Nav Bharat Times, 29 Sept 2004 : डॉ. मनमोहनसिंह और जनरल मुशर्रफ की मुलाकात को निराशा के चश्मे से देखना हो तो उसमें अनेक खामियॉं खोजी जा सकती हैं| दोनों नेताओं पर आरोप लगाए जा सकते हैं| यहॉं इस्लामाबाद में कुछ पाकिस्तानी अखबार कह रहे हैं कि मुशर्रफ फिसल गए| उन्होंने अपने संयुक्तराष्ट्र भाषण में, भारतीय प्रधानमंत्री से बातचीत में और संयुक्त वक्तव्य में भी एक दम समझौतावादी रवैया अपनाया है| विरोधी दल ‘जमाते-इस्लामी’ के नेता कह रहे हैं कि जनरल साहब ने एक बार भी यह नहीं कहा कि भारतीय फौजें कश्मीरियों पर जुल्म ढा रही हैं या कश्मीर एकमात्र मुद्दा है या कश्मीर के हल की समय-सीमा बताइए| उन्होंने अमेरिकी नेताओं को भी भारत के विरोध में कुछ नहीं बताया| अपनी अमेरिका-यात्रा के दौरान उन्होंने वे न्यूनतम काम भी नहीं किए, जो मरे-गिरे पाकिस्तानी प्रधानमंत्री करते चले आए हैं| भले-भले-से दिखाई पड़ने की चाह में जनरल मुशर्रफ ने पाकिस्तान के कौमी मफाद (राष्ट्रहितों) की कुर्बानी कर दी है| अब वे मुशर्रफ के खिलाफ दुगुने जोश से आंदोलन चलाऍंगे|
उधर भारत में भाजपा के नेता कह रहे हैं कि डॉ. मनमोहनसिंह ने भारत के राष्ट्रहितों की अनदेखी कर दी है| उनके अनुसार संयुक्त वक्तव्य में कहीं भी सीमा-पार आतंकवाद का जि़क्र तक नहीं है जबकि कश्मीर के हल के वायदे किए गए हैं| यह एकतरफा दस्तावेज़ है| मुशर्रफ की विजय है| भारतीय अफसरों ने पाकिस्तानी अफसरों द्वारा तैयार किए गए दस्तावेज़ को चबाए बिना ही निगल लिया| मनमोहनसिंह पर यह आरोप भी है कि उन्होंने संयुक्तराष्ट्र-भाषण या पत्रकार-परिषद् में भी यह तक नहीं कहा कि कश्मीर में आतंकवाद कायम है और वह विश्व-आतंकवाद का अंग है| इस पर मनमोहनसिंह ने सफाई पेश की है कि उन्होंने जनरल मुशर्रफ से हुई बातचीत में यह मुद्दा साफ-साफ शब्दों में उठाया था| मुशर्रफ ने अभी तक इस बयान का खंडन नहीं किया है| इसका मतलब स्पष्ट है कि भारतीय पक्ष की तरफ से कोई चूक नहीं हुई है|
इतना ही नहीं, ध्यान देने योग्य बात यह है कि संयुक्त वक्तव्य में 6 जनवरी 2004 के संयुक्त बयान को आधार बनाया गया है| इससे दो बातें सिद्घ होती हैं| एक तो यह कि मनमोहन सरकार ने वाजपेयी-सरकार की उपलब्धियों को नकारा नहीं है| वह पिछली सरकार द्वारा रखी गई नींव पर ही शांति-प्रक्रिया का भवन-निर्माण कर रही है| दूसरा, 6 जनवरी के संयुक्त वक्तव्य में पाकिस्तान का स्पष्ट संकल्प है ि कवह अपनी ज़मीन का इस्तेमाल आतंकवादी गतिविधियों के लिए नहीं होने देगा| इसी बात को न्यूयॉर्क में दोहराने से क्या लाभ होता, यह समझ में नहीं आ रहा| यों तो अपि्रयता उत्पन्न करने के लिए कई अन्य मुद्दे भी उठाए जा सकते थे| जैसे पाकिस्तानी प्रवक्ता का यह बयान भी कि वह भारत के सुरक्षा-परिषद में प्रवेश का विरोधी है| यहॉं गौर करने लायक बात है कि स्वयं मुशर्रफ ने अपने भाषण या बातचीत में इस मुद्दे का जि़क्र तक नहीं किया| इसके अलावा अपने भाषण को मुशर्रफ ने इतना नरम और संयत रखा कि मनमोहनसिंह को आक्रामक तेवर अपनाने की जरूरत नहीं रही| पिछले अनेक वर्षों में पहली बार दोनों देशों के नेताओं ने संयुक्तराष्ट्र महासभा को अपने अखाड़े की तरह इस्तेमाल नहीं किया| दोनों ने विश्व समुदाय को आश्वस्त किया ि क वे युद्घों से तंग आ चुके हैं और वे अपनी पारस्परिक समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान के लिए कटिबद्घ हैं|
यह ठीक है कि मुशर्रफ ने न्यूयॉर्क के पाकिस्तानियों को संबोधित करते हुए आश्वस्त जरूर किया कि वे कश्मीरियों को कभी धोखा नहीं देंगे लेकिन उन्होंने एक बड़ी गलतफहमी भी दूर कर दी| वह थी – कश्मीर पर समय-सीमा की ! निश्चिम समय-सीमा में कश्मीर-समस्या हल करने की पाकिस्तानी मॉंग इतनी उत्तेजक थी कि इसी मुद्दे पर बात टूट सकती थी| मनमोहन-मुशर्रफ वार्ता भंग हो सकती थी लेकिन मुशर्रफ की सफाई ने वातावरण काफी अनुकूल बना दिया| इतना ही नहीं, मनमोहनसिंहजी का मन मोहने के लिए मुशर्रफ ने जबर्दस्त दॉंव मारा| उन्होंने भेंट के शुरू में ही मनमोहनजी को उनके बचपन के स्कूल के कुछ चित्र दिखाए, पाठशाला का रिपोर्ट कार्ड दिखाया और उनके बचपन के जो साथी अभी तक जिन्दा हैं, उनके फोटो भी दिखाए| निश्चय ही यह मार्मिक संकेत था| दोनों नेताओं की भेंट, जिसे 10-15 मिनिट चलना था, वह एक घंटे तक चली और मनमोहनजी का कहना है कि वे एक क्षण के लिए भी नहीं ऊबे| ज़रा इस भेंट की तुलना आगरा की भेंट से करें| कितना तनाव पैदा हो गया था, उसमें? दोनों नेताओं ने तनावरहित वातावरण में बात की, यह इससे भी सिद्घ होता है कि मनमोहनजी ने मुशर्रफ से आग्रह किया कि संयुक्त वक्तव्य प्रेसवालों के सामने वे ही पढ़ें| मुशर्रफ ने इस सम्मान के लिए आभार भी माना| मुशर्रफ ने यह ठीक ही कहा कि यह भेंट अपूर्व रही| मनमोहनसिंह ने उसे ऐतिहासिक कहा| मुशर्रफ की यह राय सही है कि यदि वे पुरानी शब्दावली रटते रहते तो दुबारा कहीं न कहीं अटक जाते| नई शब्दावली के साथ नई दृष्टि का भी पाकिस्तान परिचय दे तो निश्चय ही बर्फ पिघल सकती है| ईरान से भारत तक पाइप लाइन डालने की बात संयुक्त वक्तव्य में जोड़कर दोनों पक्षों ने इस नई दृष्टि का संकेत दिया है| यह कम बड़ी बात नहीं कि मनमोहन ने जब कश्मीर के हल के लिए विकल्प पूछे तो मुशर्रफ ने कहा मैं सोचकर बताऊंगा| सच्चाई तो यह है कि पिछले चालीस साल में दोनों पक्षों के नेताओं और अफसरों ने कश्मीर के विकल्पों पर कभी खुलकर चर्चा तक नहीं की| दोनों पक्षों के पास तअभी कोई ठोस प्रस्ताव नहीं हैं लेकिन न्यूयॉर्क-भेंट ने इन प्रस्तावों का मार्ग प्रशस्त कर दिया है| दोनों सरकारों को उनका लाभ उठाना चाहिए| भारत की तरह पाकिस्तान को भी वीज़ा पर ढील देनी चाहिए| इस्लामाबाद और लाहौर की अनेक संस्थाओं ने पाकिस्तानी सरकार पर दबाव डालना शुरू कर दिया है| अब अक्तूबर के प्रथम सप्ताह में पाकिस्तानी पत्रकारों का एक दल कश्मीर भी जाएगा| इसी प्रकार सियाचिन और श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस के बारे में भी दोनों पक्ष नरम पड़ते हुए दिखाई पड़ रहे हैं| यदि कश्मीर पर सरकार और गैर-सरकारी बातचीत जारी रहे तथा साथ-साथ संबंध-सुधार के अन्य कदम उठते रहें तो कोई आश्चर्य नहीं कि भारत-पाक संबंध उसी तरह सहज होते चले जाएंगे जैसे कि सीमा-विवाद के बावजूद भारत-चीन संबंध हो रहे हैं|
(लेखक अभी-अभी पाकिस्तान से लौटे हैं)
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