R Sahara 5 Dec 2004 : रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन अगर ढुलमुल हैं तो बुश और ब्लेयर के क्या कहने? अमेरिका और बि्रटेन ने कभी नहीं माना कि भारत सुरक्षा परिषद् का स्थायी सदस्य बन सकता है| अब तो लगता है कि चीन और फ्रांस भी इस मिलीभगत में शामिल हैं| फ्रांस खुले-आम भारत का समर्थन करता रहा है और चीन ने भी अक्तूबर में संकेत दिए थे कि वह भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन कर सकता है लेकिन अब तो लगता है कि सुरक्षा परिषद्र के पॉंचों सदस्य ढांेग कर रहे हैं| कोई नहीं चाहता कि सुरक्षा परिषद्र के नए स्थायी सदस्यों को वीटो का अधिकार मिले| वीटो के अधिकार का मतलब है कि वीटोधारी केवल एक सदस्य भी यदि चाहे तो पूरी सुरक्षा परिषद् को कोई भी निर्णय करने से रोक सकता है| अमेरिका, बि्रटेन, फ्रांस, चीन और रूस यह अधिकार अन्य नए स्थायी सदस्यों को इसलिए नहीं देना चाहते हैं कि देने का मतलब होगा – विश्व शक्ति-संतुलन का पुनर्निर्धारण ! यह निर्धारण 1945 में तलवार के जोर पर हुआ था| द्वितीय महायुद्घ में जीते हुए राष्ट्रों ने खुद को सबसे अधिक शक्ति के सिंहासन पर बिठा लिया और हारे हुए राष्ट्रों – जर्मनी, इटली और जापान को बरामदे में खड़ा कर दिया|
अब सुरक्षा परिषद्र के पुनर्निर्माण के बारे में जो रपट आई है,उसने दो विकल्प दिए हैं| एक तो छह नए स्थायी सदस्य बनाए जाऍं लेकिन उन्हें वीटो न दिया जाए और दूसरा, नए आठ सदस्य बनाए जाऍं और उन्हें चारवर्षीय अवधि दी जाए| ये दोनों प्रस्ताव नख-दंतहीन हैं| ऐसे हैं, जैसे आप किसी को कहें कि मैं तुम्हें तलवार दे रहा हॅूं लेकिन उसे सिर्फ लकड़ी का हत्था पकड़ा दें और लोहे का फल अपने पास रख लें| विदेशमंत्री नटवरसिंह ने इन नए प्रस्तावों को रद्द किया, बिल्कुल ठीक किया| क्या ये प्रस्ताव सं.रा. की कमेटी ने हवा में से पकड़ लिए हैं? नहीं, उसने सबसे पहले पॉंचों महाशक्तियों से सलाह-मश्वरा किया होगा| उनकी सर्वसम्मति के बिना ये प्रस्ताव तैयार हो ही नहीं सकते| अगर होते तो भारत के परम मित्र रूस के राष्ट्रपति को हकलाना क्यों पड़ता? पूतिन ने साफ़-साफ़ कह दिया है कि नए स्थायी सदस्यों को यदि वीटो दिया गया तो सुरक्षा परिषद्र वाद-विवाद परिषद्र बन जाएगी| उसका महत्व घट जाएगा|
पूतिन अपने ही पॉंव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं| वे यह नहीं समझ पा रहे कि यदि नए स्थायी सदस्यों को वीटो मिलेगा तो रूस और चीन जैसे देशों के ही हाथ मजबूत होंगे| इस एक धु्रवीय दुनिया में अकेला रूस क्या कर लेगा? क्या वह अकेला अमेरिका को एराक में घुसने से रोक पाया? क्या उसमें इतना दम है कि अगर कल अमेरिका ईरान में घुसना चाहेगा तो वह उसे रोक लेगा? यदि भारत जैसे देश के हाथ में वीटो होगा तो वह प्राय: रूस के समर्थन में ही प्रयुक्त होगा| तीसरी दुनिया में भारत का अपना स्थान है| क्या तीसरी दुनिया (एशिया, अफ्रीका, लातीनी अमेरिका), जो सबसे बड़ी दुनिया है, उसे सं.रा. में कोई निर्णायक भूमिका नहीं मिलेगी? नए सदस्यों को वीटो से वंचित करना विश्व में एकधु्रवीयता को परिपुष्ट करना है| अमेरिकी दादागीरी को अभेद्य बनाना है|
सं.रा. के ये सुझाव शुद्घ भारत-विरोधी हैं| संभावित नए सदस्यों में जापान, जर्मनी, ब्राज़ील और नाइजीरिया या दक्षिण अफ्रीका के नाम हैं| इनमें से कौन-सा ऐसा सदस्य है, जो अमेरिका का विरोध कर सकता है? कोई नहीं| ये सदस्य घूम-फिरकर अमेरिका की छॉंव-तले बैठ जाऍंगे| अकेला भारत ही है, जो स्वविवेक का प्रयोग कर सकता है| स्थायी सदस्य अगर किसी से डरे हुए हैं तो सिर्फ भारत से डरे हुए हैं| महाशक्तियॉं नहीं चाहतीं कि विश्व-प्रबंधन में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका हो| इसीलिए वे भारत को खाली झुनझुना थमा रही हैं| इस मौके पर हम रूस और चीन से आशा करते हैं कि वे भारत का साथ देंगे और इस रपट को रद्द करेंगे| यदि वे ऐसा करेंगे तो भारत, चीन और रूस मिलकर विश्व-शक्ति संतुलन को तो ठीक करेंगे ही, तीनों को एक-दूसरे के बहुत नज़दीक ले आऍंगे|
हमारी संसद में आया यह सुझाव मानने लायक नहीं है कि भारत स्थायी सदस्यता ले ले और वीटो के लिए बाद में लड़ता रहे| इस तरह की सौदेबाजी भारत को शोभा नहीं देती| यह रवैया भारत को कमजोर कर देगा| जर्मनी और जापान अगर इसी पर आमादा हैं तो उन्हें जूठन चाटने दें| उन्हें वीटो मिल भी जाता तो वे क्या कर लेते? भारत अपनी नियति पहचाने| उसे दुमछल्ला राष्ट्र नहीं बनना है| यदि अगले पॉंच-दस साल भारत सुरक्षा परिषद्र का स्थायी सदस्य नहीं भी बना तो उसका क्या बिगड़नेवाला है? जो बात वह अंदर बैठकर बोलेगा, वही वह बाहर खड़े रहकर भी बोल सकता है| बाहरवाले की आज़ादी ज्यादा बड़ी होती है| जब वीटो का अधिकार ही नहीं है तो क्या अंदर और क्या बाहर? चीन 25 साल बाहर रहा लेकिन उसने बाहर से चिल्ला-चिल्लाकर विश्व-दादाओं की नींद हराम कर दी थी| शायद भारत को भी वही रास्ता अपनाना पड़े लेकिन सशक्त राष्ट्रीय नेतृत्व के बिना इस छुरे की धार पर चलना आसान नहीं है| भारत को अपनी आर्थिक और सैनिक शक्ति में लगातार वृद्घि करनी होगी और उसी तरह दहाड़ना होगा, जैसे कभी माओ त्से तुंग दहाड़ा करते थे| यदि भारत शक्तिशाली होता गया तो खुद सुरक्षा परिषद् भारत से अनुरोध करेगी, वह उसे कृतार्थ करे| जो शक्ति-प्रदर्शन वह बाहर रहकर कर रहा है, वह अंदर आकर करे| इस बिंदु तक पहॅुंचने के लिए भारत के पास प्रचंड इच्छाशक्ति होनी चाहिए| तलवार का जोर पैदा किए बिना सुरक्षा परिषद् में बैठना भी क्या बैठना है? यदि भारत को वीटो भी मिल जाए और उसके पास तलवार का जोर न हो तो उसकी हालत क्या फ्रांस और बि्रटेन जैसे दुमछल्लों की तरह नहीं हो जाएगी? उसके पास वीटो तो रहेगा लेकिन उसके प्रयोग की हिम्मत नहीं रहेगी| यदि हिम्मत होगी तो वीटो उसके पास खुद ही चला आएगा|
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