दैनिक भास्कर, 03 मार्च 2011 : संयुक्त राष्ट्र ने लीब्या के विरूद्घ प्रतिबंधों की जो घोषणा की है, वह सर्वसम्मति से की है| 15 में से किसी भी सदस्य ने न तो प्रतिबंधों का विरोध किया और न ही कोई तटस्थ रहा| पश्चिमी राष्ट्रों द्वारा लाए गए इस प्रस्ताव का समर्थन भारत ने भी किया| इस बार सुरक्षा परिषद के सदस्य बनने के बाद भारत का यह प्रमुख अंतरराष्ट्रीय कदम है| कुछ लोगों का मानना था कि भारत ऐसा कदम उठाने में झिझकेगा, क्योंकि एक तो कज़्ज़ाफी-सरकार के साथ भारत के संबंध इधर काफी घनिष्ट होते चले जा रहे थे और लगभग हमारे 18 हजार नागरिक लीब्या में फंसे हुए थे| उनकी सुरक्षा सबसे जरूरी थी| शायद इसीलिए लीब्याई बगावत के प्रारंभिक तीन-चार दिन तक भारत सरकार तटस्थ-सी दिखाई पढ़ती रही और लीब्या में शांति की कामना करती रही|
हमारे लगभग 40 लाख नागरिक इस समय अरब देशों में काम कर रहे हैं| डर यह था कि भारत सरकार ट्यूनीसिया, मिस्र, लीब्या तथा अन्य देशों की बगावतों का खुला समर्थन कर देती तो इन भारतीय नागरिकों का भविष्य खटाई में पड़ सकता था| इन देशों के शासक नाराज़ हो सकते थे| इसके अलावा एक तर्क यह भी दिया जाता है कि भारतीय समर्थन से बागियों को कोई खास लाभ भी नहीं होता, क्योंकि इन देशों में भारत की स्थिति वैसी प्रभावशाली नहीं है, जैसी अमेरिका की है| खुद ओबामा-प्रशासन ने अपने रवैए को आहिस्ता-आहिस्ता तेज किया है| जहां तक अमेरिका का सवाल है, वह तो अरब और अफ्रीकी देशों के तानाशाहों का विशेष संरक्षक है|
संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधों का समर्थन करके भारत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि वह लीब्या की जनता के साथ है, शासकों के साथ नहीं| सं.रा. में भारतीय राजदूत हरदीप पुरी ने समग्र और व्यापक प्रतिबंधों का विरोध करके यह सिद्घ कर दिया कि भारत ऐसे प्रतिबंधों का समर्थन नहीं करेगा, जिनके कारण लीब्या के 65 लाख लोगों का जीना मुहाल हो जाए| इसीलिए ये प्रतिबंध केवल मुअम्मर कज्ज़ाफी और उनके परिवार को प्रभावित करेंगे| कज्ज़ाफी, उनके परिजनों और सहयोगियों की सभी चल-अचल संपत्तियॉं जब्त कर ली जाएंगी, उन्हें किसी भी देश में घुसने नहीं दिया जाएगा, उन्हें कोई सशस्त्र् सहायता नहीं लेनी दी जाएगी और जनता के विरूद्घ की जा रही हिंसा के लिए उनका मामला अंतरराष्ट्रीय फौजदारी अदालत को सौंपा जाएगा| इस आखिरी मुद्दे पर भी भारत की राय थी कि इसमें भी जल्दबाजी न की जाए| अभी हम तेल देखें और तेल की धार देखें|
भारत के इस सावधानीभरे रवैए के पीछे सबसे बड़ा कारण हमारे वे हजारों नागरिक हो सकते हैं, जो अभी तक लीब्या में फंसे हैं| त्रिपोली स्थित हमारे राजनयिक दिन-रात एक कर रहे हैं और इधर हमारे विदेश मंत्रलय, रक्षा मंत्रलय और उड्रडयन मंत्रलय के अफसर भी चितिंत दिखाई पड़ रहे हैं लेकिन अपने नागरिकों को लीब्या से बाहर निकालने में हम लोग फिसड्डी साबित हो रहे हैं| 18 हजार में से अभी तक मुश्किल से साढ़े तीन हजार नागरिक लीब्या से बाहर आए हैं| उनमें से ज्यादातर तो अपनी पहल पर ही भागकर बाहर आए हैं| हमारे मुकाबले चीन ने अपने 30 हजार नागरिक सुरक्षित बाहर निकाल लिए है| उसके 10 हजार नागरिक तो चीन पहुंच गए हैं और 20 हजार पड़ौसी देशों में चले गए हैं जबकि हमारे मुश्किल से 1500 नागरिक भारत आ सके हैं| ऐसा नहीं है कि भारत के पास साधन नहीं है| हम सैकड़ों हवाई जहाज और दर्जनों बड़े जलपोत भेज सकते थे लेकिन देश का दुर्भाग्य है कि इस समय उसकी सरकार के पास ऐसा कोई नेता नहीं है, जो विदेश नीति की बारीकियों को ठीक से समझता हो और सही मौके पर सही निर्णय कर सकता हो| यदि हम हमारे 18 हजार लोगों को पांच-छह दिन पहले तक निकाल लेते तो कज़्ज़ाफी के खिलाफ ज़रा खुलकर बोल सकते थे और लीब्या में मारे जानेवाले हजारों नौजवानों के पक्ष में अपना हाथ उठा सकते थे| विदेश नीति हो या गृह नीति हो, वह सिर्फ अफसरों के भरोसे नहीं चल सकती है| इसमें शक नहीं कि हमारे अफसर नेताओं से कहीं अधिक योग्य होते हैं लेकिन उनसे आशा करना कि नीति-संबंधी नाजुक निर्णय भी वे ही करें, यह सर्वथा अलोकतांत्रिक है|
ट्रयूनीशिया, मिस्र और लीब्या के मामलों में हमारे ढीले-ढाले रवैए से एक नतीजा यह भी निकलता है कि भारत के पास कोई मौलिक दृष्टिकोण नहीं है| हम भेड़-चाल चलते हैं| अमेरिका का मुंह ताकते रहते हैं| जैसा अमेरिका करता है, हम भी वही करने लगते हैं| कम से कम एशिया और अफ्रीका के मामलों में भारत अगुवाई करता हुई दिखाई पड़ना चाहिए| यदि नहीं तो हम तीसरी दुनिया के नेता कहलाने के योग्य कैसे रहेंगे ?
यह ठीक है कि कुछ देशों और कुछ मामलों में भारत और अमेरिका के हितों में असाधारण संगति हो सकती है लेकिन क्या भारत अमेरिका की तरह कोई अंधाधुंध नीति चला सकता है ? अमेरिका ने जैसे सद्रदाम के विरूद्घ खुद को झोंक दिया और अपने आपकों विश्व मूर्ख शिरोमणि बना लिया, क्या उस तरह के किसी कदम का समर्थन हम इन बागी-राष्ट्रों में भी कर सकते हैं ? बि्रटिश प्रधानमंत्री डेविड केमरन और अमेरिका विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन के फौजी मदद के प्रस्ताव को लीब्या के बागियों ने ही रद्द कर दिया है तो उसका समर्थन हमें भूलकर भी नहीं करना होगा| जैसे कज्जाफी का झूठा दावा है कि यह बगावत अल-क़ायदा ने भड़काई है, वैसा ही अमेरिकियों का यह अंधविश्वास भी गलत है कि इस बगावत के गर्भ से ‘इखवान’ (मुस्लिम ब्रदरहुड) का पुनर्जन्म होगा और वह सारे अरब जगत मे छा जाएगी| यह बगावत न अल-क़ायदा की है, न इखवान की है, न अमेरिका-विरोध की है, न इस्राइल-विरोध की है| यह शुद्घ लोकतंत्र् के समर्थन की है| यह शुद्घ जनाधिकार की लहर है| यह ठीक है कि अमेरिका की तरह भारत इन लोगों को करोड़ों-अरबों डॉलर नहीं दे सकता और उन्हें फौजी मदद भी नहीं पहुंचा सकता लेकिन इन निहत्थे लोगों के समर्थन में वह विश्व-अंत:करण का प्रवक्ता तो बन सकता है| यदि भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनना चाहता है तो उसकी नीतियों का धारधार होना जरूरी है|
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
Leave a Reply