दैनिक भास्कर, 24 जून 2009 : भाजपा पर कौनसा संकट आया था, जो दूर हो गया ? ‘भाजपा में ज्वालामुखी’, ‘भाजपा की दुर्दशा’, ‘भाजपा का अध:पतन’ आदि शब्दों का प्रयोग पता नहीं कुछ लोगों ने क्यों किया था ? दो-चार नेताओं ने अध्यक्ष को चिटि्रठयॉं क्या लिख दीं, अखबारों में कोहराम-सा मच गया| अखबार और टी वी चैनल अगर तिल का ताड़ न बनाऍ तो उनका गुजारा कैसे चले ? यह ठीक है कि भाजपा-जैसी ‘संस्कारवान’ पार्टी में राजनीतिक मुद्रदों को सार्वजनिक धोबीघाट पर नहीं पीटा जाता, इसीलिए मामूली नेताओं के मामूली पत्र् भी खबरों में उछल गए| लेकिन अगर भाजपा की तुलना कॉंग्रेस या कम्युनिस्ट पार्टी से की जाए तो भाजपा का तथाकथित संकट मामूली फुंसी-फोड़े से ज्यादा कुछ नहीं था|
इस संकट का चुनावी हार-जीत से कोई संबंध नहीं था| ये संकट पैदा हुआ था, राज्यसभा और लोकसभा में भाजपा के नए नेताओं की नियुक्ति से ! उसे क्यों बना दिया, मुझे क्यों नहीं बनाया, यही सबसे बड़ा संकट था| यह संकट खड़ा करनेवाले या चिटि्ठयॉं लिखनेवाले लोग कौन हैं ? ये सब विजातीय तत्व हैं, बाहरी लोग हैं, संघ के सॉंचे में ढले हुए लोग नहीं हैं| किसी भी बड़े राजनीतिक दल में आखिर सभी कार्यकर्ता स्वयंसेवक तो नहीं हो सकते, जिनके लिए देश सबसे पहले, पार्टी उसके बाद और खुद सबके बाद होता है| यहॉं खुद सबसे पहले है| सारी राजनीति इसी सिद्घांत पर चल रही है| जैसे अन्य दलों में होता है, वैसा ही भाजपा में भी होने लगा है| भाजपा कब तक अपवाद बनी रह सकती है ? कुर्सी के लिए कुछ नेतागण एक-दूसरे पर खम ठोक रहे हैं, तो इसमें अस्वाभाविक क्या है ? यह तो किसी भी पार्टी की राजनीतिक परिपक्वता का प्रतीक है| राज्यसभा और लोकसभा के नेतापद के लिए पार्टी में चुनाव क्यों नहीं होना चाहिए ? उन्हें उपर से थोपा क्यों जाना चाहिए ? जिन्हें थोपा जा रहा है, उनमें ऐसी कौनसी खूबी है, जो हममें नहीं है ? हम तो लोकसभा का चुनाव जीतकर आए हैं| जिन्हें थोपा जा रहा है, या तो उन्होंने कभी लोकसभा का मुंह नहीं देखा या अब देखा तो भी इस तरह कि उसे चुनाव कहें कि मज़ाक ? इस तरह के तर्कों को उछालनेवाले नेता अब चुप लगा गए हैं| वे कार्यकारिणी में अपनेवाली नहीं चला सके! वे लोकसभा का चुनाव जरूर जीत आए हैं लेकिन न तो भाजपा में उनकी कोई पकड़ है, न संघ में और न देश में | वे नक्कारखाने में तूती बनकर रह गए हैं|
चुनाव में पराजय का सवाल तो एक बहाना है| पराजय किसकी हुई है ? एक की पराजय तो तब मानी जाए जब दूसरे की विजय हुई हो ! विजय किसकी हुई है ? कौनसी पार्टी है, जिसे स्पष्ट बहुमत मिला है ? किसी को भी नहीं| न किसी की विजय हुई है न पराजय ! हॉं, कॉंग्रेस को सरकार बनाने का मौका दुबारा मिल गया है| भाजपा दुबारा फिसल गई है| बस फिसली है, धराशयी नहीं हुई है| भाजपा सत्ता से नहीं हटी| वह पॉंच साल से जहां थी, वहीं है| दोनों सदनों में उसके पास लगभग 160 सांसद हैं और आठ राज्यों में उसकी सरकारे हैं| एक दृष्टि से वह कुछ आगे बड़ी है| कम्युनिस्टों के कमजोर हो जाने पर वह संसद में सबसे बड़ी ही नहीं, सबसे शक्तिशाली विपक्षी पार्टी बन गई है| ज़रा गौर करें, कम्युनिस्ट पार्टी पर ! वह तो एक-तिहाई रह गई| कॉंग्रेस कभी 400 से 200 पर और 200 से सवा सौ पर आ गई थी| भाजपा की तो एक-चौथाई सीट भी नहीं घटी| कॉंग्रेस जब-जब हारी है, सत्ता से हटी है, ज़रा याद करें कि देश ने कैसे-कैसे दृश्य देखे हैं| कभी नेतृत्व के विरूद्घ बगावत हो गई, कभी पार्टी टूट गई, कभी मार-पीट और गाली-गलौज का बोलबाला हो गया और कभी मान लिया गया कि अब कॉंग्रेस का अंत हो गया है| उसके मुकाबले भाजपा में जो हो रहा है, वह चींटी के काटे से भी कम है|
इसका मतलब यह नहीं कि भाजपा में सब ठीक-ठाक है| कुर्सियों के नक़ली संकट के बहाने असली संकट भी मैदान में आ गया| संघ के साथ भाजपा के संबंध और हिंदुत्व के सवाल पर भी बहस छिड़ गई| पार्टी-अध्यक्ष ने यथार्थवादी रूख अपनाया| संघ के साथ संबंध तोड़कर क्या भाजपा जिंदा रह सकती है ? संघ भाजपा की अम्मा है| भाजपा शाश्वत शैशव में रहने के लिए अभिशप्त है| भाजपा की अपनी कोई विचारधारा नहीं है, कोई नेतृत्व नहीं है, कोई संगठन नहीं है| जो कुछ है, वह संघ है| संघ सरक जाए तो बच्चा ज़मीन पर आ गिरेगा| लालकृष्ण आडवाणी जैसे कद्दावर नेता का हश्र क्या हुआ ? संघ के इशारे पर उन्हें जाना पड़ा| यदि भाजपा का अपना कोई नेतृत्व होता तो देश वहीं जलवा देखता, जो सिंडिकेट के मुकाबले इंदिरा गांधी ने कभी दिखाया था| संघ और भाजपा के संबंधों में जिन्ना-प्रसंग जैसे अनेक प्रसंग अब ज्यादा आएंगे, क्योंकि नेतृत्व के शिखर पर अब गैर-स्वयंसेवक भी पहुंच रहे हैं| अब श्यामाप्रसाद मुखर्जी, मौलिचंद्र शर्मा और बलराज मधोक जैसे स्वतंत्र्चेता अध्यक्षों से नहीं बल्कि ऐसे नेताओं से संघ का पाला पड़ेगा, जिन्हें कुर्सी और पैसे की विचारधारा के अलावा किसी अन्य विचारधारा से कोई मतलब नहीं होगा| भाजपा से ज्यादा अब संघ को सोचना होगा कि दोनों के संबंध कैसे हों|
जहां तक हिंदुत्व का प्रश्न है, भाजपा कार्यकारिणी ने सारे मसले को दरी के नीचे सरका दिया हैं| पीलीभीत-हिंदुत्व से बढ़कर पीत-हिंदुत्व क्या हो सकता है ? हिंदुत्व की अवधारणा में दयानंद, अरविंद, विवेकानंद और सावरकर के बाद एक भी नया शब्द किसी ने नहीं जोड़ा| संघ, जनसंघ और भाजपा उधार की कमाई पर ही आज तक गुज़ारा कर रहे हैं| यह कितना बड़ा चमत्कार है कि उधार की विचारधारा, उधार के नेता और उधार के संगठन के दम पर भाजपा सारे देश में फैल गई और उसने अनेक राज्यों और केंद्र में भी अपनी सरकार बना ली| इसका मुख्य श्रेय संघ और भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं को है| अटल-आडवाणी जोड़ी का यह चमत्कार अब अपने संध्या-काल में पहुंच चुका है| संघ और भाजपा के नए और समवयस्क नेतृत्व के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है| वैचारिक शून्य को विचारधारा कहकर कब तक गाड़ी धकाई जाएगी ? उदार हिंदुत्व, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, एकात्म मानवतावाद, मुस्लिम अ-विद्वेष, पंथ-निरपेक्षता आदि कोरे कामचलाउ शब्द हैं| 21वीं सदी के आधुनिक भारत को परिभाषित करने में ये शब्द समर्थ नहीं हैं| किसी सफल राजनीतिक दल के पीछे कोई लौह-आबद्घ विचाराधारा हो, यह आवश्यक नहीं, खासतौर से लोकतांत्रिक व्यवस्था में| गुलाम भारत और विभाजन की तरफ बढ़ते भारत में तो कई विचारधाराएं जरूरी थीं लेकिन अब उनकी जरूरत है या नहीं, यह विचारणीय प्रश्न है| अमेरिका, इंग्लैंड, जर्मनी, फ्रांस और अब रूस व चीन जैसे देशों के राजनीतिक दलों ने भी बंदरिया का मरा बच्चा छोड़ दिया है तो भाजपा को क्या पड़ी है कि उसे वह सीने से चिपकाए रहे ? वह राजनीतिक दल है, कोई सांस्कृतिक संगठन नहीं| वह सिर्फ 20 प्रतिशत मतदाताओं तक सीमित क्यों रहे ? वह अपनी पहुंच 100 प्रतिशत तक क्यों नहीं बढ़ाए ?
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