नया इंडिया, 18 दिसंबर 2013 : अफगानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करजई बार-बार भारत क्यों आ रहे हैं? इतनी जल्दी-जल्दी तो कभी नेपाल और भूटान के प्रधानमंत्री भी भारत नहीं आए| इसका कारण स्पष्ट है| अब अमेरिकी फौजें अफगानिस्तान से अगले साल वापस जाएंगी| वहां अराजकता फैलने का डर है| तालिबान का मुकाबला कौन करेगा? विभिन्न युद्घक नेताओं की निजी फौजों को काबू कौन करेगा? अफगान राष्ट्रीय फौज को हथियार और प्रशिक्षण कौन देगा? आर्थिक नव-निर्माण की गाड़ी को आगे कौन धकेलेगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि पश्चिमी राष्ट्र अपनी फौजे हटा रहे हैं तो वे आर्थिक मदद भी बंद कर दें? यदि अफगानिस्तान में अराजकता फैल गई तो कहीं पाकिस्तान उसे अपना पांचवां प्रांत बनाने का संकल्प साकार न करने लगे! डर यह भी है कि अफगानिस्तान के पठानों और गैर-पठानों को आपस में लड़वाकर इस राष्ट्र के दो टुकड़े न करवा दिए जाएं?
इन सब सवालों से जूझते हुए करजई को भारत से मदद की आशा सबसे ज्यादा है| यह इसलिए है कि ऐसी आशा वह रुस, चीन या किसी अन्य राष्ट्र से नहीं कर सकता| भारत इस इलाके का सबसे बड़ा और ताकतवर राष्ट्र है| अफगानिस्तान से उसके संबंध सदा मैत्रीपूर्ण रहे हैं| अफगानिस्तान की आंतरिक राजनीति में भारत की दखलंदाजी बिल्कुल नहीं है| भारत ने अब तक दो बिलियन डालर से ज्यादा की मदद अफगानिस्तान को दी है| भारत ने अफगानिस्तान में कई अस्पताल, स्कूल, थल-मार्ग और निर्माण कार्य किए हैं| सबसे बड़ी बात जो अफगानिस्तान के इतिहास में पहली बार हुई है याने उसके भूवेष्टन से उसकी मुक्ति, वह भारत ने उसको दिलाई है| जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर उसने अफगानिस्तान को हमेशा के लिए पाकिस्तान के चंगुल से आजाद कर दिया है| अब ईरान होकर जो वैकल्पिक मार्ग अफगानिस्तान को मिल गया है, उसके कारण अब पाकिस्तान, अफगानिस्तान को ब्लेकमेल नहीं कर सकता है| यह सब कुछ करने की खातिर हमने अपने अत्यंत सुयोग्य कूटनीतिज्ञों, इंजीनियरों और मजदूरों की बलि चढ़ाई है| इसीलिए हामिद करजई ने दो साल पहले भारत के साथ एक द्विपक्षीय सामरिक समझौता भी किया है|
अब हामिद करजई भारत से सुरक्षा मांग रहे हैं| हम अफगान फौज के अफसरों को पहले से प्रशिक्षण दे रहे हैं लेकिन करजई चाहते हैं कि हम उन्हें हथियार भी दें और अमेरिकियों की वापसी के बाद कुछ सुरक्षा संबंधी जिम्मेदारी भी लें| करजई यह जानते हैं कि नेताओं का चोंगा पहने हुए हमारे ‘बबुआ’ और ‘बाबुओं’ में दम नहीं है लेकिन फिर भी वे एक साल में तीन बार दिल्ली आ चुके हैं| न तो हमारे नेताओं में इंदिरा गांधी की हिम्मत है और न ही इतनी चतुराई कि वे नवाज़ शरीफ को पटाकर भारत-पाक संयुक्त कार्यक्रम अफगानिस्तान में चलवा सकें| इसमें शक नहीं कि अगर भारत-अफगानिस्तान की एकतरफा सैन्य-सहायता करेगा तो पाकिस्तान खफा हो जाएगा लेकिन दक्षिण एशिया के सबसे बड़े राष्ट्र होने के नाते हमारी जिम्मेदारी के दायरे में अफगानिस्तान और पाकिस्तान दोनों आते हैं| इतनी बड़ी जिम्मेदारी निभाने की योग्यता इन बाबू-नेताओं में नहीं है, यह बात मैं अपने मित्र् करजई को कई बार कह चुका हूं लेकिन वे भी कितने आशावादी हैं कि बालू को निचोड़कर उसमें से तेल निकालने पर आमादा हैं|
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