Naya India, 04 Oct 2011 : भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में से क्या निकला, यह बताना भाजपा के नेताओं के लिए भी मुश्किल है। देश को आशा थी कि यह दिल्ली बैठक बड़ी जानदार सिद्ध होगी लेकिन वह होती, उसके पहले ही उसका दम निकल गया। बैठक के आरंभ से अंत तक नरेंद्र मोदी उस पर छाये रहे। मोदी आएंगें कि नहीं, नहीं आ रहे हैं तो क्यों नही आ रहे हैं, उनके नहीं आने का क्या असर होगा और जब आए ही नहीं तो उसका परिणाम क्या हो रहा है, ये ही सवाल मीडिया पर छाये रहे। आजकल जो मीडिया करता है, वही राजनीति है। मीडिया सत्य है, राजनीति मिथ्या है। अन्ना हजारे का फुगावा इसका ठोस प्रमाण है।
मीडिया ने भाजपा के अन्य नेताओं के भाषण थोड़े-बहुत छापे और चेनलों पर भी दिखाए लेकिन उसकी रूचि मुख्यतः विषयांतर करने में ही रही। कांग्रेस सरकार ने अपने लिए भ्रष्टाचार की जो बारूद खुद बिछाई है, उसमें तीली लगाने के बजाय भाजपा अपने घाव सहलाती हुई दिखाई पड़ी। वह कांग्रेस से लड़ती हुई जितनी दिखाई पड़ी, उससे ज्यादा खुद से लड़ती हुई दिखाई दी। अगला प्रधानमंत्री कौन, यही यक्ष-प्रश्न बन गया। अगला प्रधानमंत्री कौन, यह प्रश्न क्या रथ-यात्रा से तय होगा ? उसे तो वह तीली तय करेगी जो कांग्रेस द्वारा बिछाई गई भ्रष्टाचार की बारूद को उड़ा देगी।
भ्रष्टाचार के विरूद्ध जो रथ-यात्रा निकाल रहे हैं, वे लालकृष्ण आडवाणी या गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी या भाजपा अध्यक्ष नितीन गडकरी या संसदीय नेताद्वय सुषमा स्वराज और अरूण जेटली- इनमें से प्रधानमंत्री कौन बनेगा, यही प्रश्न हवा में तैरा दिया गया। मोदी के उपवास ने उसे तगड़ी हवा दी। आडवाणी की रथ-यात्रा ने भी उसे उछाला था लेकिन नागपुर जाकर उन्हें कहना पड़ा कि भाजपा उन्हें प्रधानमंत्री पद से कहीं कुछ ज्यादा ही दे चुकी है। इसमें शक नहीं कि भाजपा में आधा दर्जन से ज्यादा नेता ऐसे हैं, जो प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हो सकते हैं। दर्जन के हिसाब से खरीदने पर चीजें प्रायः सस्ती मिलती हैं। यों भी जब से प्रधानमंत्री पद राजीव गांधी के हाथ आया, वह काफी सस्ता हो गया है। भाजपा के किसी नेता ने अभी तक इस महान पद को पाने की कामना व्यक्त नहीं की है। तो फिर यह सवाल बार-बार उठ ही क्यों रहा है?
इसलिए उठ रहा है कि कांग्रेस की नैया रोज़ इंच-ब-इंच डूब रही है। उसके कुछ नेताओं के बयान इतने आक्रामक होते हैं कि हर बयान दस-बीस लाख वोटों का कबाड़ा कर जाता है। इसके अलावा धांधलों की झड़ी लगी हुई है। एक धांधले की स्याही सूखती नहीं कि दूसरे की कालिख मुंह पर पुत जाती है। मंत्री एक-दूसरे पर वार कर रहे हैं। मालकिन की डॉट पड़ने पर वे युद्ध-विराम का अभिनय करने लगते हैं लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि अब शक की सुई बड़े बाबू की तरफ घूमने लगी है। पूरा मंत्रिमंडल ही मसखरों का टोला मालूम पड़ने लगा है। सरकार अंदर से खोखली हो गई है। सर्वोच्च न्यायालय का कोई एक फैसला या कोई एक तीखी टिप्पणी ही उसे ढेर करने के लिए काफी है। ऐसे में भाजपा सत्ता के सपने नहीं देखेगी तो क्या करेगी?
भाजपा ही प्रतिपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है। उसका विकल्प क्या है? जन-आंदोलनों में से कोई विकल्प उभरता नहीं दिखाई पड़ रहा है। जो आक्रोश अभी तक उभरा है, वह हवाई है, वायव्य है, निर्गुण-निराकार है। कोरे शब्द और रोचक दृश्य हैं। उसे ठोस जामा पहनाने की राजनीतिक कोशिश का ही दूसरा नाम आडवाणी की रथ-यात्रा है। यह रथ-यात्रा भी कोरे शब्दों और दृश्यों की ही यात्रा होगी लेकिन इसमें से वोट पैदा होने की संभावना सदा बनी रहेगी। भाजपा की इस बैठक में इस रथ-यात्रा का जो प्रभामंडल बनना चाहिए था, वह भी नहीं बन सका। उस पर भी नरेंद्र मोदी का भूत मंडराता रहा। माना गया कि नरेंद्र मोदी ने उसका विरोध किया इसीलिए वह अब गुजरात से नहीं, बिहार से शुरू होगी। मोदी का कहना है कि यदि जयप्रकाषजी के जन्मदिन पर ही शुरू करना है तो इस यात्रा को उनके गांव सिताबदियारा से ही शुरू क्यों न किया जाए, जो कि बिहार में है। यदि यह यात्रा सरदार पटेल के जन्मदिन (31 अक्तूबर) पर शुरू होती तो गुजरात से हो सकती थी। न तो यह बात खुलकर कही गई और न ही यह भी बताया गया कि गुजरात की भाजपा इन दिनों अपने स्थानीय चुनावों की तैयारी में लगी रहेगी। सारे मामले को मीडिया ने प्रधानमंत्री पद की प्रतिस्पर्धा से जोड़ दिया।
भाजपा के प्रधानमंत्री पद को इस तरह से उछाला जा रहा है, मानो यह कल ही उसकी झोली में गिरनेवाला है। अभी तो ढाई साल बाकी है। इस सरकार की खाल गेंडे से भी अधिक मोटी है। सर्वोच्च न्यायायल की कोई कटु टिप्पणी आ गई तो यह उसे भी हजम कर सकती है। इसके अलावा कौन जानता है कि देश और भाजपा की राजनीति किस वक्त क्या करवट ले लगी। किसे पता था कि मनमोहन सिंह इस देश के प्रधानमंत्री बन जाएंगें? और फिर भाजपा में तो भावी प्रधानमंत्रियों की पूरी कतार लगी हुई है। असली सवाल यह है कि अगले दो-ढाई साल में क्या भाजपा इतना जन-समर्थन जुटा पाएगी कि वह प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सके ?
जब भाजपा के पास अटलबिहारी वाजपेयी जैसे उत्तम वक्ता और लोकप्रिय नेता थे, तब भी वह बहुमत नहीं जुटा पाई तो अब कैसे जुटा पाएगी? उसके पास आडवाणी अब भी हैं लेकिन न राम-मंदिर जैसा मुद्दा है न महारथी की वह महिमा है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध आज कोई भी राजनीतिक दल मुंह खोलने लायक नहीं रह गया है। जनता का किसी भी नेता पर भरोसा नहीं है। यदि भाजपा का कोई नेता आज खुद को गांधी, गोलवलकर, जयप्रकाश या लोहिया के सांचे में ढाल सके या उतना भी नहीं तो कम से कम नक़ल की नक़ल कर सके याने अन्ना हजारे जैसा दिखने लगे तो शायद लोग उसकी बात सुनने लगें।
भारत के राजनीतिक दलों के लिए व्यावहारिक यही होगा कि वे भ्रष्टाचार के बारे में अपना मुंह ही न खोलें। वे मुंह खोलेंगे तो लोग उसमें मिट्टी भर देंगे। उनके लिए फिलहाल जरूरी यही है कि वे आर्थिक और सामाजिक विक्ल्प सुझाएॅं, और उनसे जनता को रिझाएॅं। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आज सीएजी और मीडिया की साख किसी भी नेता से कहीं ज्यादा है। यदि कोई व्यक्ति सचमुच इस देश का नेता बनना चाहता है तो उसके पास सुनहरा अवसर है। वह भ्रष्टाचार के विरूद्ध किसी सरकार, अदालत या लोकपाल की शरण में जाने के बजाय ‘सीधी कार्रवाई’ का सहारा ले। ‘सीधी कार्रवाई’ ही सच्चा जन-आंदोलन है। इसी में से नई सरकार और नई व्यवस्था का जन्म होगा। क्या भाजपा इसके लिए तैयार है ?
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