नई दुनिया, 28 फरवरी 2007 : पंजाब, उत्तराखंड और मणिपुर के चुनावों से यह स्पष्ट संदेश उभर रहा है कि कांग्रेस पार्टी की ताकत बुरी तरह से घट रही है. अब पूरे राष्ट्र में मुश्किल से गिनी-चुनी जगहों पर ही कांग्रेस की सरकार है, वो भी दूसरों के टेकों पर टिकी हुई है. इसका सीधा परिणाम केंद्र की राजनीति और आगे आनेवाले राष्ट्रपति चुनाव पर भी देखने को मिलेगा| अब कांग्रेस अपने उम्मीदवार को देश पर थोप नहीं पायेगा| उसे विरोधी दलों के साथ राष्ट्रपति के नाम के सवाल पर समझौता करना पड़ेगा| ऐसा नहीं है कि इन तीनों राज्यों के चुनावों पर केंद्र की नीति का असर नहीं पड़ा है| कमरतोड़ मंहगाई, आतंकवाद का नंगा नाच और गरीब किसानों की आत्महत्या, इसके अलावा विशेष आर्थिक क्षेत्रें की उच्च वर्गपरस्त नीतियां, विदेशी मामलों में अमेरिका की ओर अनावश्यक झुकाव तथा अमेरिकी दबाव में आकर पाकिस्तान के प्रति नरमी का प्रदर्शन, इन तीनों तत्वों ने मिलकर केंद्र सरकार की छवि बहुत ही क्षीण कर दी है. लोग यह महसूस ही नहीं करते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के पास कोई नेता या नेतृत्व भी है. कई दशकों में यह पहली बार हुआ है कि कांगे्रस का अध्यक्ष और प्रधानमंत्री एक नहीं, दो व्यक्ति हैं| इस नयी घटना से कांग्रेस की छवि अधिक लोकतांत्रिक और अधिक सक्षम बननी चाहिए थी, लेकिन इसके उलट परिणाम सामने आ रहे हैं. कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री दोनों कमजोर दिखाई पड़ रहे हैं. लगता है जैसे शिखर पर कोई शून्य निर्मित हो गया है. इसका परिणाम इन चुनावों में साफ-साफ दिखायी पड़ रहा है और इन केंद्रीय तत्वों के अलावा इन चुनाव परिणामों में स्थानीय कारणों ने भी प्रभावशाली भूमिका निभायी है|
पंजाब और उत्तराखंड में कांग्रेस की आपसी लड़ाई व प्रदेश के विकास में ढिलाई ने भी मतदाताओं को विकल्प ढूंढ़ने पर विवश किया है. मणिपुर में भी कांग्रेस की शक्ति घटी है. केंद्रीय स्तर पर कांग्रेस के कमजोर होने का असर राज्यों पर जोरदार तरीके से पड़ रहा है. इन चुनाव परिणामों से यह स्पष्ट संदेश उभर रहा है कि भाजपा चढ़ाव पर है. कांग्रेस से भी अधिक अब भाजपा तय करेगी कि भारत का अगला राष्ट्रपति कौन हो और इन तीनों प्रांतों के चुनाव का असर उत्तर प्रदेश चुनावों में भी अवश्य दिखाई पड़ेगा. यह नहीं कहा जा सकता कि उत्तर प्रदेश वृहत उत्तराखंड बन जायेगा, लेकिन उत्तर प्रदेश में पंजाब की कहानी दुहराई जा सकती है. किसी भी पार्टी के साथ गठबंधन के आधार पर भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिल जाये तो यह असंभव नहीं होगा. भाजपा के भाग्य से सत्ता का छींका अपने आप टूट कर उसके पांवों में आ पड़ा है. अब देखना यह है कि भाजपा विभिन्न प्रांतों में अपनी आपसी लड़ाई को रोक पायेगी या नहीं? इसी प्रकार केंद्र में भी नये अध्यक्ष के नेतृत्व में एकजुट होकर लक्ष्य संधान करेगी या नहीं? यदि भाजपा कटिबद्घ होकर अगले डेढ़-दो साल सबल प्रतिपक्ष की भूमिका निभाती रहे तो उसके सत्तारूढ़ होने का मार्ग प्रशस्त हो जायेगा|
केंद्र की सरकार की स्थिति में कोई विशेष परिवर्तन होने की संभावना नहीं है, लेकिन वाम दलों का दबाव पहले से कहीं अधिक बढ़ जायेगा. देखना यह है कि कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और केरल, इन प्रांतों की शक्तियां एकजुट हेाकर कहीं तीसरे विकल्प पर काम करना शुरू न कर दे|
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