R Sahara, 30 Jan 2005 : राष्ट्रपति भवन का स्वागत समारोह । एक कोने में श्री लालकृष्ण आडवाणी, श्री नटवरसिंह, श्री प्रणव मुखर्जी, डॉ कर्णसिंह और मैं खड़े हुए थे। कुछ लोग डॉ कर्णसिंह को पद्म विभूषण की बधाई दे रहे थे। डॉ कर्णसिंह ने मेरी तरफ्ऎ देखा तो मैंने कहा, “क्या करुँ, बधाई दॅूं, आपको या सहानुभूति व्यक्त करऎँ, आपसे? उन्होंने कहा, “इसमें बधाई क्या है, इससे ऊपरवाला (याने भारतरत्न) मिलता तो कोई बात होती। इस तरह के सम्मान तो हम ही जीवन भर लोगों को देते रहे हैं। मुझे तो किसी ने त्रिवेंद्रम से फ्ऎोन पर बताया कि यह सम्मान मुझे दिया गया है।” इस पर नटवरसिंह ने कहा कि “आश्चर्य है कि आपसे पहले ही पूछा क्यों नहीं गया?”
अब मालूम पड़ा कि कर्णसिंहजी ही नहीं, प्रो रोमिला थापर, असम के श्री कनकसेन देका आदि कई सज्जनों को ये सरकारी सम्मान उनकी सहमति के बिना ही दे दिए गए। उनमें से कई इन्हें लौटा नहीं पाते। वे विवादास्पद नहीं बनना चाहते। इस तरह के सम्मान पहले भी पं हृदयनाथ कुंजरु, निखिल चक्रवर्ती आदि ने अस्वीकार किए हैं। इससे यह सिद्ब होता है कि ये सम्मान बिना माँगे भी कुछ लोगों को दिए जाते हैं। शायद इसीलिए कि इन `सम्मानों’ का सम्मान बढ़े। ये सम्मान अपने आप इसलिए भी दिए जाते होंगे कि क्षेत्रीय संतुलन ठीक हो जाए, नज़रअंदाज हुए प्रतिद्वंदियों की नाराज़गी घटे, राजनीतिक चहेतों को प्रश्रय मिले, सांस्कृतिक बरगदों के तनों में सरकार के घोंसले बनें। सम्मान हर मनुष्य की कमजोरी है। इसीलिए मानकर चला जाता है कि उसे कौन ठुकराएगा? कुछ हद तक यह सच भी है। जो कहते हैं कि उन्हें `सरकारी सम्मान’ पसंद नहीं, उनसे कोई पूछे कि उन्हें मोटी-मोटी सरकारी फ्ऎेलोशिप, हवाई-यात्राएँ, सरकारी रॉयल्टियाँ आदि क्यों पसंद हैं? निजी मकानों के बावजूद वे सरकारी बंगलों पर जिंदगी भर कब्जा क्यों किए रहते हैं? सरकारी आयोगों और कमेटियों के सदस्य और अध्यक्ष क्यों बनते हैं? क्या ये सरकारें विदेशी हैं या अनैतिक हैं या अवैध हैं? अपने द्वारा चुनी हुई सरकारों से परहेज़ क्यों होना चाहिए? क्या सम्मान पानेवालों का आत्मबल इतना नाजुक है कि वे सम्मान देनेवाले के प्रति निष्पक्ष नहीं रह सकते?
एक तरफ्ऎ इस तरह के छुई-मुई लोग हैं और दूसरी तरफ्ऎ वे हैं, जिनकी खाल हमारे नेताओं से भी ज्यादा मोटी होती है। चमड़ी नहीं, खाल । `सम्मान’ और `पुरस्कार’ पाने के लिए वे जमीन-आसमान एक कर देते हैं। नेताओं की चौखट पर वे इतनी नाक रगड़ते हैं कि सम्मान मिलने तक उनके चेहरे पर नाक ही नहीं रह जाती। थोक में मिले इन सम्मानों को वे अपनी नाक बना लेते हैं। नाक कटाकर नाक लगवानेवाले भला किसी सम्मान को अस्वीकार कैसे कर सकते हैं? क्या भिखारी आग्रह करेगा कि मेरे कटोरे में सिर्फ्ऎ रसगुल्ले ही डालिए? हाँ, जो लोग अस्वीकार करते हैं, उनमें से ज्यादातर ऐसे हैं, जिन्हें अंदरुनी पीड़ा होती है कि फ्ऎलाँ को पद्म विभूषण और मुझे सिर्फ्ऎ पद्म भूषण ? इस जलन को वे प्रकट नहीं करते । असली कारण नहीं बताते । वे किसी और बहाने की ओट ले लेते हैं । (पं जसराज अपवाद थे) इसीलिए जिन्हें सम्मान मिलते हैं और जो लौटा भी देते हैं, लगभग सबके प्रति सहानुभूति पैदा होती है। पं कुजरु जैसे लोग अपवाद होते हैं। जिन्हें, सारी नाक-रगड़ाई के बावजूद सम्मान नहीं मिल पाते, उनके प्रति सहानुभूति होना तो सबसे जरुरी है। वे भी सहानुभूति के विशेष पात्र हैं, जिनकी पहचान पर भी इन सम्मानों की मार पड़ती है। जैसे किसी नेता को समाजसेवी का, किसी शिक्षाशास्त्री को पत्रकार का और किसी पत्रकार को सेठ का सम्मान मिल जाए। वाह, क्या बात है ? बधाई ।
थोक में दिए गए सम्मानों में इस तरह की भूल अक्सर हो जाती है। ये सम्मान कितने सम्मानपूर्ण हैं, इसका पता अभी श्री विष्णु प्रभाकर ने दिया। इस गणतंत्र-दिवस पर उन्हें राष्ट्रपति-भवन में जाने नहीं दिया गया। उनकी आयु 93 वर्ष है। वे अपने बेटे को साथ ले गए थे। कार्ड पर `श्रीमती’ लिखा था। श्रीमतीजी हैं नहीं तो उनकी जगह क्या बेटा नहीं जा सकता था? इसमें कौनसा खतरा था? क्या कार्ड चेक करनेवाले अपने बड़े अफ्ऎसरों से सलाह नहीं कर सकते थे ? श्रीमतीजी नहीं रहीं, यह बात विष्णुजी ने 15 अगस्त के पहले भी लिखकर राष्ट्रपति भवन भेजी थी और अब भी भेजी थी। लेकिन विष्णुजी का कहना है कि हिन्दी की चिट्ठी पर कौन ध्यान देता है ? उन्होंने पिछले साल दिए गए `पद्मभूषण’ में भी स्पष्ट अरुचि दिखाई थी लेकिन इसके बावजूद तमगा उनके घर पहॅुंचा दिया गया। इस बार वह तमगा भी उन्होंने जेब से निकालकर दिखाया लेकिन किसी ने परवाह नहीं की। खुशी की बात है कि राष्ट्रपति ने उन्हें मिलने बुलाया है। अगर इस बार भी हिन्दी की चिट्ठी कूड़ेदान में चली जाती तो अपने साथ वह `तमगा’ भी ले जाती ।
मदनजीतसिंह
हिंदी जगत में श्री मदनजीत सिहं का नाम ज्यादा जाना-पहचाना नहीं है लेकिन वे आदमी हैं, जानने लायक । पिछले हफ्ते डाक से एक किताब आई — `द सासिया स्टोरी’। अजीब-सा शीर्षक । किताब खोली तो उसे बंद ही नहीं कर सके। पढ़ते ही गए। वह मदनजीत सिंह की आत्म-कथा है। मन में प्रश्न हुआ कि मदनजीत सिंह क्या इतने बड़े आदमी हैं कि वे आत्म-कथा लिखें? वे कई देशों में हमारे राजदूत रह चुके हैं। चित्र देखने से लगा कि कि इन सज्जन से कहीं भेंट जरुर हुई है। बस इतना ही। लेकिन `आत्मकथा’ पढ़ी तो लगा कि बचपन से ही मदनजीतसिंह में कोई बड़ा आदमी छिपा हुआ है। अपनी कथा कहने का उनका अंदाज़ ही निराला है। वह कहीं भी चुभती नहीं। आत्म-प्रचार मालूम नहीं पड़ती। उन्होंने सन् 2000 में एक दक्षिण एशिया प्रतिष्ठान कायम किया। उनके बेटे जीत ने अमेरिका में एक सॉफ्टवेयर कम्पनी बेची। अरबों रु पाए । वे इस प्रतिष्ठान को दे दिए । यह प्रतिष्ठान दक्षिण एशिया की जनता के कल्याण के लिए कटिबद्ब है। लगभग 10 हजार छात्रवृत्तियाँ दी जा रही हैं, प्रशिक्षण संस्थान कायम किए जा रहे हैं और गरीबी दूर करने के उपाय भी किए जा रहे हैं। मदनजीतजी की यह आत्म-कथा उनके सपनों का दर्पण है। वे सिद्बहस्त लेखक और फ्ऎोटोग्राफ्ऎर हैं। इसीलिए यह किताब पठनीय के साथ-साथ दर्शनीय भी बन गई है। यह इटली में छपी है।
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