Rashtriya Sahara, 3 Nov 2010 : ओबामा की भारत-यात्रा के दौरान क्या भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने का आश्वासन मिलेगा? यदि मिलेगा तो भी काफी घुमा-फिराकर। फ्रांस और ब्रिटेन की तरह अमेरिका साफ-साफ बोलने से कतराता है। क्यों? इसलिए कि भारत ने पिछले छह दशकों में संयुक्त राष्ट्र महासभा में और सुरक्षा परिषद में अस्थायी सदस्य के तौर पर जिनती बार भी मतदान किया उसका 90 प्रतिशत अमेरिका के पक्ष में नहीं था। या तो उसके विरुद्ध था या परिवर्तन (एब्सटैन) था या भारत ने मतदान में भाग नहीं लिया। भारत की स्वतंत्र नीति से अमेरिका कभी-कभी इतना खफा हुआ कि जॉन फास्टर डलेस जैसे अमेरिकी विदेश मंत्री भारत जैसे राष्ट्रों को सोवियत खेमे का देश मानने लगे थे और गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों को कोढ़ी राष्ट्र कहा करते थे। अब भी जबकि भारत को अमेरिका अपना सामरिक सहयोगी राष्ट्र घोषित करता है और दोनों राष्ट्रों ने परमाणु सौदा भी कर लिया है, अमेरिका के मन में संशय बना हुआ है। हाल ही में ओबामा प्रशासन के एक प्रवक्ता ने वाशिंगटन डीसी में कहा है कि भारत में सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने की योग्यता तो है लेकिन वह अगले कुछ समय तक उसके आचरण को तोलेगा।
भारत अभी-अभी सुरक्षा परिषद की अस्थायी सदस्यता का चुनाव जीता है। उसे प्रचंड बहुमत मिला है। भारत की जगह अमेरिका होता तो भी शायद उसे इतने वोट नहीं मिलते। अस्थायी सदस्यता के इन अगले दो वर्षों में अमेरिका यह देखेगा कि भारत किस हद तक उसका पक्ष लेता है। आजकल भारत सरकार का जैसा रवैया है, वह अमेरिका की इच्छापूर्ति की पूरी कोशिश करेगी लेकिन भारत कोई छोटी-सी चिडिय़ा नहीं है जो जब चाहे उड़कर किसी भी डाल पर बैठ जाए। वह विशालकाय हाथी की तरह है जिसे अपना रास्ता बदलने से पहले दस बार सोचना पड़ता है। जाहिर है कि यदि अमेरिका भारत को घुटनेटेकू मुद्रा में लाने की कोशिश करेगा तो वह बिल्कुल विफल होगा। यदि अमेरिका यह आस लगाए बैठा है कि भारत आंख मींचकर परमाणु अप्रसार संधि और समग्र परमाणु परीक्षण संधि पर दस्तख्त कर देगा तो उसे निश्चय ही निराश होना पड़ेगा। इसी प्रकार भारत फलस्तीन-इस्राइल मामले में भी अमेरिका का अंध-समर्थन नहीं कर पाएगा। भारत के लिए उचित यही होगा कि वह अपनी परखी हुई सुपरिचित नीति पर ही चले, चाहे उसे अमेरिकी समर्थन मिले या न मिले। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता आज नहीं तो कल, भारत के पास आनी ही आनी है।
दुनिया की पांच महाशक्तियों की इस महफिल में बैठने से भारत को अब कोई रोक नहीं सकता। इसके कई कारण हैं। पहला, भारत परमाणु महाशक्ति बन चुका है। जो पांच राष्ट्र सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, रूस और चीन—वे सब परमाणु शक्ति-संपन्न हैं। भारत छठा ऐसा राष्ट्र है जिसने वैध तरीके से परमाणु हथियार बनाये हैं। पाकिस्तान सातवां परमाणु राष्ट्र जरूर है लेकिन वह हैसियत उसने चोरी-चकारी से प्राप्त की है। इसलिए अमेरिका ने उसके साथ अभी तक कोई गैर-फौजी परमाणु सौदा नहीं किया है। भारत के साथ हुआ अमेरिका का परमाणु-सौदा उसके छठी महाशक्ति होने के दावे को मजबूत करता है। सारी दुनिया भारत को एक वैध और शांतिपूर्ण परमाणु महाशक्ति मानती है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण है, जापान के साथ किया गया भारत का ताजा परमाणु समझौता। यदि परमाणु शक्ति होना आवश्यक शर्त है तो भारत इस शर्त को पूरा करता है।
दूसरा, सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का अर्थ है, दुनिया की एक बटे छह आबादी का सही प्रतिनिधित्व। एक अरब 20 करोड़ लोग विश्व के शक्ति केंद्र से अगर अलग रहें तो वह शक्ति-केंद्र ही क्या है? भारत की सदस्यता सुरक्षा परिषद के प्रतिनिधि स्वरूप में चार-चांद लगाएगी। यदि चीन को छोड़ दें तो शेष चारों स्थायी सदस्य मिलकर भी जनसंख्या की दृष्टिï से भारत से हल्के पड़ते हैं।
तीसरा, भारत की स्थायी सदस्यता का अर्थ है, संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा लोकतंत्र को प्रणाम! भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। अमेरिका के लिए इससे बढ़कर आनंद की बात क्या होगी कि उसके राष्ट्रीय लक्ष्य का सबसे बड़ा समर्थक सुरक्षा परिषद में उसके साथ बैठेगा।
चौथा, भारत आज भी गुट-निरपेक्ष आंदोलन का सबसे बड़ा नेता है। हालांकि, शीत-युद्ध समाप्त हो चुका है लेकिन अमेरिकन नीतियों के प्रति तीसरी दुनिया के देशों में संभ्रम बना रहता है। यदि भारत सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्य की तरह बैठेगा तो उसके दो सुपरिणाम होंगे। एक तो तीसरी दुनिया के लगभग 150 राष्ट्रों को विश्व शक्ति-केंद्र के साथ भागीदारी का भाव पैदा होगा और दूसरा अमेरिका की सही नीतियों के लिए समर्थन जुटाने में भारत की महत्वपूर्ण भूमिका हो सकती है।
पांचवां, आर्थिक दृष्टि से भारत इतनी ते$जी से आगे बढ़ रहा है कि कुछ वर्षों में ही भारत दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बन जाएगा। उसकी उपेक्षा करके क्या विश्व अर्थ-व्यवस्था सही दिशा में चल पाएगी? अमेरिका की घटती हुई शक्ति के दौर में चीन के मुकाबले भारत अधिक भरोसेमंद भागीदार साबित हो सकता है। यदि भारत की स्थायी सदस्यता के लिए अमेरिका जोर लगाएगा तो भारत-अमेरिका संबंध घनिष्ठï हुए बिना नहीं रहेंगे।
छठा, कुछ ही वर्षों में दक्षिण एशिया के दर्जनभर राष्ट्र यूरोपीय संघ की तरह एकजुट होकर उभरेंगे। इनकी कमान भारत के हाथ में होगी। यदि अमेरिका आतंकवाद का अंत चाहता है, ईरान को मर्यादा में रखना चाहता है और मध्य एशिया के राष्टï्रों का संपत्ति-दोहन करना चाहता है तो इन लक्ष्यों की पूर्ति में भारत से बढ़कर उसका सहयोगी कौन हो सकता है? इस समय अमेरिका कई मामलों में चीन पर निर्भर है। यदि चीन से उसकी प्रतिस्पर्धा छिड़ गई तो भारत से ज्यादा उसका साथ कौन दे सकता है?
सातवां, भारत की सैन्य-शक्ति का निरंतर विकास हो रहा है। चाहे अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी का सवाल हो, हिंद महासागर, अरब सागर और खाड़ी की सुरक्षा की चिंता हो या मध्य एशियाई गणतंत्रों की स्थिरता का प्रश्र हो, इस क्षेत्र में भारत की सुरक्षा-भूमिका अनन्य होगी। सुरक्षा-परिषद को उसका नया स्तंभ मिलेगा। इस अवसर को वह क्यों गंवाए? भारत ने अब तक लगभग दो दर्जन राष्ट्रों में सुरक्षा परिषद के कहने पर अपनी सेनाएं भेजी हैं। भारत की इस अंतर्राष्ट्रीय सैन्य भूमिका की सर्वत्र सराहना हुई है।
आठवां, अब से 65 साल पहले बना संयुक्त राष्ट्र संघ और उसकी सुरक्षा परिषद वर्तमान विश्व के हिसाब से काफी पिछड़ते जा रहे हैं। इस समय सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता में ही फेरबदल करना काफी नहीं है, संयुक्त राष्ट्र संघ के पूरे ढांचे और उसकी कार्यप्रणाली में बहुत से बुनियादी परिवर्तनों की जरूरत है। स्वयं संयुक्त राष्ट्र संघ और अनेक महत्वपूर्ण राष्ट्रों ने इस बारे में अपनी चिंताएं प्रकट की हैं। विशेषज्ञों ने अच्छी-खासी रपटें भी तैयार की हैं। यदि इन रपटों के आधार पर बुनियादी परिवर्तन की मुहिम चली तो भारत को सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनने से कौन रोक सकता है? इस वक्त सबसे अच्छी बात यह है कि अस्थायी सदस्यों के तौर पर भारत के साथ-साथ जापान, द. अफ्रीका, ब्राजील आदि देश भी सुरक्षा परिषद में हैं। ये सब मिलकर प्रयत्न करें तो इस विश्व-संस्था का नवोदय हो सकता है।
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