दैनिक भास्कर, 14 अक्टूबर 2009 : क्या यह आखिरी हमला है ? सवा साल में यह दूसरा हमला है| यदि हमारे काबुल के दूतावास पर किलेनुमा दीवारें खड़ी नहीं की जातीं तो इस बार पूरा दूतावास ही उड़ जाता| दूतावास तो हमने बचा लिया लेकिन क्या अफगानिस्तान में हम भारत को बचा पाएंगें ? भारत सिर्फ उस दूतावास में ही नहीं है, जो काबुल के शहरे-नव में है| इस समय भारत की उपस्थिति लगभग पूरे अफगानिस्तान में है| भारत के हजारों कार्मिक, डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षक आदि अफगानिस्तान के किन-किन क्षेत्रें में सकि्रय नहीं हैं? हेरात से लेकर जलालाबाद और कुन्दुज़ से लेकर कंधार तक भारतमाता के सपूत अपनी जान पर खेल रहे हैं और अपने अफगान भाइयों की सेवा कर रहे हैं| यह भारत का ही कमाल है कि उसने अफगानिस्तान को उसके बांसठ साल पुराने भौगोलिक बंधन से मुक्त करवा दिया| भारत ने अफगानिस्तान के पश्चिमी सीमांत पर ऐसी सड़क बना दी है, जो इस ज़मीन से घिरे देश को फारस की खाड़ी से जोड़ती है| अब तक अफगानिस्तान से आने और जाने का एक ही सुगम थल-मार्ग था| और वह पाकिस्तान होकर जाता था| पाकिस्तान जब चाहता, उस मार्ग को बंद कर देता था| अब ईरान के जरिए नया मार्ग खुल गया है| पहले अफगानिस्तान एक ही नथुने से सांस लेता था| अब उसके दोनों नथुने चल रहे हैं| इसका श्रेय भारत को है|
यही कारण है कि पाकिस्तान बौखलाया हुआ है| सिर्फ उसकी फौज और गुप्तचर सेवा ही नहीं, उसकी सरकार और उसके व्यापारी भी मानते हैं कि अब अफगानिस्तान को अपनी मुट्ठी में दाबे रखना मुश्किल होगा| इसीलिए जब हमारे दूतावास पर हमले होते हैं और उनके ठोस प्रमाण पाकिस्तानी सरकार को दिए जाते हैं तो उसके सिर पर जूं नहीं रेंगती| पाकिस्तान ने अमेरिका के गले भी यह बात उतार दी है कि अफगानिस्तान में भारत की उपस्थिति से वह नाराज़ है| इस नाराज़गी का कारण क्या है ? भारत कौनसा पाकिस्तानी-विरोधी काम वहां कर रहा है ? क्या वह अफगानिस्तान को पाकिस्तान पर हमला करने के लिए तैयार कर रहा है ? क्या उसने बागी बलूचों और सिंधियों के प्रशिक्षण-शिविर वहां खोल रखे हैं ? क्या वह अफगानिस्तान में कोई फौजी अड्रडा कायम कर रहा है ? दूर-दूर तक इस तरह की कोई संभावना नहीं है| भारत अपने अफगान भाइयों की निस्वार्थ सेवा कर रहा है| अस्पताल, स्कूल, सड़कें और पुल बना रहा है| बिजली और टेलिफोन की लाइनें डाल रहा है| बेराजगार अफगानों को काम-धंधे सिखा रहा है| इन कामों से पाकिस्तान को कौनसा खतरा है ? भारत कोई मालदार देश नहीं है, फिर भी उसने लगभग 6000 करोड़ रू. झोंक दिए हैं| यह ठीक है कि अफगानिस्तान आत्म-निर्भर बनेगा तो पाकिस्तान का पव्वा फीका पड़ेगा लेकिन किसी राष्ट्र के पांव में आप बेडि़यां कैसे डाल सकते हैं ? पाकिस्तान को डर है कि यदि अफगानिस्तान अपने पांव पर खड़ा हो गया तो वह तालिबान-जैसों को उसके सिर पर दुबारा नहीं थोपने देगा| अफगानिस्तान पाकिस्तान का पांचवा प्रांत कभी नहीं बन पाएगा|
इसीलिए अफगानिस्तान से यदि अमेरिकी चले गए तो भी भारतीय ठिकानों पर हमले होते रहेंगे| हमारे दूतावास पर यह हमला पाकिस्तान सरकार ने करवाया हो, यह जरूरी नहीं लेकिन उसके सरकारी संगठनों की मदद के बिना क्या इतना भंयकर और सुनियोजित हमला हो सकता है ? यदि पाक सरकार इस मुद्रदे पर हमारे साथ हो तब भी ये हमले होते चले जाएंगे और बढ़ते चले जाएंगें, क्योंकि उसका अपनी फौज और आई.एस.आई. पर कोई नियंत्र्ण नहीं है| अभी-अभी अमेरिकी कांग्रेस ने जो केरी-लुगार कानून पारित किया है, उसका लक्ष्य यही है कि पाकिस्तानी फौज और आई.एस.आई. ज़रदारी-सरकार के मातहत हो जाए| लेकिन पाकिस्तान के सेनापति ने उसका खुलेआम विरोध कर दिया है| तब भारत क्या करें ? क्या वह सिर्फ नाटो-फौजों पर निर्भर रहे ? नाटो-फौजें पता नहीं कब तक टिकेंगीं ? क्या नाटो फौजों की वापसी होते ही भारत को अफगानिस्तान से भागना होगा ? हमारे गरीब करदाताओं के 6000 करोड़ रू. और दर्जनों कार्मिकों और कूटनीतिज्ञों की जानें क्या व्यर्थ चली जाएंगीं ? नाटो-फौजें अगर टिकी भी रहीं तो उनसे हमें क्या फायदा है ? वे अपने राष्ट्रहितों की रक्षा करेंगी या भारत के राष्ट्रहितों की ? भारत को अपने राष्ट्रहितों की रक्षा स्वयं करनी होगी|
कैसे होगी, यह ? सबसे पहले तो प्रत्येक भारतीय की सुरक्षा का पूर्ण प्रबंध किया जाए| वे अफगान-संस्थाएं, जहां भारतीय काम कर रहे हैं, पूर्णरूपेण सुरक्षित की जाएं| दूसरा, अफगानिस्तान में पांच लाख जवानोंवाली राष्ट्रीय सेना एक साल में खड़ी की जाए| यह काम भारत करे लेकिन इसका सारा खर्चा नाटो-राष्ट्र उठाऍं| यह कदम न सिर्फ बेरोजगारी खत्म करेगा बल्कि तालिबान के साथ जानेवाले नौजवानों की संख्या को एकदम घटा देगा| तीसरा, आतंकवादियों के कारनामों के लिए किसी देश-विशेष को बदनाम करने की बजाय पड़ौसी देशों का संयुक्त मोर्चा बनाया जाए| भारत, ईरान, उज़बेकिस्तान, पाकिस्तान, चीन और रूस मिलकर अपने ‘साझा शत्रु’ से लड़ें| चौथा, नाटो-सेनाओं (इसाफ) की व्यवस्थित वापसी की घोषणा की जाए| आतंकवादियों से लड़ने में विदेशी सेनाएं कभी सफल नहीं हो सकतीं| यह काम अफगान सैनिक करें लेकिन उनके पीछे ‘क्षेत्रीय सेनाओं’ का बल हो| यह रणनीति ही पश्चिमी राष्ट्रों के लिए सच्ची तारणहार है| पांचवा, यदि किसी व्यवस्था के लिए आम अफगान का समर्थन अर्जित करना हो तो उसकी पहली शर्त यह है कि अफगान-राष्ट्र को किसी का मोहरा बना हुआ दिखाई नहीं पड़ना चाहिए| अफगानिस्तान शांत तभी होगा जब वह स्वाधीन होगा|
जहां तक पश्चिमी राष्ट्रों का सवाल है, वे अफगानिस्तान के दल-दल में उसी तरह फंस गए हैं, जैसे कि सोवियत संघ फंसा था| यदि उन्हें भी रूसियों की तरह भागना पड़ा तो उसका सबसे ज्यादा नुकसान यदि किसी राष्ट्र का होगा तो भारत का होगा| इसीलिए अफगानिस्तान मंे भारत का भीगी बिल्ली बने रहना ठीक नहीं है| अमेरिका का दुमछल्ला वह नहीं है लेकिन वैसा दिखाई पड़ना भी ठीक नहीं है| दक्षिण एशिया भारत का अपना इलाका है| इसकी देखभाल और सुरक्षा भारत की ही सबसे बड़ी जिम्मेदारी है| इसीलिए भारत पहल करे| यदि भारत अफगानिस्तान में खुद को नहीं बचाएगा तो उसका भारत में बचना भी किसी दिन मुश्किल हो जाएगा
| (लेखक अफगान मामलों के विशेषज्ञ हैं)
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