा जाए। वैसे आज तक किसी भी पार्टी या गठबंधन को पूरे 12 करोड़ वोट कभी नहीं मिले।
2009 के लोकसभा-चुनाव में कांग्रेस-गठबंधन को अब तक के सबसे ज्यादा वोट मिले लेकिन वे भी सिर्फ 11 करोड़ 91 लाख 11 हजार ही थे। कुल 72 करोड़ वोटों में से 41 करोड़ पड़े और उन 41 में से सिर्फ 11 करोड़ से सरकार बन गई। 30 करोड़ हमारे विरोध में हैं और सिर्फ 11 करोड़ हमारे पक्ष में हैं। फिर भी हमने सरकार बना ली। यह हमारी सबसे लोकप्रिय सरकार है।
क्या हमारी सरकारें सचमुच लोकप्रिय होती हैं? हालांकि एक हिसाब से देखें तो जिस तरह से सरकारें बनती हैं इसमें कुछ भी गलत नहीं है क्योंकि हमारे प्रावधान ही ऐसे हैं। लेकिन वास्तविक लोकप्रियता और जन प्रतिनिधित्व के हिसाब से देखें तो यह अजीब लगता है। इसीलिए इसे बदलने की जरूरत भी दिखाई देती है। वैसे तो इस पूरी व्यवस्था में अनेक छोटे-मोटे सुधारों की जरूरत है लेकिन दो काम तो तुरंत करने लायकहैं।
एक तो मतदान को अनिवार्य किया जाए और दूसरे ऐसी व्यवस्था की जाए कि चुने जाने वाले सांसद अपने क्षेत्र के कम से कम आधे मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हों। अगर ऐसा होता है तो सरकारों का जनाधार अत्यंत व्यापक हो जाएगा, राजनीतिक जागरूकता और जन-भागीदारी बढ़ेगी, वोट-बैंक की राजनीति घटेगी, चुनावी भ्रष्टाचार कम होगा। साथ ही इससे सरकार की जनता के प्रति जवाबदेही बढ़ेगी और भारत के लोकतंत्र में नए प्राणों का संचार होगा।
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