दैनिक हिन्दुस्तान (4 जून 2010)
भारत के टूटने का जैसा खतरा इस समय खड़ा हुआ है, शायद भारत के इतिहास में पहले कभी खड़ा नहीं हुआ| भारत पहले भी दर्जनों बार टूटा, जुड़ा और फिर टूटा, इसके बावजूद वह आज भी दुनिया का एक बड़ा राष्ट्र है लेकिन इस बार जो खतरा इसके सामने आया है, देश की जनता ने उसका मुकाबला नहीं किया तो भारत के उतने ही टुकड़े हो जाएंगे, जितनी कि यहाँ जातियाँ हैं| भारत में जातियों की ज्ञात संख्या छह हजार से ज्यादा है और अज्ञात तो अनंत हैं| किसी जाति में करोड़ों लोग हैं तो किसी में सिर्फ दर्जन भर ! जातियों की जो गिनती अभी आवश्यक और वैज्ञानिक लग रही है, वह हमारे महान और अद्वितीय गणतंत्र् को हजारों लुंज-पुंज जाति-तंत्रें में बांट देगी|
अभी तो सिर्फ कुल पांच-सात हजार आरक्षित नौकरियों के लिए जाति की तलवारें खींची जा रही हैं| यदि जाति-गणना हो गई तो फिर जो जाति आज व्यक्तिगत तथ्य है, वह ‘राष्ट्रीय सत्य’ बन जाएगी| यह राष्ट्रीय सत्य ही हमारे राष्ट्र का सर्वोच्च संचालक बन जाएगा| संविधान, संसद, न्यायालय और कानून का राज नेपथ्य में चला जाएगा| इस देश में जातियों का राज चलेगा| देश में जितनी जातियां हैं, भारत में उतने ही महाभारत फूट पड़ेंगे| भारत भूगोल में एक रहेगा लेकिन दिलों में उसके हजार टुकड़े हो जाएंगे|
यह कितनी विडंबना है कि जातीय गणना के सवाल पर देश के सारे राजनीतिक दल एक हो गए हैं| किसी नेता की हिम्मत नहीं कि वह अपना मुंह खोले| ऐसा नहीं कि उन्हें इस भयंकर खतरे का पता नहीं है लेकिन सवाल यह है कि बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ? प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह बधाई के पात्र् हैं कि उन्होंने जातीय गणना के सीलबंद लिफाफे को दुबारा खोल दिया है| इस लिफाफे में से निकले पत्र् की इबारत अब उनके कुछ मंत्री दुबारा पढ़ेंगे लेकिन इससे भी ज्यादा जरूरी है कि उसे जनता पढ़े, बुद्घिजीवी पढ़ें, वे लोग पढ़ें, जो वोट-बैंक के गुलाम नहीं हैं|
सबसे पहली बात तो यह कि जातीय जन-गणना सर्वथा अवैज्ञानिक है| यदि आप 1931 की जन-गणना के सेंसस कमिश्नर जे.एच. हट्टन और 1955 के पिछड़ा वर्ग आयोग के अध्यक्ष काका कालेलकर की रपट पढें तो आपको पता चल जाएगा कि पिछले 80 साल से भारत की सरकारों ने जन-गणना में से जाति को क्यों बाहर निकाल रखा है| हट्टन ने 1871 से चली आ रही जातीय जनगणना को इसलिए बंद करवाया कि जातियों के सही-सही आंकड़े इकट्रठे करना सर्वथा असंभव था| लोगों ने न सिर्फ अपनी मनमानी जातियाँ लिखवा दीं, उनका महत्व-क्रम ऊपर-नीचे कर लिया, अपनी सुविधानुसार जाति बदल ली और जातियों के आधार पर कानूनी और सामाजिक छूट मांगने लगे| काका कालेलकर ने खुद लिखा कि पिछड़ापन का निर्धारण जाति के आधार पर नहीं किया जा सकता| अपनी रपट राष्ट्रपति को भेजते समय जो 30 पृष्ठ का पत्र् उन्होंने लिखा, उसमें दो-टूक शब्दों में कहा कि इस रपट पर मैंने बहुत मजबूरी में दस्तखत किए हैं| ”हमारे द्वारा सुझाए गए समाधान रोग से भी ज्यादा बुरे हैं|” आयोग के पांच सदस्यों ने रपट का विरोध किया था और पाँच ने समर्थन! अध्यक्ष के नाते कालेलकरजी को उसका समर्थन करना पड़ा|
गांधी और नेहरू की काँग्रेस ने 1931 में जातीय-गणना का जमकर विरोध किया था| सावरकर और गोलवलकर ने जातिवाद को राष्ट्रवाद का शत्र्ु बताया था| कम्युनिस्ट नेता श्रीपाद डांगे और पी.सी. जोशी ने जाति नहीं, वर्ग को नए समाज का मूलाधार बताया था| डॉ. भीमराव आंबेडकर ने जातिविहीन भारतीय समाज का आदर्श हमारे सामने रखा था| प्रखर समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने ‘जात-तोड़ो’ आंदोलन का आह्रवान किया था| कबीर, नानक, दयानंद, विवेकानंद, ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह आदि महापुरूषों ने जन्मना जाति का स्पष्ट विरोध किया था| आज के नेता अपने देश को कहाँ ले जा रहे हैं, आप खुद तय करें| भारतीय संविधान में भी वंचित जातियों का नहीं, वंचित वर्गों को विशेष सुविधा देने की बात कही गई है (देखें, धारा 16 और 340)| धारा 16 (4) में जातियों नहीं, पिछड़े वर्ग के ”नागरिकों” के लिए सरकारी नौकरियों में विशेष नियुक्ति का प्रावधान है| हमने ‘नागरिकों’ को ‘जातियों’ में बदल दिया| थोक धंधा शुरू कर दिया| किसको क्या रोग है, यह ठीक से जाने बिना थोक में दवा देनी शुरू कर दी| दवा को रेवड़ी समझकर अब सब लपक लेना चाहते हैं, चाहे वे रोगी हों या निरोगी ! यही है, जातीय गणना की वैज्ञानिकता ! असली रोग है, गरीबी ! गरीबी का इलाज करने के बजाय आप जात की चर्बी बढ़ा रहे हैं| किसी की जात पूछने की बजाय आप उसकी गरीबी का हाल क्यों नहीं पूछते ? आप यह क्यों नहीं पूछते कि इस देश में हाड़-तोड़ काम की इज्ज़त और लज्जत इतनी कम क्यों हैं और कुर्सीतोड़-गद्दीतोड़ काम की इतनी ज्यादा क्यों है ? 80 करोड़ लोग सिर्फ 20 रू. रोज कमाते हैं और कुछ लोग 20 हजार रू. रोज ! इस एक और एक हजार की खाई को कैसे पाटा जाए ? क्या पांच-सात हजार लोगों के मुंह में आरक्षित नौकरियों की चूसनी (लॉलीपॉप) रख देने से 80 करोड़ वंचितों के पेट भर जाएंगे ? अगर जात नहीं, जरूरत के आधार पर आंकडे इकट्रठे किए जाएं तो वे वैज्ञानिक होंगे| उन आंकड़ों के आधार पर वंचितों को सचमुच विशेष सुविधा, विशेष अवसर, विशेष अधिकार दिए जाएँ तो सिर्फ 10 साल में संपूर्ण भारत का रूपातंरण हो जाएगा| हमारे करोड़ों वंचितों के लिए जाति अफीम बन गई है| यह उनकी ठगी का सबसे बडा साधन है|
यह कहना शुद्घ कुतर्क है कि जाति भारत का सामाजिक यथार्थ है| उसे आप स्वीकार क्यों नहीं करते ? यथार्थ तो यह भी है कि भारत में हिंदुओं की संख्या सबसे ज्यादा है| आप उसे हिंदू राष्ट्र घोषित क्यों नहीं करते ? यथार्थ तो यह भी है कि भ्रष्टाचार सर्वव्यापी है| हम उसे राष्ट्रीय शिष्टाचार घोषित क्यों नहीं करते ? राष्ट्र-निर्माताओं का काम राष्ट्रीय आदर्शों को यथार्थ की भट्रठी में झोंक देना नहीं है बल्कि यथार्थ के अयस्क को आदर्शों की भट्रठी में तपाकर कुंदन बना देना है| जन्मना जाति तो शुद्घ जड़ता है| जातीय गणना इस जड़ता को जमाएगी या पिघलाएगी ? साठ साल में जातियाँ काफी पिघली हैं| क्या कोई अब टाटा को लुहार और बाटा को चमार कह सकता हैं ? हमारी बहन मायावतीजी और हमारे भाई लालूजी और मुलायमजी को क्या कोई ‘वंचित’ या ‘दरिद्र’ मान सकता है ? जातीय गणना करके हम समाज-परिवर्तन के इस प्रचंड प्रवाह को दुबारा जातीय बोतलों में क्यों बंद कर देना चाहते हैं ?
जो जातीय गणना का समर्थन कर रहे हैं, वे अनचाहे ही ‘मनुवाद’ के सबसे बड़े पुरोधा बन रहे हैं| वे भारतीय संविधान के मुकाबले ‘मनुस्मृति’ को खड़ा कर रहे हैं, उस ‘मनुस्मृति’ को जो उनके अनुसार जातिवाद की विषबेल है| क्या इस ‘नव-मनुवाद’ के विरूद्घ देश के प्रत्येक नागरिक को कमर नहीं कसनी चाहिए ? जातीय गणना का बहिष्कार इसीलिए परम आवश्यक है| यदि गणक पूछें कि आपकी जाति क्या है तो उसका एक ही जवाब है, मेरी जाति ‘हिंदुस्तानी’ है| हम भारत में नहीं होने देंगे, जातियों का महाभारत !
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