दैनिक भास्कर, 11 मार्च 2006 : ईरान और एराक के प्रति अमेरिकी नीतियाँ, बुश की भारत-यात्र और पैगंबर के कार्टूनों का कोई विरोध करे, इसमें ज़रा भी बुराई नहीं है| बुश- यात्रा का जमकर विरोध हीं होता तो भारत का बड़ा नुकसान हो सकता था| बुश का जितना विरोध हुआ, मनमोहनसिंह के
हाथ उतने ही मजबूत हुए| भारत लोकतांत्रिक राष्ट्र है| वह पाकिस्तान की तरह तानाशाही और सउदी अरब की तरह मज़हबी नहीं है| न ही वह चीन और सोवियत संघ की तरह दमघोटू साम्यवादी राष्ट्र है| यदि भारत जैसे देश में जनता अपने क्रोध को प्रकट नहीं करेगी तो कहां करेगी ? जिस देश की जनता अपने नेताओं को उलट देती है, वह किसी विदेशी नेता को क्या काले झंडे भी नहीं दिखा सकती ? जरूर दिखाए लेकिन मौलिक प्रश्न यह है कि क्या विरोध का मज़हबीकरण होना चाहिए ?
मज़हबीकरण भी कैसा ? ऐसा नहीं कि जिसका ताल्लुक हमारे मज़हब से हो या हमारे मज़हबवालों से हो ! बुश का भारत के मुसलमानों से क्या लेना-देना है ? क्या बुश ने हमारी कोई मस्जिद गिरा दी है या कुरान का अपमान कर दिया है या भारतीय मुसलमानों को ईसाई बना लिया है ? क्या उसने भारतीय मुसलमानों के अमेरिका-प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है? क्या उसने भारत के मुसलमानों को अमेरिका के बाहर निकाल दिया है ? बुश ने ऐसा कौनसा काम किया है, जिससे इस्लाम को और हमारे मुसलमानों को नुकसान पहुंचा है ? पैगंबर साहब के कार्टून घोर आपत्तिजनक है लेकिन वे किसने बनाए हैं ? क्या बुश ने बनाए हैं ? क्या उन्हें किसी अमेरिकी अखबार ने छापा है ? क्या अमेरिकी सरकार ने उनकी प्रशंसा की है ? डेनमार्क के किसी सडि़यल-से अखबार की कारस्तानियों का ठीकरा बुश के माथे फोड़ने की तुक क्या है ?
जहां तक ईरान और एराक के सवाल है, इनका भी मज़हब से कोई ताल्लुक नहीं है| सद्दाम हुसैन को अमेरिका ने क्या इसलिए हटाया कि वे इस्लाम के अलम बरदार थे ? सद्दाम को तो इस्लाम का दुश्मन कहा जाता कहा जाता था| मुल्ला-मौलवियों ने उसे काफिर घोषित किया हुआ था| सउदी अरब, कुवैत और ईरान जैसे राष्ट्र सद्दाम के एराक को दारूल-हबै (युद्घभूमि) मानते थे| सद्दाम के हटने से एराक के शियाओं की चांदी हो गई है| मज़हब के पाँव में बंधी बेडि़यां टूट गई| बुश ने इस्लाम को आज़ाद किया, हालांकि बुश वहां जिस इरादे से घुसे थे, उसका इस्लाम से कोई संबंध नहीं था| बुश का इरादा एराक के तेल पर कब्जा करना था और
उन्होंने सर्वनाशी हथियारों को पकड़ने का बहाना बनाया था| इसी तरह अब अमेरिका ईरान की गर्दन मरोड़ना चाहता है| अमेरिका को पता है कि यदि ईरान के पास बम आ गया तो वह सउदी अरब ओर पाकिस्तान जैसे उसके पालतू राष्ट्रों की नकेल तो कस ही देगा, वह अमेरिका को भी आंखे दिखाएगा| अमेरिका और ईरान की लड़ाई के पीछे उनके अपने-अपने राष्ट्रहित है| उनसे हमारे मुसलमानों का दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है|
फिर भी हमारे मुसलमान लाखों की संख्या में मैदान में उतर आए| यह अपूर्व प्रदर्शन आश्चर्यजनक है| ऐसा पहले कभी नहीं हुआ| जिन्ना के समय में भी नहीं हुआ| यह इसलिए भी हैरतअंगेज है कि अफगानिस्तान के जिहादियों ने सारे देशों के मुसलमान आतंकवादी पकड़े गए, लेकिन भारत का एक मुसलमान भी नहीं पकड़ा गया| भारत के मुसलमानों ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद को रद्द कर दिया| उन्होंने किसी भी बाहरी ताकत के मोहरे बनने से इंकार कर दिया| तो अब ऐसा क्या हुआ कि भारत के मुसलमान उबल पड़े ? इसका सीधा-सादा कारण है – हमारे राजनीतिक दलों की कुचाल ! सोवियत संघ और चीन की साम्यवादी सरकारों ने अपने मुसलमानों पर बेपनाह जुल्म ढाए थे और ईरान ने अपनी साम्यवादी पार्टी (तूदेह) का भुर्ता बना दिया था, यह किसे याद नहीं है|
इसके बावजूद वे जानी दुश्मन आज एक हो गए है| साम्यवाद और संप्रदायवाद का यह घिनौना गठजोड़ हमें 1942 और 1947 की याद दिला रहा है| दोनों तत्वों ने अपने कारनामों से उस समय अपनी देशभक्ति को संदेहास्पद बना लिया था और आज वे अंध-अमेरिका-विरोध के कारण उसी रास्ते पर दुबारा चलते हुए दिखाई पड़ रहे है| ऐसा लगता है कि हमारे संप्रदायवादी और साम्यवादी जड़ बन गए है| भूतकाल की चौखट में जड़ गए है| इसका नतीजा क्या हुआ है ? उलटा हुआ है|
कई दृष्टियों से| सबसे पहला तो यह कि बुश के दोषों पर पर्दा पड़ गया| बुश ने इराक के विरूद्घ अक्षम्य अपराध किया है और ईरान पर भी जुल्म ढाने का खूंखार इरादा बना रखा है| उसके इन कुकर्मो का सारे भारत को एकजुट होकर विरोध करना चाहिए था, लेकिन यह विराट विरोध, संकीर्ण विरोध में बदल गया| जिन बुश के प्रति किसी भी वर्ग में जरा भी सहानुभूति नहीं थी, उनके प्रति आकर्षण बढ़ गया| अमेरिका के ईसाइयों में भी बुश के भाव बढ़ गए| उन्होंने माना कि दुनिया में बुश का विरोध इसलिए किया जा रहा है कि वे आतंकवाद का विरोध करते है| भारत के मुसलमानों ने अपने प्रदर्शन से दुनिया को उल्टा संदेश दिया| दूसरा, बुश के कारण हमारे मुसलमान अपनी छवि खराब क्यों करे ?
क्या मुसलमानों को बरगलाना इतना आसान है ? क्या वे यह नही जानते कि जिन राष्ट्रों के नाम पर वे उबल रहे हैं, वे उनके लिए तिनका हिलाने को भी तैयार नहीं है| शराबखोरी और अय्रयाशों में अरबों डॉलर उड़ानेवाले इन राष्ट्रों को हमारे दबे-पिसे गरीब मुसलमानों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं ? यदि संसार का मुस्लिम-समाज (उम्मा) एक ही है, तो ईरान और इराक के बीच दस-वर्षीय युद्घ क्यों हुआ ? लाखों मुसलमानों की बलि क्यों चढ़ गई ? उम्मा के नाम पर हमारे मुसलमानों को बलि का बकरा क्यों बनाया जाए ? तीसरा, इतने बड़े प्रदर्शन के लिए पैसा कहां से आया ?
चौथा, मूल प्रश्न यह भी खड़ा हो गया कि भारत के वैदेशिक मामलों का क्या हमें मजहबीकरण होने देना चाहिए ? खिलाफत आंदोलन के समय महात्मा गांधी से जो भयंकर भूल हो गई और जिसके परिणामस्वरूप पाकिस्तान का जन्म हुआ, क्या वह भयंकर भूल दोहराना चाहते है ? इस तरह के प्रदर्शनों से कुछ राजनैतिक दलों को फौरी फायदा तो हो सकता है, लेकिन लंबे समय में देश का नुकसान ही है|
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