NavBharat Times, 3 Feb 2005 : नेपाल नरेश ज्ञानेंद्र का समर्थन कौन कर सकता है ? न भारत, न बि्रटेन और न ही अमेरिका| चीन जरा ज्यादा सावधान है, इसलिए वह ज्यादा से ज्यादा यही कहेगा कि यह नेपाल का आंतरिक मामला है| नेपाल में सत्ता किसके हाथ में रहती है, राजा के हाथ में या पार्टी-नेताओं के हाथ में, यह ऊपरी तौर पर नेपाल का आंतरिक मामला ही मालूम पड़ता है ? लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह वास्तव में नेपाल का आंतरिक मामला है? यदि यह मामला आंतरिक होता तो पिछले दिनों नेपाल ने भारत, अमेरिका और यूरोपीय देशों से सीधी सैन्य और आर्थिक मदद क्यों माँगी ? यहाँ असली मामला है, माओवादियों का | माओवादियों ने लगभग आधे नेपाल पर कब्जा कर लिया है और उनकी हिंसक कार्रवाइयों के कारण 11 हजार लोग मारे गए हैं| पिछले आठ साल में काठमांडों में कई सरकारें आइं और गइं लेकिन वे माओवादियों के दाँत खट्टे नहीं कर सकीं| नेपाल-नरेश ने शेरबहादुर देउबा की सरकार को इसी बहाने दुबारा बर्खास्त कर दिया है| उस पर आरोप लगाया है कि वह नए चुनाव नहीं करवा सकी और माओवादियों से बातचीत में सल न हो सकी| नरेश ने सत्ता खुद सम्हाल ली है, आपात्काल ठोक दिया है और अब मनचाहे प्रधानमंत्री के जरिए वे राज–काज चलाएँगे| उन्होंने अगले तीन साल में चुनाव करवाने का वायदा किया है|
यहाँ सवाल यह उठता है कि यदि राजा खुद तीन साल की मोहलत ले रहा है तो वह देउबा जैसे गठबंधन–प्रधानमंत्र्ी से अप्रैल 2005 में चुनाव करवाने का आग्रह किस आधार पर कर रहा है? राजा तो लगभग निरंकुश है, सर्वोच्च सेनापति है, उसे गठबंधन या संसद का भय नहीं है, उसे जनता द्वारा नहीं चुना जाना है| यदि ऐसा राजा चुनाव के लिए तीन साल माँग रहा है तो देउबा को भी वह इतनी ही अवधि क्यों नहीं दे सकता था ? यदि देउबा के लिए अप्रैल में चुनाव करवाना संभव होता तो राजा के लिए तो चुनाव रवरी में ही करवाना संभव होना चाहिए था| देउबा की पहली समस्या यह थी कि उनके गठबंधन–सहयोगी चुनाव के लिए तैयार नहीं थे और दूसरी बड़ी समस्या यह है कि आधे नेपाल में माओवादी चुनाव ही नहीं होने देंगे| इसीलिए चुनाव से भी बड़ी समस्या माओवादी हैं| माओवादियों का मुकाबला करने में यदि देउबा सल हो जाते तो वे चुनाव भी करवा लेते और दुबारा प्रधानमत्री भी बन जाते| इन माओवादियों ने ही वर्तमान संकट को ‘आंतरिक मामला’ नहीं रहने दिया है| यह अब बाह्य मामला भी बन गया है|
सबको पता है कि माओवादियों से चीन का कुछ भी लेना-देना नहीं है लेकिन बाहरी मदद के बिना माओवादी इतने सल नहीं हो सकते थे| भारत के अनेक नक्सलवादी समूहों, अल–क़ायदा और लिट्टे आदि का माओवादियों से सीधा संबंध बना हुआ है| यदि काठमांडो पर माओवादियों का कब्जा हो गया तो कोई आश्चर्य नहीं कि लाखों नेपाली भागकर भारत की शरण लें जैसे कि 1971 में बांग्लादेशियों ने ली थी| नेपाल में भारतीय विनिवेश और वहाँ बसे भारतीयों के जान-माल को भी खतरा हो जाएगा| काठमांडो वैसा ही काबुल बन सकता है जैसा कि वह तालिबान के ज़माने में था| नेपाल पोलपोत का कम्पूचिया न बन जाए और भारत का पूर्वी सीमातं लहूलुहान न हो जाए, यह भारत की प्रमुख चिंता है| नेपाल को गणतंत्र् बनाने का माओवादी दावा कहीं उसे ‘गनतंत्र्’ न बना दे, इसी चिंता के कारण भारत सरकार को नेपाल नरेश की आलोचना करनी पड़ी है| भारत ने लोकतंत्र् के हनन पर चिंता व्यक्त की है|
भारत इससे ज्यादा कर भी क्या सकता है? राजा त्र्िभुवन के जमाने में उसने वैसा किया था लेकिन 55 साल पहले परिस्थिति कुछ और थी| आज यदि भारत सीधा हस्तक्षेप करे तो सबसे पहले उसे माओवादियों से टक्कर लेनी पड़ेगी| यदि नेपाल के 70 हजार फौजी विल रहे तो माओवादियों पर सलता पाने के लिए कम से कम दो लाख भारतीय जवान लगाने पड़ेंगे| जैसा खतरा हमने श्रीलंका में 1987में मोल लिया था, वैसा नेपाल में भी लेना पड़ेगा| श्रीलंका में जैसे हमने सिंहलों और तमिलों, दोनों को भारत का दुश्मन बना लिया, वैसे ही नेपाल में भी लोकतंत्र्वादी, वामपंथी और नरेशवादी भी भारत–विरोधी हो जाएँगे| नेपाल का प्रसुप्त राष्ट्रवाद अँगड़ाइयाँ लेने लगेगा| फुंँकारेगा, डसेगा| स्वयं नरेश ज्ञानेंद्र भारतप्रेमी नहीं हैं| नेपाल के भारमप्रेमी तत्वों से उनका दुराव सर्वज्ञात है| इसके बावजूद भारत ने नेपाल नरेश को कमजोर करने की कोई कोशिश नहीं की है| बल्कि उन्हें बार–बार भारत आने का न्यौता दिया है| पिछले दिनों भारत ने नेपाल को बड़े पैमाने पर ौजी सहायता भी दी है| पश्चिमी देश भी नेपाल की सहायता करते समय यह देखते हैं कि उसके प्रति भारत का रवैया क्या है?
ऐसी स्थिति में भारत क्या करे? नेपाल नरेश पर दबाव डालने के लिए क्या नेपाल की मदद बंद कर दी जाए? क्या बंगाल की खाड़ी तक जानेवाले उसके रास्ते रोक दिए जाएँ? क्या अपने राजदूत को वापस बुला लिया जाए? यह सब करने से क्या नेपाल में लोकतंत्र् लौट आएगा? शायद आ जाए, जैसे कि पिछले साल जून में आ गया था| कैसा था वह लोकतंत्र् और वह कैसे आया था ? नरेश ने जून 2004 में देउबा को दुबारा प्रधानमंत्री बना दिया, क्योंकि नेपाली राजनीतिक दलों ने उन पर जबर्दस्त दबाव डाला था| अक्तूबर 2002 में देउबा को ‘अयोग्य’ और ‘अक्षम’ घोषित करके नरेश ने बर्खास्त कर दिया था| लगभग दो साल उन्होंने अपने कठपुतली प्रधानमंत्र्ियों के जरिए राज चलाया, लेकिन वे भी माओवादियों का मुकाबला नहीं कर सके और चुनाव भी नहीं करवा सके| न नेपाली काँग्रेस का बहुदलीय लोकतंत्र् कुछ काम आया और न ही राजशाही लोकतंत्र् | बहुदलीय लोकतंत्र् को दुबारा मौका मिला लेकिन यह भी कैसा लोकतंत्र् साबित हुआ ? नेता और दल आपस में ही लड़ते रहते हैं| वे माओवादियों से क्या लड़ेंगे ? लोकतंत्र्वादी नेता भ्रष्टाचार में आकण्ठ डूबे हुए हैं| राजतंत्र्वादियों और लोकतंत्र्वादियों में कितना है? सब खुदगर्जी में रमे हुए हैं| नेपाली जनता का हित किसके लिए सर्वोपरि है? इन तथाकथित लोकतंत्र्वादियों के लिए भारत अपनी इज्जत दाँव पर क्यों लगाए ? यह ठीक है कि देउबा को दुबारा हटाकर नरेश ने नया सिरदर्द मोल ले लिया है| अब उन्हें माओवादियों के साथ-साथ लोकतंत्र्वादियों से भी लड़ना पड़ेगा| उन्होंने दो-दो मोर्चे एक साथ खोल लिए हैं| यदि अन्तरराष्ट्रीय समुदाय ने सैन्य और आर्थिक सहायता पर ब्रेक लगा दिए तो एक नया तीसरा मोर्चा भी खुल जाएगा| ऐसे चारों तर से घिरे हुए नेपाल-नरेश का भारत विरोध करे या समर्थन, यह बहुत बड़ी दुविधा है| यदि नरेश के विरुद्रब व्यापक जनोत्थान होता है तो भारत की जिम्मेदारी बढ़ जाएगी| भारत को कुछ जोखिम भरे निर्णय करने होंगे| विदेश मंत्रलय को पहले से कई विकल्प तैयार करके रखने होंगे| नेपाल में चुनाव करवाने और तथाकथित लोकतंत्र् स्थापित करवाने का काम थोड़ी देर बाद भी हो सकता है लेकिन माओवादियों से निपटने की सभी रणनीतियाँ एकदम तैयार होनी चाहिए| हम यह न भूलें कि माओवादियों का साया सिर्फ्ँ हिंसा से नहीं हो सकता| आखिर वे इतने लोकप्रिय क्यों हैं ? कोई ठोस कारण तो है ही| इस कारण का निवारण न तो नेपाल के राजतंत्र्वादी कर सके और न ही लोकतंत्र्वादी | यह जिम्मेदारी शायद अब भारत के मत्थे पड़नेवाली है|
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