राष्ट्र्रीय सहारा, 27 नवंबर 2005 :बिहार के चुनाव-परिणाम का क्या कोई अखिल भारतीय अर्थ है? अगर है तो क्या है? सबसे पहला तो यही कि बिहार में बुरी तरह हारने के बावजूद केंद्र का कांग्रेस-गठबंधन कमजोर नहीं होगा| उसी तरह कमजोर नहीं होगा, जैसे कि उ.प्र. में हारने पर भाजपा-गठबंधन नहीं हुआ था| जैसे भाजपा-गठबंधन ने लखनउ की सरकारों के साथ अपने संबंध बना लिए थे, वैसे ही अब दिल्ली और पटना पारस्परिकता के आधार पर अपने संबंध सहज बनाने की कोशिश करेंगे| नीतीश की सरकार में सामर्थ्य नही कि वह मनमोहन-सरकार गिरा दे और मनमोहन-सरकार में सामर्थ्य नहीं कि वह बूटासिंह का दुबारा बेजा इस्तेमाल करे| नीतीश ने ‘सुप्रशासन’ अपना मूल-मंत्र् बनाया है| केद्र सरकार की मदद के बिना क्या बिहार में सुप्रशासन स्थापित करना संभव है?
बिहार के चुनाव ने लालू को लंगड़ा कर दिया है| वे इतने पानीदार नेता नहीं हैं कि ताजा चुनाव-परिणामों के आधार पर लोकसभा से इस्तीफा दे दें| वे कुर्सी से चिपके रहेंगे लेकिन पहले की तरह अब वे मनमोहनसिंह के कंधे पर चिपक नहीं पाएंगे| जिस दुराग्रह से उन्होंने रेलमंत्री का पद छीना था, अब उसकी कमर टूट चुकी है| उन्हें तो अब अपने सांसदों पर पिटारा ढांपते रहना होगा कि कहीं वे नीतीश या मनमोहन के दड़बे में न सरक जाएं| लालू का यह असमंजस केंद्र में ही नहीं, बिहार में भी कांग्रेस को मजबूत करेगा| जैसे फरवरी 2005 के चुनाव में कांग्रेस और लालू अलग-अलग रहे, वैसे ही अब अगले पांच-साल तक वे अपनी खेती अलग-अलग कर सकते हैं|
फरवरी और अब के चुनाव मं कांग्रेस ने दो प्रयोग किए|दोनों ही असफल हो गए| पहले रामबिलास पासवान के साथ गठबंधन किया और फिर लालू के साथ ! पहले उसने अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता की दाढ़ी रख ली और फिर उसने जातिवाद की मूछें चिपका लीं| दोनों बार वह मसखरा सिद्घ हुई| कांग्रेस को यह सबक मिला कि वह दूसरे के कंधे पर सवार होकर वहां नहीं पहुंच सकती है, जहां उसे पहुंचना है| बिहार के प्रांतीय चुनाव ने उसे यह सबक सिखाया कि धर्म-निरपेक्षता का नारा थोथा है| यह नारा नेताओं को तो एक जगह जुटा सकता है, वोटों को नहीं जुटा सकता|
यदि अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता हितकर होती तो लालू के साथ हाथ मिलाने पर कांग्रेस और लालू दोनों के वोट बढ़ने थे लेकिन हुआ उल्टा ही ! लालू, कांग्रेस और पासवान, तीनों के वोट घट गए| सीटें तो एकदम बैठ गईं| नीतीश और भाजपा के वोटों में अप्रत्याशित वृद्घि हुई| दोनों के वोट दस प्रतिशत बढ़ गए याने धर्म-निरपेक्षता के नाम पर अल्पसंख्यक सांप्रदायिकता का परचम फहराना उल्टा पड़ गया| बहुसंख्यक वोट झटके से दूसरी तरफ चले गए| यदि कांग्रेस-गठबंधन ने अखिल भारतीय स्तर पर भी यही पैंतरा मारा तो उसके परिणाम बिहार-जैसे हो सकते हैं| अंतर्द्वन्द्व में फंसी भाजपा के लिए ये चुनाव ऑक्सीजन का काम कर रहे हैं| बिहार का मॉडल वह शयद उ.प्र. में आजमाना चाहे लेकिन उ.प्र. में वह नीतीश कहां से लाएगी|
इस बार बिहार में चुनाव जिस निष्पक्षता के साथ हुए, उस पर सारे देश की नजरें गड़ी रहीं| सांसदों को क्षेत्र्-निकाला दे दिया जाए, बाहुबलियों को रंगे हाथ पकड़ लिया जाए, मतदान-केंद्रों पर कड़ा बंदोबस्त रखा जाए और गिनती में भी धांधली नहीं होने दी जाए, यह बिहार के लिहाज से अजूबा है| इसका श्रेय चुनाव-आयोग के सलाहकार के.जे. राव को तो है ही, राज्यपाल बूटासिंह को भी है| बिहार में जातिवाद के कोढ़ पर धांधली की खाज चढ़ी रहती थी| बिहार का धांधली-निवारण आगामी चुनावों के लिए नमूने का काम दे सकता है| यदि पटना में राबड़ी-राज चल रहा होता तो सारे चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण ही सही होते| सरकारी तंत्र् का इस्तेमाल लोकतंत्र् की हत्या के लिए ही होता| इससे क्या यह नतीजा भी नहीं निकलता कि केंद्र या राज्यों में चुनाव-घोषणा के बाद शासन-संचालन अस्थायी तौर पर राष्ट्र्रपति और राज्यपालों के हाथ में दे दिया जाना चाहिए?
बिहार की जनता को स्वस्थ वातावरण मिला तो उसने अपने अधिकार का जमकर प्रयोग किया और बिहार के पासे पलट दिए| उसने यह भी बता दिया कि जो काम उच्चतम न्यायालय नहीं कर सका, वह उसने कर दिखाया| उसने बूटासिंह और केंद्र को तो चपत लगाई ही, उच्चतम न्यायालय की इच्छा भी पूरी की याने विधानसभा को दुबारा जिंदा कर दिया और उसको पहले की तरह लकवाग्रस्त नहीं रहने दिया| स्पष्ट बहुमत नीतीश की झोली में डाल दिया| बिहार की अधिकांश जनता निरक्षर है लेकिन निर्बुद्घि नहीं है, यह उसने सिद्घ कर दिया| राज्यपाल की गलती की सज़ा उसने कांग्रेस, लालू, पासवान और वामपंथी दलों आदि सबको दे दी| लेकिन लालू के वोट अब भी सुरक्षित हैं, यह ध्यान देने योग्य तथ्य है| लालू के वोट फरवरी के मुकाबले केवल 1.8 प्रतिशत कम हुए हैं| याने जातिवादी अंधा आधार अभी तक कायम है| यह अंधा आधार नई सरकार को तंग किए बिना नहीं रहेगा|
इस अंधे आधार का मुकाबला किए बिना नीतीश अपनी सरकार कैसे चलाएंगे? क्या वे कांटे से कांटा निकालेंगे? यदि हां तो वे अंधे आधारों की राजनीति को दोहराएंगे| उससे न बिहार का भला होगा, न देश का, न खुद उनका ! उनकी सहयोगी भाजपा भी असमंजस में पड़ जाएगी| भाजपा ने उप-मुख्यमंत्र्ी का नाम प्रस्तावित करते समय जातिवादी या संप्रदायवादी कार्ड नहीं खेला, यह सराहनीय कदम है| दूसरे शब्दों में बिहार की नई सरकार को नई राजनीति की शुरूआत करनी होगी| जातिवाद और सांप्रदायिकता की राजनीति वे ही दल और नेता करते हैं, जिनकी अपनी कोई राजनीति नहीं होती| उन्हें वोटर भी ऐसे ही मिलते हैं, जिनका कोई राजनीतिक रुझान नहीं होता| वे जाति और संप्रदाय के नाम पर कुपात्र् और भ्रष्ट लोगों को भी सत्तारूढ़ किए रहते हैं| नेता भी अंधे और उनके अनुयायी भी अंधे ! 15 साल में बिहार ने पहली बार इस अंधी कोठरी के बाहर पांव रखा है| इसीलिए इस प्रांतीय चुनाव से सारा भारत खुश है| मुख्यमंत्र्ी बनने के बाद भी यदि नीतीश बिहार के मामले में सारे भारत को खुश हुआ देखना चाहते हैं तो उन्हें प्रचंड इच्छा-शक्ति का परिचय देना होगा| अपनी पार्टी के नेताओं, नौकरशाहों और पुलिस कर्मचारियों के साथ उन्हें अतिरिक्त सख्ती से निपटना होगा, क्योंकि लालू के 15 वर्षों की अराजकता ने प्रशासन के पौर-पौर को ढीला कर दिया है|
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