Dainik Bhaskar, 31 March 2004 :किसी भी सत्तारूढ़ दल का चुनाव घोषणा-पत्र या मन्तव्य-पत्र (विज़न डॉक्यूमेंट) जब प्रकाशित होता है तो विरोधी दल अक्सर उस पर टूट पड़ते हैं लेकिन इस बार भाजपा के मन्तव्य-पत्र पर कांॅग्रेस और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की जो प्रतिक्रियाऍं आईं, वे उबासीभरी जम्हाइयों के अलावा क्या थीं? यदि देश के अन्य दलों के पास भाजपा की टक्कर का कोई और मन्तव्य होता तो वे इसे रद्द करते और उसे आगे बढ़ाते| अगर भाजपा कहती है कि वह भारत को 2020 तक महाशक्ति बनाना चाहती है तो विरोधी दल क्या यह कहेंगे कि वे नहीं बनाना चाहते? ऐसा तो वे कदापि नहीं कह सकते लेकिन वे यह जरूर कह सकते थे कि हम उस तरीके या रूप से सहमत नहीं हैं, जो भाजपा का है| लेकिन ऐसा तो वे तभी कह सकते हैं, जबकि उनका अपना कोई सपना हो और भाजपा से काफी अलग हो| जहॉं तक अपने सपने का सवाल है, वे भी अगर सत्ता में होते तो भाजपा की तरह कोई न कोई दस्तावेज़ सरकारी अफसरों या बुद्घिजीवियों से कहकर तैयार करवा लेते| दूसरे शब्दों में हमारे राजनीतिक दलों की बौद्घिक दरिद्रता अपरम्पार है और लगभग समान है| इसीलिए चुनावी घोषणा-पत्रों या मन्तव्य-पत्रों पर क्षणिक चर्चा के बाद उन्हें पॉंच साल के लिए ताक़ पर धर दिया जाता है|
इसका मतलब यह नहीं कि ये दस्तावेज़ बिल्कुल बेकार हैं| अगर ये बिल्कुल बेकार होते तो इनका निकलना ही बंद हो जाता| इनके मोटे-मोटे दो उपयोग तो स्पष्ट ही हैं| एक तो इन दस्तावेजों में किए गए वायदों के आधार पर सरकार के काम-काज का मूल्यांकन हो सकता है और दूसरा आगे आनेवाली पीढि़यॉं इन दस्तावेजों की धूलभरी पर्तों के नीचे छिपे विचारों, संकल्पों, सपनों और इरादों को झाड़-पोंछकर कभी अमली जामा भी पहना सकती हैं| चुनावों के दौरान हमारे राजनीतिक दल मतदाताओं को कितने ही सब्जबाग दिखाऍं, असली प्रश्न यह है कि क्या अगले पॉंच साल तक वे अपने घोषणा-पत्र के मुद्दों पर अपने पार्टी-कार्यकर्त्ताओं और आम जनता को शिक्षित करते हैं या नहीं? बड़ी-बड़ी सॉंठ-गॉंठ करनेवाले और लच्छेदार भाषण देनेवाले नेतागण क्या उन मुद्दों को खुद ठीक से समझते हैं और क्या उनके पास इतनी बुद्घि है कि वह जनता को सारे पेंंच ठीक से समझा सकें और उसे अपने साथ आने को प्रेरित कर सकें? उन्हें शायद ऐसा करने की जरूरत ही महसूस नहीं होती, क्योंकि एक बार चुनाव जीत लेने के बाद वे जनता पर नहीं, नौकरशाही पर निर्भर हो जाते हैं| वे अपनी बन्दूक नौकरशाहों के कंधों पर रखकर निश्चिन्त हो जाते हैं| इसीलिए घोषणा-पत्र और मन्तव्य-पत्र अल्मारियों में आराम करते हैं| और इसीलिए आजकल इन पर ज्यादा बहस नहीं होती|
बहस हो तो कैसे हो ? अगर भाजपा कहती है कि भारत को वह हिन्दू-राष्ट्र बनाना चाहती है तो बहस जरूर होती लेकिन वैसा तो उसने कहा नहीं| उल्टे, उसने राम-मंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता पर अपने रवैए को ज़रा नरम कर दिया है या यों कहें तो बेहतर होगा कि उन पर एक झीना-सा पर्दा डाल दिया है याने आप साफ़ छुपते भी नहीं और सामने भी नहीं आते| इस नरमी पर उसने यह कहकर भी चाशनी चढ़ाई है कि हिन्दुत्व, भारतीयता और इंडियननेस एक ही बात है| उसके प्रवक्ताओं ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि यह मन्तव्य-पत्र पार्टी का है, सरकार का नहीं| सरकार तो राजग की है और होगी, केवल भाजपा की नहीं| भाजपा का यह नया रूप आम जनता को ज्यादा पसंद आएगा, इसमें संदेह नहीं है लेकिन विरोधी दल बड़े पसोपेश में पड़ गए हैं| वे विरोधी हैं, इसलिए अच्छी बात की भी तारीफ नहीं कर सकते| यदि भाजपा स्वयं को मध्यममार्गी पार्टी बना रही है तो उसका स्वागत होना चाहिए| भारतीय लोकतंत्र क्या इस प्रवृत्ति से सुद्रढ़ नहीं होगा कि भाजपा और कम्युनिस्ट पार्टियॉं अपनी-अपनी पुरानी टेक छोड़ें और अपने-अपने शास्त्रीय कारागारों को तोड़कर आगे बढ़ें| यदि भाजपा हिन्दू राष्ट्र को भूल जाए और कम्युनिस्ट पार्टियॉं खूनी क्रांति को तो क्या यह भारत के लिए हितकारी नहीं होगा? क्या यह दोनों धाराओं का लोकतांंत्रीकरण नहीं होगा? लोकतांत्रीकरण याने वोटों का प्रवाह इतना तेज होता है कि मतवादों के जहाज उसमें पड़ते ही कागज की नावों की तरह गलने लगते हैं| आम आदमी को मतवादों से क्या लेना-देना? ज्यों-ज्यों लोकतंत्र का उजाला फैलता है, साम्यवाद और पूंूंजीवाद में फर्क करना मुश्किल हो जाता है| टोरी व्हिग हो जाता है और व्हिग टोरी| कब डेमोक्रेटिक पार्टी रिपब्लिकन पार्टी की नीतियॉं अपना लेती हैं और कब रिपब्लिकन पार्टी डेमोक्रेटिक हो जाती है, कुछ पता नहीं चलता| दलों का दलदल भी सूखने लगता है| बि्रटेन जैसे पुराने लोकतंत्र और अमेरिका जैसे विशाल लोकतंत्र में मुख्यतया दो ही दल रह जाते हैं| अगर भारत में भी ऐसा ही हो जाए तो कितना अच्छा हो| अमेरिका में ठीक ही कहा जाता है कि दोनों दल एक ही रथ के दो पहिए हैं|
मतदाताओं को रिझाना और श्रेष्ठ शासन-संचालन – ये ही दो लक्ष्य रहते हैं, हर पार्टी के ! इस दृष्टि से भाजपा और कॉंग्रेस में अब बहुत अंतर नहीं रह गया है| यदि कॉंग्रेस वंशवाद के शाप से मुक्त हो जाए तो उसमें और भाजपा में क्या अंतर रह जाएगा? धारा 370 को कॉंग्रेसी सरकारों ने इतना अधिक घिसा है कि अब वह लगभग अदृश्य हो गई है और राम मंदिर का शिलान्यास भी उसी ने करवाया था| यदि मुस्लिम मतदाता रीझने लगें तो मध्ययुगीन निजी कानून को तिलांजलि देने में कॉंग्रेस भाजपा को भी पीछे छोड़ सकती है| याने देश की इन दोनों पार्टियों को एक ही सिक्के के दो पहलू बनने में ज्यादा देर नहीं लगेगी| आज असलियत तो यह है कि सोनिया गॉंधी का नेतृत्व इतना कमज़ोर है कि कॉंग्रेस ‘दूसरे पहलू’ का रोल भी अदा नहीं कर पा रही है| वह भाजपा की फीकी कार्बन कॉपी बन गई है| इसीलिए विद्याचरण शुक्ल, बंगारप्पा और संजय गॉंधी के पुत्र का भाजपा-प्रवेश लोगों को चकित नहीं करता| इसीलिए गायक भूपेन हजारिका, कलाकार धर्मेंद्र तथा अन्य दो दर्जन नवागन्तुकों को मिलनेवाला भाजपा-टिकिट (तत्काल-सेवा) किसी के अन्त:करण को नहीं कचोटता| आखिर टिकिट उसी को तो मिलेगा, जो चुनाव जीतेगा| लोगों को इस बात पर भी आश्चर्य नहीं होता कि जो लोग गॉंधी-हत्या के समय गिरफ्तार किए गए थे, वे अब राजनीतिक आशीर्वाद के लिए राजघाट या पोरबंदर क्यों जाते हैं| अटलबिहारी वाजपेयी की अध्यक्षतावाली भाजपा नें मुंबई में गॉंधीवादी समाजवाद को अपना लक्ष्य-पद बनाया ही था और इधर कॉग्रेस-प्रवेश करनेवाले नवीन जिंदल और रवींद्र जैन अटलजी की तारीफ के तराने छेड़ने में जरा भी संकोच नहीं करते| भारतीय राजनीति के इस गड्डमड्डवाद से कुछ लोग दुखी जरूर होंगे लेकिन यह लोकतंत्र की अनिवार्यता है, विवशता है और शायद शक्ति भी है|
Leave a Reply