Navbharat Times, 6 June 2009 : ब्रिटिश संसद को दुनिया की सारी संसदों की जननी कहा जाता है, लेकिन अगर किसी अंग्रेज से आज पूछें कि अपनी संसद
के बारे में उसकी राय क्या है तो वह शायद उतने ही कठोर शब्दों का प्रयोग करे, जितने कि महात्मा गांधी ने ब्रिटिश संसद केबारे में कभी किए थे। गांधीजी के सामने संदर्भ दूसरा था लेकिन इस समय जो संदर्भ है, वह भ्रष्टाचार का है। ब्रिटिश सांसदोंके सामूहिक भ्रष्टाचार का ऐसा मामला पिछले सात-आठ सौ साल में कभी सामने नहीं आया। अपने सांसदों के विरुद्ध अंग्रेजों का खून खौल रहा है। जिनसांसदों के नाम के पहले अंग्रेज लोग हमेशा ‘आदरणीय’ विशेषण का इस्तेमाल करते रहे हैं, वे आज उन्हें खुलेआम गालियां दे रहे हैं।
ब्रिटेन में प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज के जमाने में लॉर्ड सभा (उच्च सदन) की सीटें बेचने, प्रोफ्यूमो का सेक्स स्कैंडल, पार्टियों को मिले अवैध चंदे, कुछेक सांसदों की रिश्वतखोरी जैसे मामले होते रहे हैं लेकिन ‘डेली टेलीग्राफ’ ने सांसदों केसामूहिक भ्रष्टाचार की ऐसी पोल खोली है कि 646 सांसदों में से 325 सांसदोंको इस्तीफे देने पड़ सकते हैं। यह तो वह संख्या है, जो अभी तक पता चली है। यह काफी ज्यादा भी हो सकती है। इनमें सत्तारूढ़ लेबर पार्टी के सांसदों की संख्या सबसे ज्यादा है। सबसे शर्मनाक बात तो यह हुई कि इस बीच ब्रिटिश स्पीकर माइकेल मार्टिन का इस्तीफा हो गया। ब्राउन मंत्रिमंडल के सदस्य जेम्स पर्नेल ने भी अपना पद छोड़ दिया है। गृह मंत्री जैकी स्मिथ ने इस्तीफा दे दिया है और हेजल बलियर्स ने बुधवार को इस्तीफा देने की बात कही है। इससे पहले कि गॉर्डन ब्राउन अपने मंत्रिमंडल का पुनर्निमाण करें, कई अन्य मंत्री भी इस्तीफा देने का विचार कर रहे हैं। इससे कुल मिलाकर ‘ब्राउन’ सरकार की छवि ‘ब्लैक’ हो गई है।
जहां तक स्पीकर मार्टिन के इस्तीफे की बात है, तो किसी ब्रिटिश स्पीकर का भ्रष्टाचार के कारण इस्तीफा देना ‘पोप के पतन’ से कम नहीं है। ब्रिटिश स्पीकर को संसदीय प्रणाली का पवित्र पोप माना जाता है। उसका आचरण, उसके नियम, कानून-कायदे और उसकी परंपरा का अनुसरण सारी दुनिया करती है। ब्रिटेन में स्पीकर की जैसी इज्जत होती है, प्रधानमंत्री की भी नहीं होती। जो एक बार स्पीकर बना, वह जीवन भर स्पीकर बना रहता है, क्योंकि कोई भी पार्टी चुनाव में उसके विरुद्ध अपना उम्मीदवार खड़ा नहीं करती। किंतु इस बार स्पीकर माइकेल माटिर्न को बड़े बेआबरू होकर जाना पड़ रहा है। इनके पहले लगभग 400 साल पहले स्पीकर जॉन टेऊवर को रिश्वत के आरोप में पद छोड़ना पड़ा था।
ब्रिटेन की आम जनता गुस्से में बिलबिला रही है। उसे इसका जरा भी अफसोस नहीं है कि उसके स्पीकर, मंत्री और सांसद सूखे पत्तों की तरह टपकते जा रहे हैं। सांसद इतने डरे हुए हैं कि अपने घरों में नहीं जाकर यहां-वहां छिपते फिर रहे हैं। उन्हें डर है कि उनके मतदाता कहीं पकड़कर उनकी पिटाई नहीं कर दें। सत्तारूढ़ लेबर पार्टी की लोकप्रियता केवल 22 प्रतिशत रह गई है। पिछले 60 साल में उसकी इतनी गिरावट कभी नहीं हुई। लगभग सभी पार्टियों के सांसद इस कांड में फंसे हुए हैं।
जानना चाहिए कि ब्रिटिश सांसदों ने ऐसा क्या किया है, जिसके कारण सारी संसद ही बदनाम हो गई है? ‘डेली टेलीग्राफ’ ने कई किस्तों में जो कच्चा चिट्टा छापा है, उससे पता चलता है कि ब्रिटिश सांसदों को लगभग 45 लाख रुपये सालाना वेतन मिलता है, इसके बावजूद हर सांसद ने औसतन हर साल लगभग सवा करोड़ का भत्ता डकार लिया। भत्तेबाजी के खेल में पूरी संसद की मिलीभगत थी। सांसदों के अंधाधुंध खर्चों पर न तो कभी स्पीकर ने प्रश्न-चिह्न लगाया और न ही वित्त मंत्री ने। ये खुद भी गुलछर्रे उड़ा रहे थे।
सांसदों ने अपने ऐशोआराम पर बेलगाम खर्च तो किया ही, फजीर् बिल भी पास करवा लिए। लेबर सांसद हेजल बलियर्स ने तीन मकान खरीदे, उन्हें सजाया-धजाया और बेचा। सारे सौदों में उन्होंने लगभग 40 लाख रुपये कमाए। वित्त मंत्री एलस्टेयर डार्लिंग ने 4 मकान बदले। उनके रखरखाव के नाम पर लगभग 15 लाख रुपये डकार गए। श्रम मंत्री शौन वुडवर्ड ने भी ऐसी ही धांधली की और 80 लाख रुपये डकार गए। कईसांसदों ने बिजली के बल्बों और टॉयलेट की सीट बदलने के हजारों रुपये चार्ज कर लिए। एक महिला सांसद ने, जिसका मूल निवास लंदन से सिर्फ सात कि.मी. है, लंदन में किराए के फ्लैट के नाम पर लाखों रुपये बटोरे। कुछ सांसदों ने अश्लील फिल्मों, नाइट क्लबों के मौज-मजे और निजी पिकनिक के लिए भी भत्ते वसूल किए। यह सब तब भी चलता रहा, जबकि ब्रिटेन आर्थिक मंदी के जाल में फंस गया। हजारों लोगों की नौकरियां छूट गईं, उन्हें अपने मकान खाली करने पड़े, रोजमर्रा के खाने के लाले पड़ गए।
अगर ब्रिटिश सांसदों के इस सामूहिक भ्रष्टाचार की तुलना विकासशील देशों के सांसदों के आचरण से करें तो कोई ज्यादा फर्क नजर नहीं आएगा। विकासशील राष्ट्रों में तो ‘समरथ को नहिं दोष गुसाई’ का फॉर्म्युला चलता है। करोड़ों-अरबों रुपये डकार जानेवाले प्रधानमंत्रियों, मंत्रियों और सांसदों को न अदालत छू पाती है और न ही जनता उन्हें ठिकाने लगा पाती है। अब ब्रिटिश-प्रणाली अपनी इस बीमारी का हल खोजने मेंजुटी हुई है। वे जिन उपायों पर विचार कर रहे हैं, उन्हें हम चाहें तो अपने यहां अभी से लागू कर सकते हैं।
जिस सांसद पर भी भ्रष्टाचार या अकर्मण्यता का आरोप हो और जिसके 5 प्रतिशत मतदाता भी उसकी ‘वापसी’ (रिकॉल) चाहते हों तो उसे दोबारा चुनाव की अग्नि-परीक्षा से गुजरना होगा। सांसद अपनी दो करोड़ की राशि में से जो भी खर्च करते हैं, उसका पूरा ब्यौरा इंटरनेट पर उपलब्ध होना चाहिए। संसद की ओर से दी जानेवाली समस्त सुविधाओं और भत्तों का हिसाब भी आम आदमी की जानकारी के लिएउपलब्ध क्यों नहीं करवाया जाए? पैसे लेकर प्रश्न पूछने वाले, नोटों की गड्डियों पर चढ़कर पाला बदलने वाले, रिश्वत लेने वाले और सरकारी सुविधाओं का अंधाधुंध दुरुपयोग करने वाले नेताओं के लिए कठोर आचारसंहिता आखिर कब बनेगी? क्या दुखी जनता मारपीट और लूटपाट पर उतर आएगी, तब बनेगी?
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