Navbharat Times, 30 November : लिस्बन में हुए नाटो-अफगान समझौते ने स्पष्ट कर दिया है कि जुलाई 2011 में विदेशी फौजें अफगानिस्तान से विदा न
हीं होंगी। हालांकि समझौता यह भी कहता है कि नाटो फौजें वहां अनंत काल तक टिकी नहीं रहेंगी, लेकिन वह यह नहीं बताता कि वे कब लौटेंगी। इस समझौते में यह इशारा है कि 2014 तक अफगान फौज आत्मनिर्भर हो जाएगी। नाटो के महासचिव एंडर्स फोघ रासमुसेन ने अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई को आश्वस्त किया है कि जब तक तालिबान का सफाया पूरी तरह नहीं हो जाता, नाटो सेनाएं उनकी मदद करती रहेंगी। लेकिन ऐसी कई बातें हैं, जो समझौते के खोखलेपन को उजागर करती हैं। जैसे अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा का यह दोहराना कि अमेरिकी फौजें 2014 तक वापस आ ही जाएंगी। यदि अमेरिकी फौजें वापस आ जाएंगी तो फिर नाटो फौजों में बचेगा क्या? अनेक नाटो राष्ट्र तो अपनी फौजें बुलाने के लिए अभी ही इतने बेताब हैं कि इस मुद्दे पर वे किसी तरह अपनी सरकारों को गिरने से बचाए हुए हैं। नाटो के कुल एक लाख 30 हजार जवानों में से एक लाख सिर्फ अमेरिका के हैं।
तालिबान के लिए संदेश
अमेरिकी रक्षा मंत्री राबर्ट गेट्स ने टो-टूक शब्दों में कहा है कि 2014 के बाद अफगानिस्तान में हमारे बहुत कम सैनिक रह जाएंगे और वे लड़ने का नहीं, प्रशिक्षण और मार्ग-प्रदर्शन का कार्य करेंगे। यदि ऐसा होगा तो इस समझौते का अर्थ क्या है? इसका बस एक अर्थ हो सकता है और वह यह कि नाटो तालिबान को डराना चाहता है। वह उन्हें संदेश देना चाहता है कि ओबामा की जुलाई 2011 की वापसी की घोषणा के भरोसे वे न रहें। वे यह आस नहीं लगाएं कि आठ माह के बाद वे करजई से गद्दी छीन लेंगे। लेकिन लिस्बन-घोषणा के जवाब में तालिबान ने कहा है कि हम इतनी तगड़ी मार लगाएंगे कि नाटो फौजें जुलाई 2011 के पहले ही भाग खड़ी होंगी। तालिबान की यह घोषणा सिर्फ जबानी जमा-खर्च है लेकिन हम ब्रिटिश सेनापति के इस बयान को न भूलें कि विदेशी फौजें तालिबान को ध्वस्त नहीं कर सकतीं। दूसरे शब्दों में नाटो फौजें अफगानिस्तान में अगले आठ माह रहें या आठ साल, इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा।
थकी हुई नाटो फौज
वास्तव में सात साल के लंबे युद्ध के बाद नाटो फौजें अब थकने लगी हैं। अपनी पिछली अफगान यात्रा के दौरान मुझे नाटो राजदूत के अलावा कई नाटो कमांडरों से बात करने का मौका मिला। वे थके और झुंझलाए हुए लगे। इस साल झुंझलाहट के मारे उनके हाथों बहुत बड़ी संख्या में बेकसूर नागरिक मारे गए। हामिद करजई ने इस मुद्दे को भी लिस्बन में उठाया। जवाब में ओबामा ने काफी तीखी बातें कहीं। उन्होंने कहा कि जब हम करोड़ों डॉलर रोज बहा रहे हैं और हमारे नौजवानों का खून भी बहा है। इसलिए ऐसी घटनाओं को बर्दाश्त करना पड़ेगा। करजई ने पिछले सप्ताह यह भी खुलेआम कहा कि अमेरिकी सेनाएं जरा पर्दे के पीछे रहें। वे बहुत आक्रामक हो गई हैं। आम लोग उन्हें पसंद नहीं करते। करजई के बयान से पता चलता है कि उनके और अमेरिका के बीच लगभग वैसा ही तनाव पैदा हो गया है, जैसे बबरक कारमल और सोवियत संघ के बीच हो गया था। सोवियत संघ ने कारमल को हटाकर उनकी जगह नजीबुल्लाह को बिठा दिया था लेकिन अमेरिका करजई को छू भी नहीं सकता, क्योंकि करजई दो-दो बार अफगान जनता द्वारा चुने हुए राष्ट्रपति हैं।
तो क्या होगा ?
क्या यह युद्ध अनंत काल तक चलता रहेगा ? क्या विदेशी सेनाएं अनिश्चित समयतक अफगानिस्तान में पड़ी रही रहेंगी ? क्या अमेरिका लगातार अरबों – खरबोंडॉलर बहाता रहेगा ? अभी तो यही होता हुआ लग रहा है। अफगानिस्तान कीसमस्या का हल कैसे हो , यह किसी को साफ – साफ पता नहीं है। लेकिन एक बातबिल्कुल स्पष्ट हो गई है। वह यह कि अफगान जनता विदेशी फौजों की तत्कालविदाई चाहती है। लेकिन यहां असली प्रश्न यह है कि ऐसा कौन सा रास्ता है किसांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटे ? विदेशी फौजें भी चली जाएं , तालिबानको भी काबू कर लिया जाए और अफगानिस्तान में सुशासन भी आ जाए। इनलक्ष्यों की पूर्ति के लिए कुछ हद तक करजई ने सही पहल की है। उन्होंने पूर्वराष्ट्रपति बुरहानुद्दीन रब्बानी के नेतृत्व में 70 प्रमुख लोगों की एक कमेटी बना दीहै , जो तालिबान से बात करेगी।
इस कमेटी में कई पूर्व तालिबान भी हैं। तालिबान नेता मुल्ला उमर ने इस पहलको एकदम रद्द कर दिया है लेकिन इसका एक फायदा करजई को जरूर मिलरहा है। वह यह कि तालिबान के प्रति गुप्त सहानुभूति रखनेवाले कुछ पठान तबकोंमें सरकार के प्रति नाराजगी कुछ कम हुई है। विदेशी फौजों के बारे में सख्त बयानदेकर करजई वैसे भी लोकप्रियता अर्जित कर रहे हैं। जहां तक विदेशी फौजों काप्रश्न है , यदि उन्हें अचानक हटा लिया जाए तो अफगानिस्तान में अराजकता फैलजाएगी।
वापसी का बेहतर विकल्प
ऐसी स्थिति में एक ही समाधान हो सकता है। वह यह कि अगले एक साल में पांचलाख जवानों की एक अफगान राष्ट्रीय सेना खड़ी की जाए , जिसका जिम्मा भारतले और उसका सारा खर्च नाटो देश उठाएं। यह खर्च उनके कुल खर्च का शतांश भीनहीं होगा। अफगानिस्तान के लगभग सभी बेरोजगार नौजवानों को काम मिलेगा।खाली दिमाग , शैतान का घर नहीं बनेगा। हर गांव और कस्बा सुरक्षित होजाएगा। इस योजना पर पिछले हफ्ते काबुल में जब राष्ट्रपति करज़ई से मेरीविस्तृत बातचीत हुई तो उन्होंने कहा , ‘ हम तो इसके लिए तैयार हैं। आप अपनेलोगों से पूछिए कि वे तैयार हैं कि नहीं ?’ इस मामले में भारत औरअफगानिस्तान की बजाय अमेरिका का तैयार होना कहीं अधिक जरूरी है। उसकीसहमति और सहयोग के बिना यह योजना लागू नहीं हो सकती। यदि अमेरिकाअफगानिस्तान से ससम्मान लौटना चाहता है तो इससे बढि़या विकल्प उसके पासकोई और नहीं है।
( लेखक अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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