दैनिक भास्कर (दिल्ली, 16 फरवरी 2011) : लगभग ढाई साल के अंतराल के बाद भारत-पाक वार्ता दुबारा शुरू करने कीघोषणा हुई है| दोनों देशों के विदेश सचिव थिंपू में मिले और वे मान गए कि बातचीत के अलावा कोई चारा नहीं है| योंबातचीत तो भारत ने ही बंद की थी, मुंबई-हमले के बाद ! क्या कहकर बंद की थी ? यह कि जब तक पाकिस्तान अपनेआतंकवादियों को सजा नहीं देगा और उन्हें हमारे हवाले नहीं करेगा, बातचीत शुरू नहीं होगी| पाकिस्तान ने कुछ भी नहींकिया, फिर भी बातचीत शुरू हो रही है याने भारत झुक रहा है|
भारत क्यों झुक रहा है ? शायद उसके पीछे कोई दूरदृष्टि है| इसके बारे में अंत में चर्चा करेंगे| पहले यहाँ यह जानना जरूरी हैकि पाकिस्तान की असली सरकार इस्लामाबाद में नहीं, रावलपिंडी में बैठती है| फौज का मुख्यालय ही पाकिस्तान की भारत-नीति तय करता है| थिंपू-समझौते के बाद भारत की विदेश सचिव निरूपमा राव के बयान से ऐसा संकेत मिलता है कि इसदुबारा शुरू होनेवाली वार्ता को फौज और आई.एस.आई. का भी समर्थन है| पाकिस्तानी फौज और आईएसआई क्यों राजी हुएहोंगे ? इसके कई कारण हो सकते हैं|
पहला तो यही कि भारत-पाक वार्तां से पाकिस्तानी फौज को कोई सीधा नुकसान नहीं है| स्वयं फौज कोई मुद्दा नहीं है| भारतने आज तक यह मुद्दा कभी उठाया ही नहीं कि छोटे-से पाकिस्तान को इतनी बड़ी फौज की जरूरत क्यों है ? यदि दोनों देशोंके बीच आप शांति चाहते हैं तो आप अपनी फौज और उस पर किए जा रहे खर्च को आधा कीजिए, यह कहने की हिम्मत आजतक किसी भी भारत सरकार ने नहीं की ! यदि हम पाकिस्तान की जनता के सच्चे हमदर्द हों तो यह सवाल हमें जरूर उठानाचाहिए लेकिन हम नहीं उठाते हैं, इसीलिए फौज को भारत-पाक वार्ता से कोई डर नहीं है|
दूसरा, पाकिस्तानी फौज को पता है कि उसकी सरकार कोई भी समझौता कर ले, उसे वह फौज की अनुमति के बिना लागूनहीं कर सकती| जब तक जनरल मुशर्रफ और जनरल जि़या सिरमौर थे, सरकारी फैसलों पर अमल हो सकता था लेकिनअब उन पर अमल कौन करवा सकता है ? इसीलिए खाली-पीली बातचीत का ढोल पिटता रहे तो पिटता रहे, फौज का परनालातो वहीं बहता रहेगा|
तीसरा, पाकिस्तानी फौज पर इस समय अमेरिका का दबाव सबसे ज्यादा है| यदि अमेरिका टंेटुआ कस दे तो पाकिस्तानीफौज के होश फाख्ता होने में कितनी देर लगेगी| अमेरिकी डॉलर आना बंद हो जाएं तो पाकिस्तानी सरकार अपने फौजियों कोनियमित वेतन देने की हालत में भी नहीं है|
चौथा, द्विपक्षीय बातचीत फौज के लिए तो एक सुरक्षा-पर्दे का काम करती है| इधर बातचीत का ढोंग चलता रहे और उधरभारत पर आतंकवादी हमलों की साजिश होती रहे| जब मुंबई-हमला हुआ और उसके पहले भारत की संसद पर हमला हुआतो क्या बातचीत नहीं चल रही थी ? अब भी क्या गारंटी है कि निकट भविष्य में भारत पर कोई बड़ा आतंकवादी हमला नहींहोगा ? क्या पाकिस्तानी सरकार हमें बता सकती है कि यदि अचानक कोई आतंकवादी हमला भारत पर हो गया तो वह क्या-क्या कदम उठाएगी ? उसे यह तो पता होना ही चाहिए कि यदि इस बार कोई मुंबई-जैसी घटना हो गई तो भारत चुप नहीं बैठपाएगा| यदि भारत सरकार सिर्फ जबानी जमा-खर्च करती रही तो उसका कारोबार ठप्प हो जाएगा|
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि भारत-पाक वार्ता शुरू ही न हो| चलते हुए युद्घ के बीच भी वार्ता होती रहती है| वार्ता तोकूटनीति की प्राणवायु है लेकिन भारत-पाक वार्ता के बारे में हमें बहुत आशावादी होने की जरूरत नहीं है| भारत का मुंह पूरबकी तरफ है तो पाकिस्तान का मुंह पश्चिम की तरफ है| भारत का मुद्दा आतंकवाद है जबकि पाकिस्तान का मुद्दा कश्मीर औरसिर्फ कश्मीर है| जब तक पाकिस्तान में फौज का वर्चस्व है, वह राग-कश्मीर अलापती रहेगी, क्योंकि यही राग उसके वर्चस्वका आधार है| भारत-भय को पाकिस्तानी दिमागों में जमाए रखने के लिए फौज कश्मीर और बांग्लादेश की माला जपती रहतीहै| अमेरिकियों की जेब काटने के लिए पहले अल्लाहताला ने काबुल में कम्युनिस्ट सरकारें भेज दी थीं और आजकलअलक़ायदा और तालिबान के बहाने पाकिस्तानी फौज की पौ-बारह है| कोई आश्चर्य नहीं कि भारत और पाकिस्तान, इन दोनोंदेशों को अमेरिकी सरकार बातचीत के लिए मजबूर कर रही हो लेकिन यह ध्रुव-सत्य हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए किपाकिस्तान के साथ भारत के संबंध तब तक सहज नहीं होंगे, जब तक कि पाकिस्तान के सिर पर से अमेरिका और चीन कीछत्र्छाया नहीं हटेगी| अमेरिका अपने स्वार्थ में अंधा हुआ जा रहा है और चीन भारत-ईष्या से ग्रस्त है| इन दोनों महाशक्तियोंको पाकिस्तान अपनी रखैल से भी अधिक पि्रय है| जिस दिन पाकिस्तान स्वायत्त हो जाएगा, अपने पांव पर खड़ा हो जाएगा, उस दिन दो बातें एक साथ होंगी| एक तो पाकिस्तान में लोकतंत्र् का परचम लहराएगा और दूसरा, भारत से उसके संबंध सहजहो जांएगें|
जब तक ऐसा नहीं हो, क्या किया जाए ? कुट्रटी ठीक नहीं | बातचीत चलाए रखी जाए| इस बातचीत से दो बड़े फायदे होसकते हैं, जिनका दोनों देशों के आपसी मामलों से सीधा संबंध नहीं है| एक तो दक्षेस का रूका हुआ पहिया जरा आगे बढ़ेगाऔर दूसरा, अफगानिस्तान को लेकर दोनों में कुछ आपसी समझदारी पैदा हो सकती है| अमेरिकी वापसी के बाद सबसे बड़ीआश्ंाका यह है कि अफगानिस्तान भारत-पाक प्रतिस्पर्धा का अखाड़ा बन सकता है| यदि भारत और पाक आजकलबातचीत करते रहें तो यह असंभव नहीं कि दोनों मिलकर पांच लाख अफगानों की फौज खड़ी कर दें, जो तालिबान औरअलक़ायदा से अपने आप निपट लेगी| अमेरिका के लिए इससे ज्यादा फायदे का सौदा कोई और नहीं हो सकता| तीसरे देशके बारे में ऐसी आपसी समझदारी संपूर्ण भारत-पाक संबंधों का नक्शा ही बदल सकती हैै| इस बड़े लक्ष्य-संधान के लिए अगरभारत झुकता हुआ दिखाई पड़ रहा है तो इसमें भी कोई बुराई नहीं है|
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)
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