राष्ट्रीय सहारा, 28 सितंबर 2007 : बर्मा, जिसे हम ब्रह्रमदेश कहते रहे हैं, भ्रमदेश बन गया है| बर्मा को लेकर भारत जितना भ्रमित है, कोई अन्य देश नहीं है| बर्मा के शांतिपूर्ण प्रदर्शनों का सारी दुनिया समर्थन कर रही है लेकिन हमारे विदेश मंत्री कहते हैं कि यह बर्मा का आंतरिक मामला है| फौज और जनता मिलकर इसे सुलझाए| ऐसा कहने का क्या मतलब है? कुछ भी नहीं| यह कूटनीतिक शून्य है| भारत के इस कूटनीतिक असमंजस के मुकाबले ज़रा देखें कि संयुक्तराष्ट्र, अमेरिका, यूरोपीय राष्ट्र और कुछ एशियाई राष्ट्र क्या कह रहे हैं| सभी फौज से मॉंग कर रहे हैं कि वह लाखों प्रदर्शनकारियों के साथ तमीज़ से पेश आए| उन पर वह पागल कुत्तों की तरह टूट न पड़े| इस मांग के बावजूद फौज ने शांत भिक्खुओं पर हमला बोल दिया| पॉंच-छह लोग मारे गए हैं और 300 भिक्खु गिरफ्तार हुए हैं| यह ठीक है कि सारे देश के लाखों प्रदर्शनकारियों को फौज ने हफ्ते भर से छुआ नहीं था और 1988 की तरह 3000 लोगों को मौत के घाट भी नहीं उतारा है लेकिन यह निश्चित है कि जनोत्थान की लहरें जितनी ऊॅंची उठेंगी, बर्मा में खून की नदियॉं उतनी ही तेज बहेंगी, क्योंकि बर्मी फौज न तो जनता के प्रति जवाबदेह है और न ही उस पर दुनिया के शक्तिशाली देशों का कोई दबाव है|
बर्मा के फौजी शासकों ने कुछ वर्षो पहले अपने देश को संयुक्तराष्ट्र संघ से भी बाहर निकाल लिया था| जिस देश का एक अफसर, ऊ थांत, सं.रा. का महासचिव रहा हो, वह देश इतना दुस्साहस इसीलिए कर सका कि उसके फौजी शासकों ने बर्मा को काल-कोठरी बना दिया है| बर्मा का नाम बदलकर म्यांमार कर दिया है| 1990 के चुनाव में ऑंग सान सू ची की लोकतांत्र्िक पार्टी को 489 में से 392 सीटें मिलीं लेकिन फौज ने उन्हें सरकार नहीं बनाने दी| श्रीमती सू ची पिछले 18 साल से या तो जेल में रहीं या नजरबंद| नोबेल पुरस्कार विजेता सू ची अब जन-विरोध की धुरी बन गई हैं| हजारों बौद्घ भिक्खु उनके घर के सामने श्रद्घा व्यक्त करने गए थे| फौज ने राजनीतिक दलों पर ही प्रतिबंध नहीं लगा रखा है, सारे खबरतंत्र् का गला घोंट दिया है| विदेशी पत्र्कार रंगून में घुस नहीं सकते| विदेशी कूटनीतिज्ञों पर भी कड़ा पहरा है| आम-जनता किसी मुद्दे पर ज़रा भी चूॅ-चपड़ नहीं कर सकती| हजारों लोग बिना किसी अपराध के जेलों में बंद हैं| सैकड़ों लोग हर साल मार दिए जाते हैं| संक्रामक रोग सारे देश में फैले हुए हैं| उनकी रोक-थाम का कोई इंतजाम नहीं है| बेकारी और भुखमरी ने बर्मी जनता की कमर तोड़ दी है| अब जो आंदोलन भड़का है, उसका तात्कालिक कारण है कि डेढ़-दो माह पहले सरकार ने पेट्रोल की कीमत दुगुनी और गैस की क़ीमत पॉंच गुनी कर दी है| मॅंहगाई महत्वपूर्ण मुद्दा है लेकिन उसे लेकर बौद्घ संतो के भड़कने का क्या कारण है? यह कारण सिर्फ मॅंहगाई नहीं है| यह पिछले 20 वर्षो का अंदर ही अंदर खदबदाता हुआ जन-आक्रोश है| जन-आक्रोश का यह सैलाब वैसा ही है, जैसा कभी ईरान में शाहंशाह और फिलीपीन्स में मारकोस के विरूद्घ भड़का था| 1988 में फौज ने 3000 लोगों को गोलियों से भूनकर चुप कर दिया था लेकिन इस बार बौद्घ भिक्खुओं और भिक्खुणियों के मैदान में उतरने से नक्शा ही बदल गया है| बौद्घ राष्ट्रों में भिक्खुओं को देवताओं की तरह पूजा जाता है| उन पर हाथ उठानेवाली कोई भी ताकत सिंहासन पर टिकी नहीं रह सकती| अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि श्रीमती सू ची परदे के पीछे नहीं चल गई है| उनका जलवा अभी तक बना हुआ है| इस बार फौज का सही-सलामत बच निकलना मुश्किल होगा|
फिर भी क्या वजह है कि भारत-जैसा सबसे निकट का पड़ौसी राष्ट्र हाथ पर हाथ धरे बैठा है? वह बर्मा की लोकतांत्रिक शक्तियों की खुली सहायता क्यों नही कर रहा है? भारतीय विदेश मंत्रलय का सोच यह रहा है कि सू ची को निष्कि्रय बनाकर फौज ने लोकतंत्र् के सभी रास्ते बंद कर दिए हैं| ऐसे में भारत के पास फौज से बात करने के अलावा कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है| भारत बर्मा में अपने राष्ट्रहितों की रक्षा करे या किसी हवाई लोकतांत्रिक आंदोलन के पक्ष में गाल बजाए? यह तर्क पहले व्यावहारिक मालूम पड़ता था लेकिन अब इसमें कितना दम रह गया है, इसका मूल्याकंन तुरंत होना चाहिए| यदि फौज का शासन उलट गया तो ‘फौजप्रेमी’ भारत के प्रति बर्मी जनता का रवैया क्या होगा?
भारत की दूसरी मजबूरी चीन भी है| बर्मा का सबसे बड़ा समर्थक चीन है| पिछले साल जब बर्मा के विरूद्घ सं.रा. में प्रतिबंधों का प्रस्ताव सुरक्षा परिषद में आया तो चीन और रूस ने ही उसे वीटो किया था| चीन बर्मा से सस्ते दामों पर प्रचुर गैस प्राप्त कर रहा है और तेलोत्खनन के समझौते भी उसने उसके साथ किए हैं| जो लाभ भारत को मिलने चाहिए थे, वे चीन उड़ा ले गया है| बर्मा को चीन बड़े पैमाने पर हथियार बेच रहा है और उसका सबसे बड़ा व्यापार-भागीदार बन गया है| वह बर्मी बंदरगाहो के निर्माण और नियंत्र्ण पर भी कटिबद्घ है ताकि हिंदमहासागर के समुद्री यातायात को वह अपने प्रभाव-क्षेत्र् में बनाए रखे| इसके अलावा वह बर्मा को दक्षिण एशिया में अपने क्षत्र्प की तरह खड़ा रखना चाहता है| ऐसे में भारत बर्मी फौज का विरोध करे तो उसके नुकसान की संभावना बढ़ जाती है लेकिन भारत को यह भी सोचना होगा कि फौजी शिकंजे के विरूद्घ मौन धारण किए रहने के दूरगामी परिणाम क्या होंगे? अब भी फौज भारत के मुकाबले चीन को ही अधिक प्रश्रय दे रही है| भारत के साथ बर्मा ने जो भी समझौते किए हैं, वे अपने फायदे के लिए ही किए हैं| यद्यपि उसने भारत को भी बंदरगाह बनाने और तेल निकालने के ठेके दिए हैं लेकिन भारत ने तेल-शोधन के लिए दो करोड़ डॉलर बर्मा को भेंट किए हैं| उसकी फौज को अच्छे-खासे हथियार भी दिए जा रहे हैं| याने मामला एकतरफा नहीं है| यदि भारत को बर्मा की गर्ज़ है तो बर्मा को भी भारत की गज़र् है| ऐसी स्थिति में यदि बर्मी फौज पर भारत दबाव नहीं डालेगा तो कौन डालेगा? कोई आश्चर्य नहीं कि भारत का बढ़ता दबाव देखकर चीन भी बर्मी फौज को दबाने लगे| चीन को अगले साल अपने देश में ओलंपिक करना है| वह अपनी अंतरराष्ट्रीय छवि चमकाना चाहता है| इसके अलावा चीन दक्षिण एशियाई मामलों में भारत के एकदम विरूद्घ जाना पसंद नहीं करेगा| चीन को पता है कि बर्मा में यदि तगड़ी उथल-पुथल हो गई तो लाखों बर्मी शरणार्थी भारत पहुंच जाऍंगे| 1971 के बांग्लादेश का-सा परिदृश्य उपस्थित हो जाएगा| ऐसी स्थिति में चीन का रवैया जो भी हो, भारत को कड़ी कार्रवाई करनी होगी| बर्मा के प्रति भारत की जिम्मेदारी इसीलिए भी ज्यादा है कि वहां भारतीय मूल के लाखों लोगों का जीवन खतरे में पड़ सकता है| यों भी लगभग 80 साल पहले तक बर्मा भारत का ही हिस्सा था|
बर्मा के विरूद्घ संयुक्तराष्ट्र अपने प्रतिबंध शायद ही लगा पाए लेकिन महासचिव बान-की-मून ने जो अपना विशेष दूत भेजा है, उसकी सकि्रय सहायता करना और बर्मा की फौजी सरकार से सीधी बात करना भारत का कर्त्तव्य है|
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