Dainik Bhaskar, May 2004 : जैसा अजूबा इस बार हुआ, पहले कभी नहीं हुआ| इस चुनाव में कोई ऑंधी नहीं आई जैसी कि 1971 के गरीबी हटाओ, 1977 के इंदिरा हटाओ और 1984 के इंदिरा-बलिदान चुनाव में आई थी| अन्य चुनावों में भी जो परिणाम आए थे, उनका लगभग सही अंदाजा लोगों को लग गया था लेकिन इन चुनावों ने सारे चुनावी-विशेषज्ञों, राजनीतिक विश्लेषकों और खुद नेताओं को हतप्रभ कर दिया है| जीतनेवालों को यह पल्ले नहीं पड़ रहा कि वे जीते क्यों और हारनेवाले यह नहीं समझ पा रहे कि वे हारे क्यों? यह चुनाव ऑंधी नहीं है लेकिन इसका असर किसी भी ऑंधी से अधिक है| यह ऑंधी नहीं, हिम-प्रलय है| ऑंधी उड़ा ले जाती है| हिम-प्रलय जमा देता है| जडत्र् बना देता है| सारे नेता जड़े हुए चित्र की तरह हतप्रभ हैं और पूछ रहे हैं कि भारत की जनता ने आखिर यह किया क्या है? क्या उसने वाजपेयी को अलग किया है और सोनिया को तिलक किया है? क्या उसने भाजपा को अस्वीकार किया है और कॉंग्रेस को स्वीकार किया है? क्या उसने सांप्रदायिकता को ठुकराया है और धर्म-निरपेक्षता को गले लगाया है?
यदि मोटी बुद्घि से सोचें तो उक्त तीनों प्रश्नों के जवाब ‘हॉं’ होंगे लेकिन जरा गहरे उतरें तो मालूम पड़ेगा कि सड़क के बीच पसरे हुए हाथियों पर राहगीरों ने नजर तक नहीं डाली और वे साथ की बाइलेनों से आगे निकल गए| क्या सारे भारत में हम कोई एक भी प्रांत ऐसा खोज सकते हैं, जिसमें वाजपेयी या सोनिया-तत्व की भूमिका निर्णायक रही हो? क्या इस चुनाव मंे इन दोनों नेताओं की भूमिका की तुलना नेहरू, इंदिरा गॉंधी या विश्वनाथप्रताप सिंह की भूमिकाओं से की जा सकती है? क्या भारत के लोगों ने वाजपेयी या सोनिया के नाम पर मतदान किया है? सच्चाई तो यह है कि उन्होंने इस अदा से वोट डाले हैं कि मानो वाजपेयी और सोनिया नाम की कोई चिडि़या ही नहीं है| अगर यह सच नहीं होता तो हम पंजाब और हरयाणा का अर्थ ही नहीं समझ पाते| ये दोनों राज्य एक-दूसरे से सटे हुए हैं लेकिन एक में भाजपा ने सॅूंपड़ा साफ कर दिया और दूसरे में कॉंग्रेस ने ! इसी प्रकार कर्नाटक और आंध्र जुड़े हुए हैं लेकिन एक में कॉंग्रेस का सूर्य अस्त हो गया और दूसरे में उदय हो गया| केरल और तमिलनाडु जुड़े हुए हैं लेकिन दोनों राज्यों के परिणाम एकदम उलट हैं| यदि सोनिया या वाजपेयी की थोड़ी-सी भी लहर होती तो वह कम से कम पड़ौसी राज्यों की सीमा तो लॉंघती| यह तो गनीमत है कि दोनों नेता अपनी-अपनी सीटों पर अच्छे वोटों से जीत गए, वरना उत्तर प्रदेश में ही दोनों मात खा गए हैं| कॉंग्रेस चौथे नम्बर पर चली गई और भाजपा तीसरे नम्बर पर ! दोनों नेता जीते लेकिन नेता की तरह नहीं, किसी भी अन्य सांसद की तरह ! वे अपने आस-पास की सीटें ही नहीं जिता सके तो आस-पास के राज्यों में कोई जलवा कैसे दिखाते? इस चुनाव के बाद प्रधानमंत्री और विपक्ष के नेता की कुर्सियॉं तो जरूर भरी जाऍंगी लेकिन भारत के नेता का पद क्या खाली नहीं रह जाएगा?
इस चुनाव ने भारतीय राजनीति को थेगलेवाली गुदड़ी बना दिया है| अगर थेगले हटा लिए जाऍं तो गुदड़ी को छलनी बनने में कितनी देर लगेगी? यदि आंध्र से राजशेखर रेड्डी, दिल्ली से शीला दीक्षित, तमिलनाडु से करुणानिधि और बिहार से लालू को हटा लिया जाए तो सोनिया गॉंधी का वजन कितना रह जाएगा? इन राज्यों में कॉंग्रेस की जीत का श्रेय किसे है? क्या सोनिया गॉंधी को? इसी प्रकार मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और कर्नाटक में भाजपा की जीत का श्रेय का श्री अटलबिहारी वाजपेयी को है? यदि होता तो उत्तर-प्रदेश में वे फिसड्डी क्यों हो गए? हरयाणा और हिमाचल में वे क्यों फिसल गए? इन प्रदेशों में भाजपा की जीत का श्रेय उन कॉंग्रेसी मुख्यमंत्र्िायों को है जिनके कुराज की स्मृतियॉं लोगों के दिलो-दिमाग में अब भी हैं| लगभग सभी राज्यों में लोकसभा चुनाव इस तरह लड़े गए मानो वे विधानसभा के चुनाव हों| लोगों के कानों में दिल्ली की आवाज़ पहुॅंची ही नहीं| उन्होंने दिल्ली की आवाज पर नहीं, अपने दिल की आवाज पर वोट दिया| उन्होंने हर अहंकारी को सबक सिखाया| पंजाब में अमरेन्द्र ने बादल के साथ और तमिलनाडु में जयललिता ने करुणानिधि के साथ जो बर्ताव किया, उसकी सजा उन्हें मिली| चंद्रबाबू नायडू और एस.एम. कृष्णा हाइटैक के घोड़े पर सवार थे| सरपट दौड़े चले जा रहे थे| उन्हें चिंता नहीं थी कि उनके टापों तले किसान-मजदूर रौंदे जा रहे हैं| आम लोगों ने इन दोनों महान मुख्यमंत्र्िायों को रौंद डाला| नखरे छॉंटनेवाली तृणमूल नेता ममता की हालत तृण (तिनके) जैसी हो गई है| एन्टनी और करुणाकरण के घरेलू दंगल ने केरल में कॉंग्रेस की स्थिति करुणाजनक बना दी है| लालू और नवीन पटनायक का टिका रहना भी स्थानीय कारणों से ही संभव हुआ है| कहने का तात्पर्य यह कि इस चुनाव में अखिल भारतीय कारण हाशिए में चले गए और स्थानीय कारण मुख्यधारा बन गए| सासू छोटी हो गई और बहू बड़ी बन गई|
स्थानीय बादलों को वोटों की वर्षा में बदलने का काम किया, गठबंधन की राजनीति ने ! यदि सोनिया गॉंधी पचमढ़ी की मढि़या से बाहर नहीं निकलतीं और करुणानिधि, तेलंगाना राष्ट्र समिति, शरद पवार, लालू वगैरह से हाथ नहीं मिलातीं तो कॉंग्रेस 100 सदस्यों के ऑंकड़े पर ही अटक जाती और कल्पना कीजिए कि करुणानिधि, चौटाला, मायावती, फारुक आदि अब भी भाजपा के साथ होते तो क्या उसकी यह दुर्दशा होती? इन दोनों अखिल भारतीय दलों की असली हैसियत क्या है, यह अगर उन्हें अब भी पता नहीं चला तो इसे देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा| इन चुनावों ने सिद्घ कर दिया है कि देश को इस समय एक अखिल भारतीय दल और अखिल भारतीय नेता की सख्त जरूरत है|
यह चुनाव भी कैसा गजब का चुनाव था कि बिना किसी मुद्दे के ही निपट गया| न नेता मुद्रदा बन पाए, न विकास या गरीबी मुद्दा बनी, न कोई नारे चल पाए| फील गुड और शाइनिंग इंडिया के शो केस तो दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता और हैदराबाद में थे लेकिन वहॉं भी भाजपा की बत्ती गुल हो गई| ग्रामीण और गरीब भाजपा को वोट क्यों देते लेकिन फीलगुडवाले शहरियों ने भी उसे धोखा दे दिया| धर्मनिरपेक्षता भी मुद्दा नहीं बनी| अगर बनती तो गुजरात में नरेंद्र मोदी क्यों पिटते? मोदी पिटे अपने कुशासन और अहंकार के कारण ! धर्मनिरपेक्षता का असर म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ़ में क्यों नहीं हुआ? क्या वहॉं उदार हिन्दू नहीं रहते? जहॉं जो भी असर हुआ है, उसके पीछे स्थानीय कारण हैं| बड़ी कुर्सी पानेवाले और खोनेवाले लोग स्थानीय नहीं हैं| वे अखिल भारतीय हैं लेकिन सेंत-मेंत में हैं| न उनके किए से कुछ हुआ है और नही जनता ने उन्हें हटाया या बैठाया है| वे असंगत साबित हुए है| राष्ट्रीय स्तर पर संगत साबित होने के लिए कुर्सी पानेवालों को उतनी ही मेहनत करनी पड़ेगी, जितनी खोनेवालों को करनी है|
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