NavBharat Times, 24 Dec 2004: भारत और श्रीलंका के संबंध इस समय जितने अच्छे हैं, शायद पहले कभी नहीं रहे। इतने अनुकूल वातावरण में श्रीलंका की यात्रा सार्थक और सुखद ही रह सकती है। अब से 21 साल पहले वहां के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के मुख से इंदिराजी के विरुद्ध मैंने इतनी कटु उक्तियों को भोगा था कि वहां दुबारा जाने का मन नहीं हुआ। इस बार ‘वर्ल्ड एलायंस फॉर पीस इन श्रीलंका` और ‘संसदया` के आग्रह पर कोलंबो पहुंचा तो मैं यह देखकर दंग रह गया कि कल तक जो लोग घनघोर-भारत-विरोधी थे, आज वे भारत के सबसे घनिष्ठ मित्रा बनना चाहते हैं। वे यह मानते हैं कि श्रीलंका को अगर कोई बचा सकता है तो भारत ही बचा सकता है। इस समय श्रीलंका टूटने के कगार पर है।
बंडारनायक-सभागृह के भव्य-समारोह में जब मुझे उद्घाटन-भाषण के लिए आमंत्रिात किया गया तो श्रोता यह मानकर चल रहे थे कि मैं भी अन्य वक्ताओं की तरह या तो लिट्टे पर प्राणलेवा प्रहार करूंगा या नार्वे की मध्यस्थता पर गाज गिराऊंगा, क्योंकि लिट्टे ने राजीव गांधी की हत्या की थी और मध्यस्थता के भारतीय अधिकार को नार्वे ले उड़ा है। ब्रिटेन से आए प्रसिद्ध अध्येता पॉल हेरिस तथा डॉ. सुशांत गुणतिलक सहित अन्य प्रसिद्ध श्रीलंकाई विद्वानों ने यही किया। सारे विद्वान और नेता अपने-अपने भाषण लिखकर लाए थे। मैंने बिना लिखा भाषण दिया। सामने बैठे मंत्रिायों, सांसदों और माननीय भिक्खुओं ने बार-बार जिस उत्साह से तालियां बजाईं, उसने मेरी इस धारणा को प्रबल किया कि श्रीलंका के बारे में भारत की वर्तमान नीति बिलकुल सही है।
हमारी वर्तमान नीति यही है कि श्रीलंका के आंतरिक मामलों में हम हस्तक्षेप नहीं करना चाहते। पहले तमिलों की ओर से और बाद में सिंहलों की ओर से हस्तक्षेप करने का बहुत बुरा नतीजा हम भुगत चुके हैं। हम दोनों से बुरे बने। मैंने कहा कि बुद्ध और तिरुवल्लुवर के लोगों को हम बाहर के लोग क्या सिखा सकते हैं। आप अपने दीपक स्वयं बनें। अपना झगड़ा आप खुद सुलझाएं। इसका मतलब यह नहीं कि हम आपके प्रति बेगाने हैं। आपके सुख-दुख हमारे सुख-दुख हैं। आपकी सुरक्षा हमारी सुरक्षा है। हम श्रीलंका के विभाजन का समर्थन नहीं कर सकते। इस दक्षिण एशिया में हम 1947 दुबारा हुआ देखना नहीं चाहते। यदि उप-राष्ट्रवाद के आधार पर श्रीलंका बंटेगा तो एशिया का कोई भी देश नहीं बचेगा। दुनिया के सभी महाद्वीप एकजुट हो रहे हैं और हम छोटे-छोटे देशों को भी तोड़ने पर आमादा हो रहे हैं। भारत यह नहीं होने देगा। मैंने लिट्टे के नेताओं से सीधा अनुरोध किया कि वे हिंसा और अलगाव का रास्ता छोड़ें। वे आत्म-निर्णय का अधिकार जरूर मांगें लेकिन साथ रहने और शांति से रहने का निर्णय करें। मैंने कहा, मेरा नारा है, ”आजादी, हां और अलगाव, ना।“ यह बात जितनी श्रीलंका पर लागू होती है, उतनी ही भारत और पाकिस्तान के कशमीरियों पर भी लागू होती है। अलगाव याने अलग राष्ट्र का निर्माण, आजादी नहीं, गुलामी का कारण भी बन सकता है। इस भाषण को दूसरे दिन देश के सभी अखबारों ने प्रमुखता से छापा लेकिन मजा यह था कि सिंहल और तमिल अखबारों ने अपने-अपने ढंग से छापा। उन्होंने उन्हीं अंशों को प्रमुखता दी, जो उन्हें अधिक अनुकूल पड़ते थे।
इस शांति सम्मेलन का इतना असर हुआ कि दूसरे दिन श्रीलंका की राष्ट्रपति चंद्रिका जी, प्रधानमंत्राी राजपक्ष, सर्वाधिक शक्तिशाली पार्टी जनता विमुक्ति पेरामून तथा बौद्ध भिक्खुओं के दल जातीय हेल उरूमाया के नेताओं से मुलाकातें भी तय हुईं। लगभग सभी प्रमुख अखबारों के पत्राकारों ने विशेष साक्षात्कार किए और लगभग प्रत्येक व्यक्ति ने अनौपचारिक आग्रह किया कि भारत हस्तक्षेप करे। श्रीलंका को नार्वे या अमेरिका के भरोसे न छोड़ें। श्रीलंकाई लोगों की धारणा यह है कि कोई भी पश्चिमी राष्ट्र श्रीलंका में शाति की वैसी गारंटी नहीं दे सकता, जैसी कि भारत दे सकता हैं यदि भारत वहां के सिंहलों और तमिलों के बीच कोई समझौता करवा देगा तो उसे वह लागू भी करवा सकता है। उसमें भारत का निहित स्वार्थ भी है जबकि पश्चिमी महाशक्तियों का श्रीलंका की एकता और शांति में कौन-सा निहित स्वार्थ है? यदि श्रीलंका के दो टुकड़े हो भी जाएं तो उनका क्या बिगड़ता है? उनके तो दोनों हाथों से लड्डू हैं। वे जफना और कोलंबों, दोनों में अपने स्वार्थ गांठेंगी। सम्मेलन में अनेक वक्ताओं ने सप्रमाण सिद्ध किया कि नार्वे के मध्यस्थ लोग लिट्टे के लोगों के साथ खुले-आम साजिश कर रहे हैं। उन्हें हथियार, पैसा और प्रोत्साहन दे रहे हैं। एक प्रसिद्ध सांसद ने बताया कि नार्वे की शह पर लिट्टे श्रीलंका के तीन-चौथाई समुद्र-तट पर दावा कर रहा है ताकि अगर आधे श्रीलंका का राज प्रभाकरन को मिल जाए तो समुद्र-तट के बंदरों पर उसका कब्जा हो जाए और तेल-उत्खनन के अधिकार भी उसे मिल जाएं। नार्वे की मध्यस्थता शुद्ध परोपकार नहीं है बल्कि राष्ट्रीय स्वार्थें का अदृष्ट सिद्धि है। यदि श्रीलंका के टुकड़े होते हैं तो स्पष्ट है कि जफना की तमिल सरकार और भारत के संबंध सहज नहीं होंगे। सर्वोच्च तमिल नेता प्रभाकरन के माथे राजीव हत्या का पाप है और उसके विरुद्ध वारंट जारी है। यदि श्रीलंका में अलग तमिल-राज्य स्थापित हो गया तो हमारे तमिलनाडु की स्थिति पर भी उसका असर पड़ेगा। इसके अलावा तमिल और सिंहल राज्यों में यदि युद्ध की स्थिति पर भी उसका असर पड़ेगा। इसके अलावा तमिल और सिंहल राज्यों में यदि युद्ध की स्थिति बनी रही तो शरणार्थियों का सतत रेला भारत की तरफ ही बहेगा और भारत की सुरक्षा भी खतरे में पड़ेगी। ऐसी स्थिति में भारत ही श्रीलंका का सच्चा त्रााता हो सकता है।
भारत की मुख्य समस्या है कि वह श्रीलंका की मदद केसे करे? श्रीलंका के साथ व्यापार और आर्थिक सहयोग जिस तेजी के साथ बढ रहा है, वैसा किसी भी अन्य दक्षिण एशियाई देश के साथ नहीं बढ़ रहा। श्रीलंका के सतारूढ़ दल और विरोधी दल दोनों ही भारत के बहुत करीब रहे हैं। राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंग और पूर्व प्रधानमंत्राी रनिल विक्रमसिंघ चाहे आपस में लड़ते रहे हों लेकिन दोनों प्रमुख दलों के नेता पिछले कुछ वर्षों से भारतीय नेताओं के साथ पूर्ण सामंजस्य बनाकर रखे हुए हैं। जो ‘जनता विमुक्ति पेरामून` और बौद्ध भिक्खु भारत-विरोध में सड़कों पर उतर आते थे, उनके शीर्ष नेताओं ने मुझे अपने भारत-प्रेम के प्रति आश्वस्त किया है और वे शीघ्र ही भारत भी आना चाहते हैं। सभी चाहते हैं कि भारत श्रीलंका की मदद करे। श्रीलंका के अधिकांश तमिल तो भारत को ही अपनी सुरक्षा की गारंटी मानते हैं। वे कहते हैं कि यदि भारत हस्तक्षेप करेगा तो हमें न्याय अवश्य मिलेगा। भारत दुविधा में है। श्रीलंका के साथ एक रक्षा-समझौते पर कई दिनों से बात चल रही थी। सिंहल लोग कहते हैं, रक्षा समझौता जल्दी करें ताकि प्रभाकरन जफना में अपना अलग राज्य खड़ा न कर ले और तमिल लोग कहते हैं कि रक्षा-समझौते की आड़ में चंद्रिका भारत को फिर से वैसे ही फंसाना चाहती है, जैसे जयवर्द्धन ने 1987 में राजीव गांधी को फंसाया था। जाहिर है कि फटे में पाव फंसाकर भारत ने बहुत सबक सीख लिए हैं। फिलहाल तो सिंहलों और तमिलों के बीच सीधी बातचीत का रास्ता ही सर्वश्रेष्ठ है। भारत का यह मध्यममार्गी सूत्रा बिलकुल सही है कि दोनों के बीच उन्हीं तात्कालिक समझौतों का भारत समर्थन करेगा, जो अंतिम समाधान को परिपुष्ट करेगें। इस समय लिट्टे की इस मांग पर तलवारें खिंची हुई हैं कि तमिल क्षेत्राो में ‘अंतरिम सरकार` बनाई जाए। सिंहल लोग इसे संप्रभु तमिल राज्य (ईलम) का पूर्व-राग मान रहे हैं। यदि दोनों लोगों के बीच बातचीत नहीं होती है या कोई रास्ता नहीं निकलता है तो भारत को अपनी भूमिका पर पुनर्विचार करना ही होगा।
Leave a Reply