NavBharat Times, 24 March 2004 : जैसी मजबूरी में भारत आजकल फॅंसा हुआ है, पहले कभी नहीं फॅंसा| पाकिस्तान को गैर-नाटो प्रमुख-सहयोगी का रुतबा मिल जाए और हमारे होंठ सिले रहें, हमें मारने के लिए वह दूरमारक प्रक्षेपास्त्र बनाए और हम बगलें झॉंकते रहें, ए.क्यू. खान रंगे हाथ पकड़ा जाए और हम दुनिया में कोई बवाल खड़ा न करें, मुशर्रफ फिर से राग-कश्मीर अलापे और हम अनसुनी कर दें| ऐसा तो पहले कभी नहीं हुआ| पाकिस्तान की खाट खड़ी करने का कोई अवसर पहले तो भारत ने नहीं गॅंवाया| वह अब क्यों गवॉं रहा है?
इस प्रश्न का उत्तर हमारे ज्ञानी लोग बड़े मजे़दार ढंग से दे रहे हैं| उनका कहना है कि पहली बार त्रिकोण टूट रहा है| भारत-पाक-अमेरिका त्रिकोण ! याने अमेरिका के साथ भारत और पाकिस्तान के अपने-अपने द्विपक्षीय संबंध हैं| उनमें कोई आपसी संबंध नहीं हैं| त्रिकोण नहीं है| यदि भारत के साथ अमेरिका की घनिष्ठता बढ़ती है तो पाकिस्तान को कोई जलन नहीं होनी चाहिए और पाकिस्तान के साथ बढ़ती है तो भारत को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए| अमेरिका की दृष्टि भी यही है| काश, कि ऐसा होता ! जरूर होता, अगर भारत और पाकिस्तान पड़ौसी नहीं होते और एक-दूसरे के पैदायशी प्रतिद्वंद्वी नहीं होते| भारत और पाकिस्तान एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं, यह सत्य है और यह प्रतिद्वंद्विता अमेरिका के दम पर फल-फूल रही है, यह ध्रुव-सत्य है| यदि अमेरिका पाकिस्तान को सीटो और सेन्टो का सदस्य नहीं बनाता और अयूब की सरकार के साथ 1959 में रक्षा-समझौता नहीं करता तो क्या पाकिस्तान भारत पर चार-चार हमले बोलने की हिमाकत कर सकता था? जैसे पराधीन भारत में अंग्रेज ने मुस्लिम सांप्रदायिकता को अपना हथियार बना रखा था, वैसे ही युद्घोत्तर विश्व में अमेरिका ने पाकिस्तान को अपनी विदेश नीति का औजार बनाए रखा| विदेशी सॉंठ-गॉंठ की यह धारावाहिकता पिछले सौ वर्ष से चली आ रही है|
अमेरिकी तर्क आज भी वही है, जो अब से पचास साल पहले था| उसका निशाना भारत पर नहीं, किसी और पर है| पहले वह साम्यवाद पर था और अब आतंकवाद पर है| कृष्णमेनन ने कभी बड़ा मारक सवाल पूछ लिया था| उन्होंने पूछा था कि क्या अमेरिकियों ने कोई ऐसी तोप भी बनाई है, जो सिर्फ सोवियत संघ की तरफ चले? जो तोपें सोवियत साम्यवाद से लड़ने के लिए पाकिस्तान को दी गई थीं, उन्होंने हमेशा भारतीय लोकतंत्र पर गोले बरसाए| दुनिया के सबसे सुदृढ़ लोकतंत्र के गोले दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र पर दागे गए और एक फौजी तानाशाही द्वारा दागे गए| अब जो हथियार गैर-नाटो प्रमुख सहयोग के नाते प्राप्त होंगे, पाकिस्तान उनका इस्तेमाल किसके विरुद्घ करेगा? क्या आतंकवाद के विरुद्घ करेगा? क्या उसामा बिन लादेन के विरुद्घ करेगा? क्या तालिबान के विरुद्घ करेगा? जाहिर है कि एफ-16 जैसे लड़ाकू विमानों, हारपून और एक्सोसेट जैसे मिसाइलों तथा विमानभेदी तोपों का इस्तेमाल वज़ीरिस्तान में छिपे आतंकवादियों के विरुद्घ नहीं हो सकता| उनका इस्तेमाल पाकिस्तान अपने पड़ौसी अफगानिस्तान, ईरान, चीन और ताजि़किस्तान के विरुद्घ नहीं कर सकता| उसका एकमात्र निशाना भारत ही होगा| क्या भोले अमेरिकियों को इतनी मोटी बात भी समझ में नहीं आती? कोलिन पॉवेल ऐसे-वैसे विदेश मंत्री नहीं हैं| वे अमेरिकी फौज के यशस्वी जनरल रहे हैं| सेनापति के नाते इस सैन्य-सत्य को तो उन्हें समझना ही चाहिए, इतिहास के विद्यार्थी के नाते भी उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान एक कृत्र्िाम राष्ट्र हैं, मज़हब की बुनियाद पर खड़ा दुनिया का एकमात्र राष्ट्र-राज्य है और भारत-विरोध ही उसकी प्राणवायु है| इस प्राणवायु के पम्प का दूसरा नाम ही अमेरिका है|
यदि अमेरिका पाकिस्तान-जैसे गरीब और पिछड़े राष्ट्र को अपने पॉंव पर खड़े होने के लिए डॉलरों की बेसाखियॉं लगा दे तो इसमें कोई बुराई नहीं है और फौजी बूटों तले रौंदी जा रही पाकिस्तान की जनता को लोकतंत्र की रोशनी दिला दे तो बहुत अच्छा है लेकिन अमेरिकी मदद ने पाकिस्तान का आज तक कौनसा भला किया? उसने पाकिस्तान की फौजी मांसपेशी को मजबूत किया, उसके लोगों को आलसी और परान्नपि्रय बनाया और उसके राष्ट्रीय चरत्र्िा को आक्रामक और विध्वंसक बनाया| अगर यह सच न होता तो ए.क्यू. खान जैसे विश्व-शत्रु पाकिस्तान में ही क्यों पनपते, मुजाहिदीन और तालिबान जैसे आतंकवादी पाकिस्तान की शै क्यों पाते, पाकिस्तान भारत पर बार-बार हमला क्यों करता? यह सब इसलिए होता रहा, क्योंकि पाकिस्तान की पीठ पर सदा अमेरिका-जैसे देशों का हाथ रहा|
अमेरिका की दिक्कत यह है कि वह अपने स्वार्थ में अंधा हो जाता है| उसका भले-बुरे का विवेक नष्ट हो जाता है| जैसे शीतयुद्घ के ज़माने में वह सोवियत संघ के पीछे हाथ धोकर पड़ा हुआ था, वैसे ही वह आजकल आतंकवाद के पीछे पड़ा हुआ है| आतंकवाद से लड़ने का बहाना बनाकर कोई भी देश अमेरिका को जितना चाहे दुह सकता है| पाकिस्तान आजकल यही कर रहा है|
न्यूयॉर्क के ट्रेड टॉवर गिरने के बाद से पाकिस्तान अमेरिका की नाक का बाल हो गया है| मुशर्रफ का पाकिस्तान अमेरिका के इतने नज़दीक हो गया है कि कोलिन पॉवेल ने भारत सरकार को इस बात की ज़रा भी भनक नहीं लगने दी कि वे पाकिस्तान को ‘गैर-नाटो प्रमुख सहयोग’ का दर्जा देनेवाले हैं| भारत ‘सामरिक सहयोगी’ है और पाकिस्तान ‘प्रमुख सहयोगी’, लगभग वैसे ही जैसे कि नाटो देश हैं| ‘सामरिक सहयोगी’ को यह पता ही नहीं चला कि उसका प्रतिद्वंद्वी रातोंरात ‘प्रमुख सहयोगी’ बन गया है| ‘सामरिक सहयोगी’ भारत के मेहमान के तौर पर कोलिन पॉवेल उसे एक दिन पहले तक यह पुडि़या थमाते रहे कि कल इस्लामाबाद पहॅुंचते ही वे ए.क्यू. खान की खबर लेंगे और सीमापार आतंकवाद का स्थायी समाधान करवाऍंगे| भारत को भरमाने के लिए वे ‘आऊटसोर्सिंग’ की भी वकालत करते रहे लेकिन इस्लामाबाद पहॅुंचते ही उन्होंने बुश का पिटारा खोल दिया| क्यों खोल दिया? क्योंकि बुश को चुनाव जीतने हैं| सद्दाम नहीं, उसामा जिताएगा, उन्हें यह चुनाव ! उसामा, जवाहिरी और मुल्ला उमर पर फंदा कसनेवाले मुशर्रफ को यदि वे ‘प्रमुख सहयोगी’ घोषित नहीं करेंगे तो किसे करेंगे? यह पाकिस्तान को दिया गया विशेष दर्जा नहीं, मुल्लों का मॅुंह बंद करने का महसूल है| अपना स्वार्थ साधने के खातिर अगर अमेरिका विश्व-शत्रु ए.क्यू. खान की तरफ से मुॅंह फेर सकता है तो वह इसकी परवाह क्यों करे कि उसके हथियारों का इस्तेमाल कभी भारत के खिलाफ़ होगा? भारत यह समझकर चुप है कि अल्लाह मियॉं अपने गधे को किशमिश खिला रहा है तो वह दुखी क्यों हो? गधा जितनी किशमिश खाएगा, उसकी दुम उतनी ही अधिक मरोड़ी जाएगी| यह सच है लेकिन यक्ष-प्रश्न यह है कि भारत के पक्ष में क्यों मरोड़ी जाएगी? भारत को अब ज्यादा दुलत्तियॉं खाने के लिए तैयार रहना पड़ेगा| गधा जितना ताकतवर होगा, वह उतनी ही दुलत्तियॉं ज्यादा झाड़ेगा| जाहिर है कि भारत पाकिस्तान की भूमिका नहीं निभा सकता| शेर कितना ही छोटा हो, गधे की भूमिका कैसे निभाएगा? इसीलिए भारत को यह मलाल क्यों होना चाहिए कि हाय, हम पाकिस्तान क्यों न हुए? पाकिस्तान तो उसे कभी नहीं होना है लेकिन भारत को भारत होने देने में जो बाधाऍं खड़ी की जा रही हैं, उस पर उसका चुप रहना कहॉं तक ठीक है? क्या अमेरिका का डर इतना है कि ईमान की बात कहते हुए हम हकलाने लगते हैं? हम कैसे संप्रभु राष्ट्र हैं?
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