नवभारत टाइम्स, 26 जून 2004 : भाजपा के मुंबई अधिवेशन की इबारत बहुत उलझी हुई है| उसे कैसे पढ़ा जाए? उसका पहला संकेत तो यही है कि भाजपा अब भी एक अनुशासित और शालीन पार्टी है| अगर ऐसा नहीं होता तो अटलबिहारी वाजपेयी पर सीधा हमला होता, जैसा कि 1977 की हार के बाद कॉंग्रेस (इ) की पहली बैठक में इंदिरा गॉंधी पर हुआ था| पार्टी अध्यक्ष ने व्यक्तिवाद के विरुद्घ मॅुंह जरूर खोला लेकिन उसमें से आग नहीं बरसाई बल्कि फूल बरसाए, खासतौर से जब अटलजी ने सभी में कह दिया ‘पुष्कल झाला’ (काफी हो चुका) ! अन्य अनेक भाजपा नेताओं ने अपने सर्वोच्च नेता के सम्मान में पुष्कल प्रशस्ति-पाठ किया| घाव पर मरहम लगाया| उधर मनाली-बयान के बाद स्वयं अटलजी ने कितनी पल्टियॉं खाईं? कोई नवजात शिशु भी क्या इतनी पल्टियॉं खा सकता है? कभी कहा, मोदी का किस्सा पुराना पड़ गया और कभी कहा कि ‘पुष्कल झाला’ मैंने मज़ाक में कह दिया था| अटलजी के विनोदी स्वभाव के कारण उनकी इस बात पर विश्वास किया जा सकता है लेकिन ज़रा कल्पना करें कि ऐसी ‘बौछारें’ अगर नेहरू या इंदिरा गॉंधी जैसे नेताओं पर पड़ी होती तो क्या होता? क्या उनका अहंकार फुंफकारने नहीं लगता? जरूर फुंफकारता, क्योंकि वे अटलजी की तरह स्वयंसेवक नहीं रहे| स्वयंसेवकाई ने अटलजी के व्यक्तित्व में जो अनुशासन और संयम भर दिया है, उसी ने मुंबई में भाजपा को और शायद अटलजी को भी टूटने से बचाया है| नेता और कार्यकर्ता – सभी मर्यादा की डोर में बंॅधे हुए हैं|
मर्यादा की यह डोर, डोर बनी रहे तो बहुत अच्छा लेकिन लगता है कि यह डोर अब रस्सा बनती चली जा रही है| रस्से में कसी भाजपा अपना विकास भी करना चाहती है या नहीं? वह अब भी पूर्ण राजनीतिक दल बनना चाहती है या नहीं? क्या उसका सोच और बर्ताव अब भी अर्ध-राजनीतिक ही बना रहेगा? उसे यह तय करना होगा कि वह अबोध-शिशु की तरह अपनी मॉं की गोद में ही खेलती रहेगी या किसी वयस्क की तरह तनकर अपने पॉंवों पर चलेगी|
पार्टी-अध्यक्ष वैंकय्या नायडू और संसदीय नेता लालकृष्ण आडवाणी अगर कहते हैं कि वे अपनी जड़ों की तरफ लौटेंगे और हिंदुत्व की ध्वजा दुबारा उठाऍंगे तो मानना होगा कि वे अपनी पार्टी को वयस्क नहीं होने देना चाहते| बुरी तरह से पिटने के बाद बच्चा अपनी मॉं की गोद की तरफ दौड़ता है, इसमें गलत कुछ नहीं है लेकिन सवाल यह है कि क्या छह साल राज करने के बावजूद भाजपा अब भी ‘बच्ची’ ही है? जड़ों की तरफ लौटना चाने संघ की शरण में जाना ! इसमें भी कोई बुराई नहीं है लेकिन वही ध्वजा दुबारा उठा लेना, जो संघ ने उठा रखी है तो फिर भाजपा की जरूरत ही क्या है? संघ स्वयं राजनीति क्यों नहीं करता? एक म्यान में डेढ़ तलवार घुसाने की क्या तुक है? संघ को राष्ट्रनीति करने दी जाए और भाजपा राजनीति करे| अगर भाजपा राजनीति करना चाहती है तो वह अपना आधार ‘हिंदुत्व’ को कैसे बना सकती है? स्वयं लालकृष्ण आडवाणी कह चुके हैं कि भारत हिन्दू-राज्य कभी नहीं बन सकता, हिन्दू-राष्ट्र तो वह है ही ! हिन्दू-राष्ट्र इस अर्थ में कि हिन्दुत्व ही भारतीयता है और भारतीयता ही हिन्दुत्व है| वैंकय्या ने इसी मंत्र को दुबारा दोहराया है| हिन्दुत्व की इस ढीली-ढाली परिभाषा में अनेक विसंगतियॉं हैं जिन पर अलग से लंबी बहस की गंुजाइश है लेकिन फिलहाल इसे ठीक मान भी लें तो भी यह प्रश्न उठता है कि भाजपा ‘हिन्दुत्व’ नामक शब्द को अपने गले में पत्थर की तरह क्यों टॉंगे हुए है? वह हिन्दुत्व की जगह भारतीयता शब्द को क्यों नहीं अपनाती? उसने अपना नाम ‘हिन्दू जनता पार्टी’ नहीं रखा, ‘भारतीय जनता पार्टी’ रखा| क्यों रखा? कुछ कारण तो होगा| डॉ. हेडगेवार ने संघ का नाम ‘हिन्दू स्वयंसेवक संघ’ नहीं रखा, ‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ’ रखा| क्यों रखा? क्या मजबूरी थी, उनकी? जैसा नाम, वैसा काम क्यों नहीं? बोतल पर लेबल शर्बत का चिपका हो और उसके अंदर पानी भरा हो तो वह कितने दिन बिकेगी? पानी की जगह ग्राहकों को अगर आप गंगाजल भी पिला रहे हों तो उन्हें अटपटा जरूर लगेगा?
इस अटपटेपन से भाजपा की मुक्ति कब होगी? भाजपा लाख कहे कि उसका हिन्दुत्व संकीर्ण नहीं है, बेहद उदार है, वह भारतीयता ही है लेकिन जो हिन्दू नहीं हैं, वे उसे क्यों मानेंगे? अगर वे नहीं मानेंगे तो क्या भाजपा उन्हें हाशिए के बाहर करने को मजबूर नहीं होगी? वोटों के लालच में वह उन्हें अंदर खींचने की कोशिश करेगी तो भी बुरी तरह से विफल हो जाएगी| क्या वजह है कि भाजपा के सारे मुसलमान उम्मीदवार हार गए? कोई संगठन स्वयं को राजनीतिक दल कहे और किसी एक तबके के लिए अपने द्वार बंद कर ले तो वह राजनीतिक दल कहलाने के योग्य नहीं हो सकता| राजनीतिक दल, वह भी अखिल भारतीय, सबके लिए खुला होना चाहिए| कुछ लोगों को खींचने के लिए अगर उसे टुकड़े डालने पड़ते हैं तो कहींे न कहीं कोई गंभीर रोग पल रहा है| मुंबई अधिवेशन में इस रोग का निदान खोजने और सत्ता में लौटने का गुर तलाशने की बजाय भाजपा ने फिर वे ही पुरानी गोलियॉं निगलने की घोषणा कर दी है|
पुरानी गोलियॉं याने हिन्दुत्व ! हिन्दुत्व याने क्या? तात्विक अर्थ नहीं, सिर्फ मोटी बात ! तीन मोटी बात ! राम मंदिर, समान संहिता और धारा 370 ! अगर यही हिन्दुत्व है तो प्रश्न होगा कि क्या काठ की हॉंडी दूजी बार भी चढ़ पाएगी? मुश्किल है| दूसरी बात ज्यादा गंभीर है| ये तीनों मुद्दे हिन्दुत्व की माला जपे बिना भी उठाए जा सकते हैं| तीनों मुद्दे ऐसे हैं, जिन्हें हिन्दू-मुसलमान शब्दावली के घेरे से बाहर निकालना चाहिए| तीनों राष्ट्रीय मुद्दे हैं| अगर नहीं होते तो नेहरू रामलला को क्यों आने देते, राजीव मंदिर के दरवाजे क्यों खुलवाते, संविधान की प्रस्तावना समान संहिता की बात क्यों कहती और केंद्र का कॉंग्रेस शासन धारा 370 को गुपचुप मटियामेंट क्यों करता रहा? राष्ट्रहित के सवालों को हिन्दू-मुसलमान की भूल-भुलैया में फॅंसाना कौनसा राष्ट्रवाद है? अगर यही अपनी जड़ों की तरफ लौटना है तो जड़ता की तरफ लौटना क्या है? अप्रत्याशित पराजय के धक्के से सुन्न हो जाना स्वाभाविक है| शरीर का सुन्न पड़ जाना ठीक है लेकिन बुद्घि का शून्यच हो जाना कहॉं तक ठीक है| मुंबई का कार्यकारिणी अधिवेशन चिन्तनरत कम हुआ, चिन्ताग्रस्त ज्यादा रहा| चिन्ताग्रस्त चिन्तन बड़ी खतरनाक चीज़ है| जड़ों की तरफ लौटनेवालों ने यह भी नहीं सोचा कि वे कहीं पेड़ को ही जड़ तो नहीं बना देंगे? भाजपा के वट-वृक्ष के साथ 24 पार्टियों की जो शाखा-प्रशाखाऍं जुड़ी थीं, भगवा तने पर जो काले-पीले-नीले, गुलाबी फूल खिले थे, वे सब कहीं अब मुरझा तो नहीं जाऍंगे? भाजपा फैलने की बजाय अब कहीं सिकुड़ने का मंत्रपाठ तो नहीं करने लगी है?
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