Dainik Bhaskar, 3 July 2004 : विदेश सचिवों की मुलाकात एक थर्मामीटर थी, यह जानने के लिए कि पिछले हफ्ते घटी दो घटनाओं में कुछ दम है या नहीं| ये दोनों घटनाऍं एक साथ घटीं| एक पेइचिंग में और दूसरी दिल्ली में| एक में दोनों देशों के विदेश मंत्री परदेस में मिले और बड़ी शालीनता और सौजन्य के साथ मिले ! दूसरी में दोनों देशों के अतिरिक्त सचिवों ने पारम्परिक विश्वास-वृद्घि के उपायों पर सहमति की| यदि विदेश सचिवों – शशांक और रियाज़ खोकर – की बातचीत में ज़रा भी पेंचों-खम दिखाई पड़ते तो माना जाता कि उक्त दोनों घटनाऍं जबानी जमा-खर्च हैं| लेकिन ऐसा नहीं हुआ| दोनों विदेश सचिवों ने जैसा संयुक्त वक्तव्य जारी किया है और उनके प्रवक्ताओं ने टेढ़े प्रश्नों के जैसे सरल उत्तर दिए हैं, उनसे आशा बंधती है कि भारत-पाक सार्थक सम्वाद के एक नए युग का सूत्रपात हो गया है|
विदेश सचिवों का थर्मामीटर यह बता रहा है कि दोनों देशों पर चढ़ा गलतफहमी और मुंहजोरी का बुखार अब उतर गया है| पाकिस्तानी विदेश सचिव रियाज़ खोकर को कौन नहीं जानता? दस साल पहले जब वे दिल्ली में पाक उच्चायुक्त थे तो सारी कूटनीतिक मर्यादा ताक पर रखकर वे भारतीय नेताओं पर सीधा प्रहार कर देते थे| इसी तरह बीस साल पहले शशांक जब इस्लामाबाद में थे तो उन्होंने पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान की कटुताओं को सीधा झेला है| इसके बावजूद दोनों विदेश सचिवों की बातचीत और भेंट में मधुरता का माहौल बना रहा| दोनों ने जो संयुक्त-वक्तव्य जारी किया है, उसकी नींव पर भारत-पाक संबंधों को सहज बनाना अब संभव लग रहा है| ऐसा माहौल फरवरी 1999 में भी बनता-सा लग रहा था| उस समय अटलजी की बस लाहौर पहॅुंची थी लेकिन वह इस्लामाबाद पहॅुंचती, उसके पहले ही पाकिस्तान ने उसे करगिल में गिरा दिया| यदि अब वह श्रीनगर से मुजफ्फराबाद के बीच चलने लगी तो उसका श्रेय मनमोहन और नटवर को उसी तरह मिलेगा जैसे अटलजी को परमाणु-विस्फोट का मिला था| बीच कोई बोए और फसल कोई और काटे !
सबसे पहले यह देखा जाए कि इस संयुक्त वक्तव्य के खास-खास मुद्दे क्या हैं? दोनों देशों ने कराची और मुम्बई में अपने-अपने वाणिज्य महादूतावास फिर से खोलने, दोनों उच्चायोगों में कर्मचारियों की संख्या 110 तक बढ़ाने, प्रक्षेपास्त्र-परीक्षण के पहले परस्पर सूचित करने, दोनों देशों के मछुआरों की रिहाई तथा अन्य कैदियों की रिहाई पर विचार का संकल्प किया| ये तथ्य सराहनीय हैं लेकिन ऐसे नहीं हैं, जिन्हें बुनियादी कहा जा सके| इन सहमतियों से मानवीय भला होगा| यात्र्िायों को वीज़ा की सुविधा हो जाएगी और बेकसूर लोग जेलों से मुक्ति पाऍंगे| प्रक्षेपास्त्र-परीक्षणों से गलतफहमी न हो जाए, इसकी अनौपचारिक व्यवस्था तो पहले से चली आ रही है| जो असली महत्व का काम इस संयुक्त वक्तव्य में घोषित हुआ है, वह यह है कि अगले सवा महीने में दोनों देशों के बीच छह महत्वपूर्ण मामलों पर भी बातचीत होगी| ये मामले हैं – सियाचित, वूलर बॉंध या तुलबुल प्रायोजना, सर क्रीक, आतंकवाद और मादक द्रव्यों की तस्करी, आर्थिक और वाणिज्य सहयोग तथा मैत्रीपूर्ण आदान-प्रदान ! वार्ता का यह समयबद्घ कार्यक्रम काफी आशा जगाता है| ऐसा लगता है कि आतंकवाद और कश्मीर-जैसे गुरु-गंभीर मामलों से रूबरू होने के पहले दोनों पक्ष उन सब मामलों को सुलझा लेना चाहते हैं, जिनका सुलझना ज्यादा कठिन नहीं हैं| यह पारस्परिक सदाशयता का प्रमाण है| यही रास्ता तर्कसंगत है| व्यावहारिक भी है| अगर पाकिस्तान पहले कश्मीर और हम पहले सीमा-पार आतंकवाद की रट लगाए रखेंगे तो गाड़ी एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगी| दोनों देश वार्ता की गाड़ी आगे बढ़ाना चाहते हैं, इसीलिए दोनों ने एक-दूसरे का मान भी रखा| पाकिस्तान ने शिमला समझौते को और भारत ने छह जनवरी की घोषणा को उचित महत्व दिया और दोनों पक्षों ने कश्मीर के मुद्दे को इस तरह से हल करने की बात दोहराई ताकि सभी पक्षों को संतोष हो| श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस का मामला भी खत्म नहीं हुआ है, टल गया है और दोनों पक्ष उसका कारण ‘तकनीकी’ बता रहे हैं याने दोनों पक्ष अपनी असहमतियों का लोक-दिखावा करने से बच रहे हैं, इससे अधिक सकारात्मक वातावरण क्या हो सकता है| यह ठीक है कि पाकिस्तान ने अपनी भूमि पर आतंकवादी अड्डों के चलने की बात स्वीकार नहीं की लेकिन उसने यह तो खुले-आम माना ही कि आतंकवाद निदंनीय है और उसके विरुद्घ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए| दोनों विदेश सचिवों ने दोनों तरफ के फौजी अधिकारियों के बीच जीवंत सम्पर्क बढ़ाने का संकल्प भी किया है| इसी तरह नियंत्रण-रेखा और कश्मीर के बारे में रियाज़ खोकर ने इस्लामाबाद पहॅुंचकर जो बयान दिया है, उससे भी यही संकेत मिलता है कि यह द्विपक्षीय वार्ता पहले की तरह तुनुकमिजाजी का शिकार नहीं होगी|
यह ठीक है कि कश्मीर का हल जल्दी नहीं निकलेगा लेकिन देरी के कारण बातचीत भंग हो जाएगी, ऐसा नहीं लगता| दोनों पक्षों का यह कहना काफी महत्वपूर्ण है कि बातचीत में कश्मीरियों को भी जोड़ा जाए| क्या यह कम बड़ी बात है कि पाकिस्तानी विदेश सचिव को कश्मीरी नेताओं से खुलकर मिलने दिया गया, उन नेताओं से भी, जो घनघोर भारत-विरोधी हैं? भारत और पाकिस्तान के नेता शायद इस रहस्य को समझ गए हैं कि जब तक कश्मीर के महत्वपूर्ण संगठनों में आपसी एका नहीं होगा, इस समस्या को सुलझाना आसान नहीं होगा| इसके अलावा दोनों देशों में अब राजनीति की बजाय फोकस अर्थनीति पर आ रहा है| भारत की तरह अब पाकिस्तान में भी आर्थिक मामलों के पंडित शौकत अजीज़ प्रधानमंत्री बननेवाले हैं| दोनों राष्ट्र अपने आर्थिक सहकार को कश्मीर-समस्या के हाथों गिरवी नहीं रखना चाहते| दोनों देशों पर अमेरिका, यूरोपीय आर्थिक समुदाय, रूस, चीन और जापान देशों का भी दबाव पड़ रहा है कि वे सामरिक और आर्थिक सहकार का रास्ता चुनें| सबसे बड़ी बात तो यह है कि दोनों देशों की जनता अब तनाव और युद्घ से तंग आ चुकी हैं| यदि दोनों सरकारें, खास तौर से पाकिस्तान की सरकार यदि अपनी जनता की आवाज़ सुनेगी तो वह शांति और सहकार के राजमार्ग पर चलना शुरू कर देगी| ऐसे में आतंकवाद और कश्मीर जैसी पगडंडियॉं स्वत: इस राजमार्ग में विलीन हो जाऍंगी|
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