जनसत्ता, 13 जनवरी 2007 : बांग्लादेश के राष्ट्रपति एजाजुद्दीन अहमद को जल्दी ही समझ आ गया कि बेगम खालिदा जि़या का मोहरा बनना कितना खतरनाक है| उन्होंने पहले तो कार्यवाहक प्रधानमंत्री का पद छोड़ा और फिर 22 जनवरी के चुनावों को स्थगित करने की घोषणा की| यह कितनी विचित्र् बात थी कि वे राष्ट्रपति तो पहले से थे और अब वे प्रधानमंत्री भी बन गए थे| उन्होंने बांग्लादेश के संविधान को शीर्षासन करवा दिया था| बांग्ला संविधान-जैसा उत्तम प्रावधान तो भारत में भी नहीं है याने चुनाव के पहले सरकार इस्तीफा दे और कोई निष्पक्ष कार्यवाहक सरकार चुनाव करवाए| बांग्ला संविधान के मुताबिक कार्यवाहक सरकार का मुखिया उच्चतम न्यायाधीश ही बनता है| वह बनने के लिए न तो वर्तमान मुख्य न्यायाधीश तैयार हुए और न ही निवर्तमान| खालिदा और हसीना के बीच चल रहे राजनीतिक दंगल में कोई भी अपनी टांग फंसाने को तैयार नहीं था| यह कमी पूरी की, राष्ट्रपति अहमद ने ! वे कूद पड़े| वे कार्यवाहक प्रधानमंत्री बन गए| वह यह भूल गए कि उन पर खालिदा जि़या के मोहरे होने का आरोप पहले से दनदना रहा था| पिछले ढाई माह में राष्ट्रपति अहमद ने हसीना की बहुत-सी बातें मान लीं, फिर भी विपक्षी दलों का अभियान जारी रहा| पूरा बांग्लादेश कई बार बंद हुआ| ढाका, चिटगांव और सिलहट आदि में जान-माल का काफी नुकसान हुआ| अवामी पार्टी और उसके साथी 18 दलों की मुख्य मांग थी कि राष्ट्रपति अहमद कार्यवाहक प्रधानमंत्री का पद छोड़ें और चुनावी धांधली रोकें| नई मतदाता सूचियां बनवाएं, मतदान केंद्रों को मज़हबियों और आतंकवादिया से सुरक्षित करें, सैकड़ों खालिदापरस्त अधिकारियों को बर्खास्त करें, चुनाव आयोग की शुद्घि करें, फौज और पुलिस का राजनीतिकरण बंद करें, भ्रष्ट मंत्रियों को सजा दें आदि| ढाई माह की कवायद के बावजूद राष्ट्रपति अहमद बांग्लादेश के विपक्षी नेताओं तो क्या, विदेशी सरकारों और संस्थाओं को भी यह विश्वास नहीं दिला पाए हैं कि वे निष्पक्ष हैं और चुनाव साफ-सुथरे होंगे| अमेरिका और बि्रटेन के राजदूतों ने राष्ट्रपति से खुद मिलकर शिकायत की है| अमेरिकी सरकार ने हसीना के प्रदर्शनों और हड़तालों पर खेद जाहिर किया है, लेकिन चुनावों की निष्पक्षता पर भी संदेह व्यक्त किया है| यूरोपीय आयोग ने बांग्लादेश की डावांडोल राजनीतिक स्थिति को चुनाव के अनुकूल नहीं पाया है और संयुक्तराष्ट्र संघ ने तो अपने पर्यवेक्षकों को ही वापस बुला लिया है| उसने चुनावी प्रक्रिया में सहायता देनेवाली अपनी सारी मशीनरी हटा ली है| उसने बांग्ला लोकतंत्र् के भविष्य पर चिंता व्यक्त की है| उसने बांग्लादेश के सभी राजनीतिक दलों से हिंसा-त्याग का आग्रह किया है| पश्चिमी देशों का मानना है कि बांग्लादेश के चुनावी-संकट से दुनिया के ”इस बेहद गरीब, भ्रष्ट और जनसंख्या-बहुल देश” की प्रतिष्ठा पैंदे में बैठ जाएगी| यों भी हड़तालों, यातायातबंदी और घेरावों के कारण बांग्ला-अर्थ-व्यवस्था लंगड़ाने लगी है| हसीना और खालिदा की पार्टियों के हजारों कार्यकर्ता आजकल मरने-मारने पर उतारू हो रहे हैं| फौज और पुलिस ने दर्जनों लोग मार गिराए हैं और सैकड़ों को सींखचों के पीछे डाल दिया है| भारत ने इस स्थिति पर चिंता व्यक्त की है| यदि बांग्लादेश में गृह-युद्घ छिड़ गया तो फौज और पुलिस लगभग निरंकुश हो जाएगी| ढाका में दो बार सफल तख्ता-पलट हो चुका है और 19 बार तख्ता-पलट की असफल कोशिश हो चुकी है| वर्तमान राष्ट्रपति और बांग्ला सेनापति के बीच प्रतिदिन गहरा विचार-विमर्श चल रहा है| अभी तो बांग्लादेश की व्यवस्था निवर्तमान प्रधानमंत्री खालिदा, वर्तमान राष्ट्रपति और सेनापति की सांठ-गांठ से चल रही है, लेकिन राजनीतिक स्थिति जैसे ही बेकाबू होगी, फौज सारे सूत्र् संभाल लेगी|
यों भी राष्ट्रपति अहमद ने आपातकाल की घोषणा कर दी है और देश में कर्फ्यू लगा दिया है| फौज अपने आप प्रभावशाली हो गई है| वैसे भी दो-तीन दिन पहले 60 हजार फौजियों को मतदान-केंद्रों पर तैनात कर दिया गया था| अब चुनाव स्थगित करके राष्ट्रपति ने अपने सिर से बहुत बड़ी बला टाल दी है, लेकिन यदि 90 दिन के अंदर याने जनवरी के अंत तक चुनाव नहीं हुए तो एक नया संकट खड़ा हो जाएगा| संविधान का उल्लंघन होगा| उच्चतम न्यायालय अगर हस्तक्षेप भी करेगा तो वह क्या कर लेगा ? वह खुद तो चुनाव नहीं करवा सकता| यदि अब राष्ट्रपति अहमद इस्तीफा दे दें तो भी क्या चुनाव करवाए जा सकते हैं ? माना जा रहा है कि राष्ट्रपति अहमद शीघ्र ही नए कार्यवाहक प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करेंगे| कैसे करेंगे ? या तो अपने आप करेंगे या खालिदा या सेनापति से पूछकर करेंगे| नतीजा क्या होगा ? वह नाम भी रद्द हो जाएगा| हसीना उस नई कठपुतली को कैसे स्वीकार करेंगी| और यह नया कठपुतली प्रधानमंत्री दो हफ्ते में चुनाव कैसे करवाएगा? यदि नए कार्यवाहक प्रधानमंत्री की नियुक्ति हसीना की सहमति से हो तो भी वह हसीना की शर्तों को पूरा कैसे करेगा ? दो हफ्ते में चुनाव होने की कोई शक्ल नज़र नहीं आती| दूसरे शब्दों में बांग्लादेश अराजकता की तरफ बढ़ता चला जा रहा है|
यदि बांग्लादेश अराजकता की खाई में कूद गया तो सबसे बड़ा धक्का भारत को लगेगा| लाखों शरणार्थियों का बोझ ढोने के लिए भारत को अपनी कमर कसनी होगी| करोड़ों रु. रोज़ का नया खर्च भारत के माथे बंधेगा| पाकिस्तानी गुप्तचर संस्था के एजेन्टों की घुसपैठ खुले-आम होगी| उसे रोकना असंभव होगा| पश्चिमी बंगाल और असम की जनसंख्या का मानचित्र् बदलने लगेगा| भारत की आंतरिक, सामाजिक और आर्थिक स्थिति को नई मुसीबतें झेलनी होंगी| अप्रैल में आयोजित दक्षेस सम्मेलन भी खटाई में पड़ सकता है| दक्षिण एशिया के देशों में गुपचुप काम कर रहे आतंकवादियों को खुलकर खेलने का मौका मिलेगा| वे मौका पाकर किसी बड़े राजनेता की हत्या भी कर सकते हैं, जिसके कारण तनाव बढ़ेगा| पड़ौसी देशों के बीच आरोपों-प्रत्यारोपों का नया दौर शुरू हो सकता है| हम यह नहीं भूलें कि प्रथम महायुद्घ की शुरुआत 1914 में सेरायेवो में राजकुमार फर्डीनेंड की हत्या से ही हुई थी|
इस संकट की स्थिति में भारत की जिम्मेदारी सबसे बड़ी होगी| इसीलिए भारतीय विदेश मंत्रलय फूंक-फूंककर कदम रख रहा है| उसके बयानों से पार्टीबाजी नहीं टपक रही है| इसमें शक नहीं कि हसीना और भारत एक-दूसरे के दोस्त हैं और खालिदा व भारत के संबंध बहुत सहज नहीं हैं, फिर भी भारत पक्षधरता से बच रहा है| भारत को पता है कि उसके पड़ौसी देशों में ज्यों ही कोई बड़ी गड़बड़ होती है, ठीकरा भारत के सिर ही फोड़ा जाता है| यहां असल प्रश्न यह है कि क्या भारत फुटपाथ पर खड़ा चलती सड़क को बस टुकुर-टुकुर निहारता रहेगा या कुछ करेगा भी ? जैसे नेपाल में उसने सार्थक भूमिका निभाई, बांग्लादेश में क्यों नहीं निभा सकता ? यदि सरकार फिलहाल सीधे पचड़े में नहीं पड़ना चाहती तो वह कम से कम ऐसे भारतीयों को काम पर लगा सकती है, जो बांग्लादेश के दोनों पक्षों के करीब हैं और उनकी अपनी प्रतिष्ठा और प्रामाणिकता भी है| यदि ये महत्वपूर्ण भारतीय नागरिक ढाका जाएं और दोनों पक्षों से बात करें तो यह असंभव नहीं कि कुछ ही दिनों में निष्पक्ष चुनाव का माहौल बन सकता है| अगर बांग्लादेश के नेता सहमत हों तो चुनाव दक्षेस या संयुक्तराष्ट्र की निगरानी में भी संपन्न करवाए जा सकते हैं|
बांग्लादेश की अराजकता भारत के लिए ही नहीं, संपूर्ण दक्षिण एशिया के लिए खतरनाक सिद्घ हो सकती है| अफगानिस्तान की अराजकता ने जैसे कश्मीरी आतंकवाद को पनपाया और सारे संसार में मादक-द्रव्यों की बाढ़ ला दी, वैसे ही बांग्ला-अजराकता बर्मा, भूटान और नेपाल जैसे छोटे-मोटे देशों को परेशान करके रख देगी| इन देशों के सीमांत अन्तरराष्ट्रीय अपराधियों के अड्डे बन जाएंगे| बर्मा, बांग्लादेश और थाईलैंड का ‘स्वर्णिम त्रिकोण’ एक बार फिर मादक-द्रव्यों का अंतरराष्ट्रीय अड्डा बन सकता है| विभिन्न आतंकवादी संगठनों के लिए हथियारों की तस्करी करना आसान हो जाएगा| बांग्लादेश की फौज अपनी आंतरिक बगावत से निपटेगी या इन आतंकवादियों और तस्करों को पड़ेगी ? बांग्लादेश की अस्थिरता लोकतंत्र् और उसके नेताओं को हाशिए में डाल देगी और फौज को मैदान में ले आएगी| नतीजा क्या होगा ? दक्षिण एशिया में फौज का जलवा बढ़ेगा| पाकिस्तान, बर्मा और बांग्लादेश एकजात हो जाएंगे| मालदीव और श्रीलंका (और नेपाल भी) राजनीतिक संकट में पहले से फंसेे हुए हैं| दूसरे शब्दों में पूरे दक्षिण एशिया में सिर्फ भारत और भूटान ही बच रहेंगे, जहां शांति और स्थिरता है| इन देशों पर भी बुरा प्रभाव पड़े बिना नहीं रहेगा, क्योंकि बांग्लादेश जनसंख्या की दृष्टि से भारत के बाद दक्षिण एशिया का सबसे बड़ा देश है| बांग्लादेश की अराजकता से सबसे ज्यादा नुकसान दक्षिण एशिया के गरीब लोगों का होगा| बांग्लादेश की दुर्दशा से पाकिस्तान को कोई सीधा लाभ नहीं होगा, लेकिन इसका राजनीतिक फायदा उठाने में वह कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेगा| बांग्लादेश के मज़हबी तत्वों और आतंकवादी तत्वों के साथ पाकिस्तानी गुप्तचर सेवा की सांठ-गांठ काफी गहरी है| वह और बढ़ेगी| उसका सीधा खामियाजा भारत को भुगतना पड़ेगा| बांग्लादेश के अल्पसंख्यक हिंदुओं पर सीधा प्रहार होगा| खालिदा जिया के बेटे तारिक़ जिया ने पाकिस्तान के साथ खुले-आम पींगें बढ़ा रखी हैं| वे हिंसक प्रतिरोध का भी आह्नान कर चुके हैं| ऐसी विषम स्थिति में शेख हसीना और खालिदा जि़या से दक्षिण एशियाई नागरिक यही उम्मीद करेंगे कि वे परिपक्वता और धैर्य का परिचय दें, अन्यथा बांग्लादेश की हालत पूर्व पाकिस्तान से भी बदतर होने में देर नहीं लगेगी|
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