रा. सहारा, 1 सितंबर 2007 : परमाणु समझौते के सवाल पर भाजपा के बदलते हुए पैतरे जनता के लिए एक पहेली बन गये है| क्या प्रतिपक्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने शीर्षासन कर दिया था? क्या उन्होंने मनमोहनसिंह-सरकार से गुपचुप हाथ मिला लिया था? क्या अमेरिकियों ने उन्हें अपने जाल में वैसे ही फॅंसा लिया है, जैसे उन्होंने बेनज़ीर भुट्टो को फॅंसा रखा है? जैसे बेनज़ीर मुशर्रफ से हाथ मिलाने को राज़ी हो गई है, क्या वैसे ही आडवाणी मनमोहनसिंह को सहारा देते हुए दिखाई पड़ने लगे थे? क्या भाजपा क्रांग्रेस की, बी टीम बनती हुई नहीं लग रही थी?
ये प्रश्न उठ रहे थें, हैदराबाद में दिए गए आडवाणी के बयान से! भाजपा में तो हड़कंप ही मच गया था| पार्टी-अध्यक्ष, पार्टी प्रवक्ता और समझौता-विरोधी सभी पार्टी-नेता भौंचक थे कि क्या प्रतिकि्रया की जाए? दिन भर चले विचार-विमर्श के बाद पार्टी-प्रवक्ता ने लीपा-पोती की और कहा कि आडवाणी के नवीनतम बयान और भाजपा के मूल रवैए में कोई अन्तर्विरोध नहीं है| पत्र्कारों ने पूर्व विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा और अरूण शौरी को भी घसीटने की कोशिश की, क्योंकि इन दोनों ने ‘समझौता 123′ के बाल की खाल उधेड़ी थी| आडवाणी ने कहा था कि उन्हें ‘समझौता 123′ से कोई आपत्ति नहीं है, बशर्ते की सरकार अपने ‘परमाणु उर्जा अधिनियम’ में संशोधन कर ले और हमारे राष्ट्र हितों को सुरक्षित करे दें| अब पार्टी के जोर देने पर आडवाणी ने फिर पल्टी खाई है और कह दिया है कि संशोधन के बाद ‘समझौता 123′ पर पुर्नविचार किया जायेगा|
आडवाणी की हैदराबाद लाइन भाजपा के काफी अनुकूल मालूम पड़ रही थी| इसके कई कारण हैं| पहला तो यह कि भाजपा कम्युनिष्ट पार्टियों का दुमछल्ला क्यों बने? वर्तमान अखाड़ेबाजी में असली पहलवान कम्युनिष्ट ही हैं| परमाणु-समझौते को लेकर इस समय जो भी दंगल चल रहा है, वह कॉंग्रेस और कम्यूनिष्ट पार्टियों के बीच चल रहा है| भाजपा तो किनारे खड़ी-सी लग रही है| उसे मनाने-पटाने की कोई कोशिश कहीं नजर नहीं आ रही है| परमाणु-समझौते पर विचार करने के लिए जो समिति बन रही है, उसमें भी कॉंग्रेसी और कम्युनिष्ट ही रखे जा रहे हैं| भाजपाई नहीं| भाजपाई ऐसे मालूम पड़ रहे हैं, जैसे कि वे कम्युनिष्टों की कार्बन-कॉपी हों| यदि सरकार गिरेगी तो श्रेय भाजपा को नहीं, कम्युनिस्टो को मिलेगा| ऐसे में भाजपा चुनाव में अपने वोट कैसे भुनाएगी?
दूसरा, भाजपा (जनसंघ भी ) अपेक्षाकृत अमेरिका-समर्थक पार्टी रही है| उसने शीतयुद्घ के दौरान रूस के मुकाबले अमेरिका को ज्यादा पसंद किया है| अमेरिका का लोकतंत्र् ही नहीं, उसके छोटे-छोटे 50 राज्य, उसकी अध्यक्षात्मक शासन प्रणाली और उसका साम्यवाद-विरोध भाजपा को सदा पसंद रहा है| वह आर्थिक उदारीकरण की भी पक्षधर रही है| भाजपा-सरकार की अवधि में अमेरिका के साथ भारत के जितने घनिष्ट संबंध बने, पहले कभी नहीं बने| अटल-सरकार तो सीटीबीटी पर दस्तखत करने के लिए लगभग तैयार हो गई थी| अमेरिका के साथ सामरिक सहकार और परमाणु वार्ता का श्रीगणेश भी भाजपा सरकार ने ही किया था| मनमोहनसिंह सरकार ने उसी पौधे को सींचकर पेड़ बनाने की कोशिश की है| अब भाजपा जिस बुरी तरह से अमेरिका पर टूट पड़ी थी, उससे कम्युनिस्टों में भी सुगबुगाहट पैदा हो गई थी| भाजपा के कार्यकर्त्ता भी असमंजस में पड़े हुए थे| उनके लिए अमेरिका-विरोध का महत्च कम, कॉंग्रेस-विरोध का ज्यादा था| अब आडवाणीजी ने हैदराबाद में जो बयान दिया था, उसमें सिर्फ कॉंग्रेस-विरोध रह गया था, अमेरिका-विरोध लगभग नेपथ्य में चला गया था|
तीसरा, अब जो कांग्रेस-विरोध बचा था, वह भी ऐसा है, जैसा किसी पति-पत्नी के जोड़े के बीच होता है याने पति सिर्फ कह रहा है कि ‘तुम थोड़ी लिपिस्टक लगा लो तो नरगिस की तरह दिखने लगोगी|’ अपने परमाणु ऊर्जा अधिनियम में मनमोहनजी, आप थोड़ा संशोधन करवा लीजिए तो हमें ‘समझौता 123′ से क्या एतराज है? यह जिम्मेदार प्रतिपक्ष का रवैया है| इसी मुद्दे पर चुनाव हुए तो कॉंग्रेस भाजपा की वैसी आलोचना नहीं कर पाएगी, जैसी वह कम्युनिष्टों की करेगी| भाजपा कह सकेगी कि हम भी अमेरिका का हाथ पकड़कर राष्ट्र को बलवान बनाना चाहते हैं लेकिन कॉंग्रेसियों की तरह हम उनके आगे पसरना पसंद नहीं करते| हम तो केवल बराबरी की मांग कर रहे थे| चौथा, अमेरिका में बसे प्रवासी भारतीयों के बीच भाजपा विशेष लोकपि्रय है| भाजपा के ये समर्थक इस समझौते को काफी ठीक-ठाक मानते है, उन्हें भी सांत्वना मिल सकती थी|
इस दृष्टि से आडवाणी का हैदराबाद बयान भाजपा के लिए काफी फायदेमंद दिखाई पड़ रहा था लेकिन इस पैंतरा-पलट से भाजपा को वाक़ई कोई फायदा होता? सोचनेवालों के दिमाग में अनेक संदेह हैं| पहला, भाजपा विचारहीन पार्टी का आभास देने लगी है| ऐसी पार्टी, जिसमें दूरगामी सोच का अभाव है| वह जब सत्ता में थी तो उसे नौकरशाह चलाते थे और अब जबकि वह विपक्ष में है, उसे भगवान ही चला रहा है| उसके कौन से नेता कब क्या बयान दे दें, कुछ पता नहीं| लोग पूछते है कि क्या यह पार्टी एक लच्छेदार महान वक्ता और शेष कार्यकर्त्ताओं की पार्टी नहीं है? इसमें कोई नेता भी है या नहीं? दूसरा, भाजपा के ताज़ा रवैये ने उसके सच्चे प्रतिपक्ष के पद की गरिमा नष्ट कर दी है| विरोध का ध्वज अब भी कम्युनिष्टो के हाथ में ही है और उसका श्रेय अब भी कम्युनिस्टों को ही मिलेगा| कम्युनिस्टों के विरोध का मूल कारण अमेरिका ही है लेकिन उसके कारण भारत के राष्ट्रहितों की जबर्दस्त रक्षा हो रही है, क्या इससे कोई भाजपाई इन्कार कर सकता है? भारत की परमाणु संप्रभुता का शंखनाद भाजपा ने किया और आज कैसी विडंबना है कि उसकी रक्षा का बीड़ा कम्युनिस्टो ने उठा लिया है| इस परमाणु-समझौते ने भारतीय राजनीति को गड्ड-भड्ड कर दिया है| आज कम्युनिस्ट राष्ट्रवादी और भाजपाई समझौतावादी दिखाई पड़ रहे है| क्या भाजपा अब कम्युनिस्टो की कार्बन-कॉपी बनने की बजाय कांग्रेसियों की कार्बन कापी नहीं बन गई है? भाजपा जैसी अखिल भारतीय पार्टी के भाग्य में क्या यही बदा है कि वह या तो कम्युनिस्टो की कार्बन कॉपी बने या कॉंग्रेसियों की? देश का मध्यम वर्ग मूल कॉपी को वोट देगा या कार्बन कॉपी को? लोग असली माल खरीदेगें या नकली? भाजपा को कम्युनिष्टों की कार्बनकापी बनने से उतना नुकसान नही है, जितना कांग्रेस की कार्बन कॉपी बनने से है| कम्यूनिष्टो के कारण वह केवल बंगाल और केरल में पिछड़ती लेकिन कांग्रेस के कारण सारे देश में उसका भयंकर नुकसान होता| वह चाहे तो अब भी प्रखर विरोध का झंडा अपने हाथ में उठा सकती है क्योंकि भाजपा भारत की परमाणु संप्रभुता की पर्याय है|
तीसरा, आडवाणीजी का यह सुझाव भी रोचक है कि भारत अपने परमाणु ऊर्जा अधिनियम में ऐसे संशोधन कर ले, जो हाइड एक्ट का मुकाबला कर सकें| पहली बात तो यह कि हमारे 1962 के परमाणु उर्जा अधिनियम का हमारे परमाणु शस्त्र्-निर्माण से कुछ लेना-देना नहीं है और अगर हम उसमें कुछ संशोधन करेंगे तो क्या अमेरिकी उसे मान लेंगे? क्या वे हमारे कानून को अपने कानून की छाती पर सवार होने देंगे? चौथा, यदि ‘समझौता 123′ इतना निरापद है तो उसकी अनेक धाराओं का भाजपा ने शब्दश: विरोध क्यों किया? क्या श्री आडवाणी कपिल सिब्बल और वीरप्पा मोहली के तर्को से सहमत है? दुर्भाग्य यह है कि हमारे सत्तारूढ़ और विपक्षी दलों के नेतागण भारत की परमाणु स्वायत्ता से संबंधित मौलिक प्रश्नों पर विचार ही नहीं कर रहे हैं| वे अमेरिका द्वारा खींचे गए परमाणु सामंतवाद के गोल घेरे में ही लत्तम-धत्तम कर रहे हैं| वे न तो नेहरू की तरह संपूर्ण और व्यापक निरस्त्रीकरण की मॉंग कर रहे हैं और न ही माओं की तरह परमाणु सामंतवाद को खुली चुनौती दे रहे हैं|
Leave a Reply