Navbharat Times, 27 Jan 2007 : पाकिस्तान की मुसीबतें बढ़ती जा रही हैं। शीर्षासन की मुद्रा भी काम नहीं आ रही है। अफगानिस्तान में अमेरिका के आगमन के अवसर पर जनरल मुशर्रफ ने जो पैंतरा पलटा था, उसने अब तक तो पाकिस्तान की गाड़ी किसी तरह धका दी थी, लेकिन अबअमेरिका ही मुशर्रफ प्रशासन की सबसे कड़ी आलोचना कर रहाहै। अफगानिस्तान में ज्यों-ज्यों तालिबान का असर बढ़ रहा है, उसी अनुपात में मुशर्रफ प्रशासन पर अमेरिका का शिकंजा कसता जा रहा है। अमेरिका की नई कांग्रेस (संसद) के निचले सदन हाउस ऑफ रिप्रेजेंटेटिव ने एक प्रस्ताव हाल ही में पास किया है, जिसमें स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यदि पाकिस्तान ने ‘तालिबान को उनके नियंत्रण वाले क्षेत्रों से, जिनमें क्वेटा और चमन भी शामिल हैं, नहीं निकाला’ तो अमेरिकी राष्ट्रपति को उसे आर्थिक या सैनिक मदद देने की छूट नहीं होगी। इसी प्रस्ताव पर अब उच्च सदन सीनेट में बहस चल रही है। वहां भी वह सर्वानुमति से पास होगा।
दूसरे शब्दों में, अमेरिकी सांसदों को पाकिस्तान पर शक हो गया है। वे समझ गए हैं कि पाकिस्तान उन्हें बुद्धू बना रहाहै। उनसे मदद निचोड़ने के लिए वह जान-बूझकर तालिबान को छूट दिए जा रहा है। यदि तालिबान खत्म हो गए तो अमेरिकी मदद खत्म हो जाएगी। इसीलिए वह एक तरफ अमेरिका से कहता है कि वह आतंकवाद की लड़ाई में उसके साथ है और दूसरी तरफ आतंकवादियों से कहता है कि डटे रहो। चोर से कहता है, चोरी करो और चौकीदार से कहता है, जागते रहो। अमेरिका को खुश करने के लिए वह वजीरिस्तान के कबाइली इलाके पर बमबारी कर देता है या अकबर बुगती जैसे बड़े बलूच नेता की सरे आम हत्या कर देता है और तालिबान को पटाने के लिए उनसे अंदर ही अंदर सौदेबाजी कर लेता है। यह नरम-गरम, यह झूठ-सच, यह आंख-मिचौनी की कूटनीति अब अपने कगार पर पहुंच चुकी है। बुश प्रशासन इसे बर्दाश्त किए चला जा रहा था, लेकिन अमेरिकी कांगेस पर अब डेमोक्रेट्स का वर्चस्व हो गया है। वे बुश की गलतियों को सहने का जिम्मा क्यों लें? इसीलिए उन्होंने शिकंजा कस दिया है।
अमेरिकी कांगेस के इस बदलते हुए रुख को अमेरिकी मीडिया अच्छी तरह भांप चुका है। इसीलिए अमेरिकी अखबारों और चैनलों ने तालिबान के बारे में खोजी खबरें देना शुरू कर दिया है। न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे महत्वपूर्ण अखबार ने हाल हीमें एक लंबी रपट में बताया है कि पाकिस्तानी गुप्तचर एजेंसी आईएसआई ने कई नौजवानों को बाध्य किया कि वे अफगानिस्तान के अंदर घुसकर तालिबान से मिलें और हामिद करजई सरकार के विरुद्ध आतंकवादी कार्रवाई करें। क्वेटा के कई परिवारों ने इस अखबार के संवाददाता को बताया कि उनके नौजवान बच्चे इस तालिबानी अभियान में मारे गए, लेकिन वे डर के मारे अपना मुंह नहीं खोल सकते। अगर वे कुछ बोलें या हर्जाना मांगें तो आईएसआई उनकी जान भी ले सकती है। कुछ लोगों ने बताया कि क्वेटा और चमन के स्कूलों में किशोरों को भड़काया जाता है और उन्हें ‘तालिबानी जिहाद’ में खुले आम भर्ती किया जाता है। एक पूर्व तालिबान नेता ने बताया कि उसने दोबारा मोर्चे पर जाने से मना कर दिया तो उसे गिरफ्तार कर लिया गया और सारी दुनिया में यह प्रचारित कर दिया गया कि देखिए, पाकिस्तान सरकार किस बेरहमी से तालिबान नेताओं को पकड़ रही है। पाकिस्तानी गुप्तचर संगठन और मजहबी नेताओं की भी गहरी सांठगांठ है। यों तो कहने के लिए ये मजहबी पार्टियां प्रतिपक्ष में हैं लेकिन ये ही तालिबान की रीढ़ की हड्डी हैं। ये ही उनकी भर्ती और उनके चंदे का अभियान चलाती हैं। पाकिस्तानी जनता में तालिबान की साख बनाने की सबसे ज्यादा जिम्मेदारी ‘मुत्तहिदा मजलिस ए अमाल’ की है। बदले में अफीम की तस्करी का अकूत धन इन पार्टियों को कंधार से प्राप्त होता है। अफीम के उत्पादन और तस्करी ने यों भी अफगानिस्तान के अंदर सक्रिय तालिबान को मालामाल कर रखा है। वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ हथियार खरीद सकते हैं और अपने आतंकवादी अभियान में शामिल होने के लिए किसी भी नौजवान को बड़ी से बड़ी रिश्वत दे सकते हैं। उन्होंने अफगानिस्तान के कई प्रांतों पर लगभग पूरी तरह कब्जा कर लिया है। तालिबान के प्रवक्ता ने दावा किया है कि अफगानिस्तान के कम से कम छह प्रांतों में अब इस्लामी तालीम वाले स्कूल शुरू किए जाएंगे।
तालिबान के बढ़ते वर्चस्व ने कुख्यात मुजाहिदीन नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार को इतना साहस प्रदान कर दिया है कि वह पेशावर में खुले आम बयान देकर अमेरिकियों को धमकाता है। वह कहता है कि हम अफगानिस्तान से अमेरिकियों को वैसे ही मार भगाएंगे, जैसे हमने रूसियों को मार भगाया था। उसका कहना है कि हामिद करजई कोई सच्चा अफगान शासक नहीं है। वह उसी प्रकार अमेरिकियों की कठपुतली है, जैसे कभी बबरक कारमल और नजीबुल्लाह रूस की कठपुतली थे। वास्तव में करजई घिर गए हैं। काबुल के बाहर उनकी सत्ता है या नहीं, यह पता ही नहीं चलता। अफगानिस्तान का पुनर्निर्माण करने के लिए उनके पास पैसे ही नहीं हैं। अमेरिका और उसके साथी देशों ने पिछले छह साल में इतनी कंजूसी की है कि अफगानिस्तान तो क्या, केवल काबुल शहर को भी अपने पांव पर खड़ा नहीं किया जा सका है। अमेरिका का सारा ध्यान इराक में लगा है। अफगानिस्तान की उपेक्षा हो रही है। उसका सीधा फायदा पाकिस्तान को मिल रहा है। पाकिस्तान ने जितना पैसा काबुल से पिछले छह साल में कमाया है, पिछले साठ साल में नहीं कमाया है। उसने भारत का रास्ता भी बंद कर रखा है, ताकि उसका एकाधिकार बना रहे। तालिबान के जरिए वह काबुलमें अपनी कठपुतली सरकार बिठाना चाहता है। राष्ट्रपति करजई ने इस पाकिस्तानी साजिश के खिलाफ जोरदार अभियान चला रखा है। उसका असर अब वॉशिंगटन में भी दिखाई पड़ रहा है। भारत भी चिंतित है, लेकिन वह पाकिस्तान विरोधी मोर्चा खोलने की बजाय काबुल को अपनी मदद बढ़ाता जा रहा है। विदेश मंत्री प्रणव मुखर्जी ने काबुल में 10 करोड़ डॉलर की नई मदद की घोषणा की है। भारत की मदद अब 75 करोड़ डॉलर तक पहुंच गई है। भारत की यह मदद तभी रंग लाएगी, जब अमेरिका पहले अफगानिस्तान की मदद बड़े पैमाने पर करे और उसके साथ-साथ तालिबान के पाकिस्तानी स्रोतों को अवरुद्ध कर दे।
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