R Sahara, 10 Sept 2004 : दिल्ली-वार्ता से जो निराश हैं, उन्हें आगरा-वार्ता को याद करना चाहिए| आगरा के पहले कितने हवाई किले बॉंधे गए थे| सब ढेर हो गए| इस बार तिनका-तिनका चिनकर वार्ता का घोंसला बनाया गया था| वह अपनी जगह जमा हुआ है| यह क्या कम बड़ी उपलब्धि है?
आगरा-वार्ता दोनों देशों के शासनाध्यक्षों के बीच हुई थी और दिल्ली-वार्ता जिन लोगों के बीच हुई वे केवल विदेश सचिव और विदेश मंत्री हैं| इस अर्थ में आगरा को बड़ा और दिल्ली को छोटा होना चाहिए था लेकिन मामला उलटा हुआ-सा लग रहा है| शासनाध्यक्षों की बजाय उनके मातहतों का बर्ताव कहीं अधिक परिपक्व और कहीं अधिक उत्तरदायित्वपूर्ण मालूम पड़ रहा है| ऐसा नहीं है कि दोनों विदेश मंत्रियों के रास्ते गुलाब की पंखुडि़यों से ही पटे रहे हों| उनमें कॉटे भी आए| इस्लामाबाद से चलने के पहले खुर्शीद महमूद कसूरी ने यदि राग कश्मीर अलापा तो नटवरसिंह ने सीमा-पार आतंकवाद को भी गरमाया| दोनों तरफ से रस्साकशी हुई| राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ पहले ही कह चुके थे कि अगर कश्मीर का समयबद्घ हल नहीं हुआ तो द्विपक्षीय वार्ता की सारी प्रगति शून्य हो जाएगी| लगता था कि दिल्ली-वार्ता तो होगी लेकिन उक्त दोनों मुद्दों पर वह अटक भी सकती है| टूट भी सकती है|
लेकिन ये दोनों शंकाऍं गलत साबित हुईं| यही इस वार्ता की सबसे बड़ी सफलता है| कसूरी ने जो बयान दिया, वह ध्यान देने लायक है| उन्होंने कहा कि कश्मीर का सवाल सबसे महत्वपूर्ण सवाल है| उसके कारण ही तीन युद्घ हुए और आतंकवाद फैला| वह हल होगा तो सहयोग का अनंत आकाश खुल जाएगा लेकिन हम यह भी मानते हैं कि कश्मीर एक मात्र मुद्दा नहीं है| हमारी ऑंख सिर्फ एक ही मुद्दा देखती हो, ऐसा नहीं है| पाकिस्तानी विदेश मंत्री का यह बयान पिछले 15 साल की भारतीय विदेश नीति की सबसे बड़ी उपलब्धि है| ये शब्द सुनने के लिए भारत के पिछले आधा दर्जन प्रधानमंत्री तरस गए लेकिन वे प्यासे ही चले गए| पिछले कई प्रधानमंत्रियों ने पाकिस्तान सरकार की यह बात मान ली कि दोनों देशों के बीच कश्मीर एक मुद्दा है लेकिन वे पाकिस्तान से यह नहीं मनवा सके िक वह एक मात्र मुद्दा नहीं है| कसूरी ने यह मान लिया| जाहिर है कि उनकी ऐसी मान्यता के पीछे पाकिस्तान की पूरी सरकार की ताकत है| यह उनकी व्यक्तिगत राय नहीं है और अगर यह सही है तो अब इस बात का भी कोई खास महत्व नहीं है कि कश्मीर को दो माह में हल हो जाना चाहिए या दो साल में ! अर्थात्र भारत-पाक संबंध कश्मीर के घर गिरवी नहीं रहेंगे| कश्मीर अपनी जगह रहेगा लेकिन आपसी संबंध अपनी गति से आगे बढ़ते रहेंगे याने घोड़ा अगाड़ी और गाड़ी पिछाड़ी रहेगी| | अब तक गाड़ी आगे थी और घोड़ा पीछे था| इसीलिए घोड़ागाड़ी आगे बढ़ती ही नहीं थी| अब वह बढ़ेगी| क्या यह बुनियादी उपलब्धि नहीं है?
भारत-पाक संबंधों के इसी ढॉंचे की मॉंग तो नटवरसिंह ने विदेश मंत्री बनते ही की थी| उन्होंने कहा था कि भारत-पाक संबंध उसी तज़र् पर आगे बढ़ें, जिस तर्ज़ पर भारत-चीन संबंध बढ़ रहे हैं| जैसे उन दोनों के बीच सीमा-विवाद आड़े नहीं आ रहा, वैसे ही कश्मीर-विवाद इन दोनों के आड़े नहीं आए| यह बात पाकिस्तान ने मान ली, इसका प्रमाण यह है कि वार्ता टूटी नहीं, बल्कि कई छोटे-मोटे मुद्दों पर उसे आगे बढ़ाने का संकल्प भी किया गया| इसमें शक नहीं कि कश्मीर विवाद अब भी पाकिस्तान के लिए केंद्रीय विषय है| अगर न होता तो प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह से कसूरी ये क्यों कहते कि कश्मीर-वार्ता के लिए अलग से दो उच्च प्रतिनिधि दोनों सरकारें नियुक्त कर दें| प्रधानमंत्री ने इस प्रस्ताव को फिलहाल यह कहकर टाल दिया कि जिन आठ समग्र मुद्दों पर बात हो रही है, उनमें कश्मीर भी शामिल है ही और दोनों विदेश सचिव उन पर भी बात करेंगे ही| प्रधानमंत्री का यह रवैया तो फिलहाल ठीक है लेकिन यदि संबंध-सुधार की सामान्य प्रक्रिया सहज रूप् से आगे बढ़ती है तो वे पाकिस्तानी प्रस्ताव पर दुबार भी गौर कर सकते हैं| कश्मीर का हल तो निकलना ही चाहिए और जल्दी ही निकलना चाहिए| इस संबंध में भारत को घबराने की बिल्कुल भी जरूरत नहीं है| भारत का पक्ष कानूनी और नैतिक दृष्टि से बहुत मजबूत है जबकि पाकिस्तान के पास भावावेश के अलावा कुछ नहीं है| पाकिस्तान के शासकों, विचारकों और फौज के पास भी कश्मीर का कोई संतोषजनक और युक्तिसंगत समाधान नहीं है| जनरल मुशर्रफ कहते हैं कि वे कश्मीर का ऐसा समाधान निकालेंगे, जिस पर दोनों पक्ष सहमत हों| जाहिर है कि ऐसा समाधान निकालने में लंबा समय लगेगा| चीन और अमेरिका के प्रतिनिधियों ने पोलैंड में लगातार डेढ़ दशक तक बातचीत की| भारत और पाकिस्तान भी अगर कश्मीर पर लगातार लंबी बात का मन बना सकें तो उस अवधि में दोनों के संबंध इतने अधिक घनिष्ट, परस्पर निर्भर और शायद आत्मीय भी हो जाऍंगे कि कश्मीर-विवाद अपने आप में कोई समस्या ही नहीं रह जाएगा| देखना यही है कि कहीं पाकिस्तान अचानक कश्मीर के हल के लिए समय-सीमा का राग न अलापने लगे, जैसा कि प्रधानमंत्री शौकत अजीज़ ने अपनी पहली भेंट-वार्ता में ही संकेत दिया है|
जहॉ तक सीमा-पार आतंकवाद का सवाल है, नटवरसिंह ने कसूरी के आने के पहले ही घंटी बजा दी थी| शायद इसीलिए कि अगर वे कश्मीर को छोड़े बिना नहीं मानेंगे तो हम पहले से ही आतंकवाद का मुद्दा क्यों न उठा दें| कूटनीति में इस तरह की पैंतरेबाजी चलती ही है लेकिन कुछ तनाव जरूर बढ़ गया था| पाकिस्तानी प्रवक्ता ने जवाबी हमूले में इस आरोप को रद्द किया और बताया कि पाकिस्तान तो खुद आतंकवाद का शिकार हो रहा है| गनीमत है कि मुशर्रफ की तरह उसने यह नहीं कहा कि कश्मीर मंे जो कुछ चल रहा है, वह आतंकवाद नहीं, स्वतंत्रता-संग्राम है| नहीं कहा, अर्थात्र पाकिस्तान के रवैए में परिवर्तन हुआ है| दिल्ली पहॅुंचकर पत्रकार परिषद्र में कसूरी ने सिर्फ इतना ही कहा कि कश्मीर में मानव अधिकारों का उल्लंघन हो रहा है| यह नहीं कि वहॉं स्वतंत्रता-संग्राम चल रहा है| उन्होंने यह भी कहा कि नटवरजी अगर सीमा-पार आतंकवाद का मामला नहीं उठाते तो शायद वे कश्मीर पर बोलते ही नहीं| इसका मतलब स्पष्ट है कि पाकिस्तान वार्ता को भंग नहीं करना चाहता| वह भारत-पाक वार्ता को चलाए रखना चाहता है| इसका मूल कारण यह भी हो सकता है कि अमेरिका दबाव डाल रहा हो| पाकिस्तानी विदेश नीति का यह सहज और स्वस्थ रवैया अगर दिसंबर तक चलता रहे तो काफी प्रगति की संभावना है| दिसंबर तक इसलिए कि तब तक मुशर्रफ अपना फौजी पद त्यागेंगे या नहीं और उधर अमेरिका में बुश निर्वाचित हुए या नहीं, यह भी पता चल जाएगा|
यदि पाकिस्तान कश्मीर पर नरम पड़ा है तो भारत सीमा-पार आतंकवाद पर पड़ा है| भारत को पता है कि मुशर्रफ के हाथ में अलादीन का चिराग नहीं है| उनके कहने भर से आतंकवाद रुकनेवाला नहीं है लेकिन दोनों पक्षों को यह भी पता है कि अगर पाकिस्तान हाथ खींच ले तो कश्मीरी आतंकवाद को लकवा मार जाएगा| पाकिस्तान में सरकार उतनी मजबूत नहीं है, जितनी कि हिंदुस्तान में| वहॉं सरकार के अलावा फौज, गुप्तचर विभाग और मज़हबी पार्टियों का जरूरत से ज्यादा दबदबा है| कश्मीरी आतंकवाद को अब ये ही तत्व हवा दे रहे हैं| भारत का जोर पाकिस्तानी सरकार को पटाने पर है लेकिन ज्यादा जरूरी यह है कि पाकिस्तान के उर्दू अखबारों, भारत-विरोधी नेताओं और कश्मीरी संगठनों से सीधी बात की जाए| यह खुशी की बात है कि पिछली सरकार की तरह भारत की वर्तमान सरकार कोप-भवन में जाकर नहीं बैठ गई है| उसने सीमा-पार आतंकवाद को अपने सतीत्व-रक्षा का मुद्दा नहीं बनाया है| उसके बहाने उसने बातचीत ठप नहीं की है| वह थोड़ी नरम पड़ी है, यथार्थवादी बनी है| भारत सरकार ने हुर्रियत के प्रति भी अपना रवैया थोड़ा नरम किया है, वरना उसके नेता पाकिस्तानी विदेश मंत्री से कैसे मिल पाते? ये अलग बात है कि हुर्रियत की फूट ने कसूरी को हतोत्साहित किया होगा| यदि भारत और पाकिस्तान के नेताओं के बीच कश्मीर के हल पर कोई गोपनीय सहमति हो जाए तो यह भी जरूरी है कि उसे वे कश्मीरी नेताओं के गले भी उतारें| ऐसा नहीं है कि कश्मीरी नेता भारत में ही सिरदर्द बने हुए हैं| पाकिस्तानी कश्मीरी नेता भी कम नहीं हैं| कश्मीर समस्या के पूर्ण समाधान के लिए सभी पक्षों को राजी करना परम आवश्यक है|
यह ठीक है कि विदेश मंत्रियों की इस दिल्ली-वार्ता में कोई नाटकीय घोषणाऍं नहीं हुईं लेकिन महत्वपूर्ण पहलों पर दुबारा मुहर लगी| जैसे श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस का विचार अभी भी जिंदा है| दिक्कत यही है कि पाकिस्तान कहता है कि यदि दोनों तरफ से कश्मीरी भारतीय और पाकिस्तानी पारपत्रों पर यात्रा करेंगे तो कानूनी तौर पर यह मान्य हो जाएगा कि वे भारत और पाक के नागरिक हैं और नियंत्रण-रेखा सीमा-रेखा मान ली जाएगी| पाक-आपत्ति सही है लेकिन क्या यथार्थ यही नहीं है? क्या समस्त कश्मीरी राज्यविहीन नागरिक हैं या अ-नागरिक हैं? क्या उनके पास कोई भी पारपत्र नहीं होते? यदि वे भारत और पाक के पारपत्रों पर सारी दुनिया में यात्रा कर सकते हैं तो कश्मीर के दोनों हिस्सों में क्यों नहीं आ-जा सकते? तक-वितर्क अभी चलता रहेगा| किसी न किसी नतीजे पर दोनों सरकारों को पहॅुंचना ही होगा| इसी प्रकार खोखरापार-मुनाबाओ रेल्वे लाइन भी खुलेगी और कराची व मुंबई में वाणिज्य दूतावास भी खुलेंगे| ये काम पहले ही हो जाने थे लेकिन अब जो नए संकल्प हुए हैं, लगता है, उनकी वजह से रफ्तार तेज हो जाएगी|
यह कम महत्वपूर्ण नहीं कि दोनों पक्षों ने सीमांत पर चले आ रहे शस्त्र-विराम का नवीकरण कर दिया है, सियाचित हिमनद से फौजें हटाने, खोखरापार-मुनाबाओ की रेल-यात्रा की दिक्कतों को दूर करने के लिए अक्तूबर में विदेश सचिवों के मिलने, दोनों देशों के तटरक्षकों के बीच हॉटलाइन स्थापित करने, वीजा में उदारता बरतने, अमृतसर-लाहौर बस-सेवा शुरूच् करने तथा दोनों देशों के प्रशिक्षु राजनयिकों के आदान-प्रदान आदि का संकल्प भी किया है| दोनों देशों के नेता, प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह और जनरल मुशर्रफ दो-तीन हफ्ते बाद न्यूयॉर्क में मिलेंगे ही ! अगल कई हफ्तों तक भारत और पाकिस्तान के उच्चाधिकारी या नेतागण एक-दूसरे से मिलते रहेंगे| इस बीच वे मध्य एशिया से भारत तक आनेवाली गैस और तेल की पाइप लाइन तथा अमृतसर से लाहौर तक की डीज़ल लाइन डालने की बात को भी आगे बढ़ाएंगे| भारत और पाकिस्तान के व्यापारी भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठे हैं| नेतागण जब तक वार्ता में व्यस्त रहेंगे, वे अपने व्यापार को अनेक नई ऊचाइयों तक पहॅुंचा देंगे| दोनों राष्ट्रों के राजनीतिक मुद्दे चाहे कितनी ही देर में हल हों अगर वे आपसी सहयोग के मार्ग का रोड़ा न बनें तो यह आपसी सहयोग ही उनके समाधान का कारण बन जाएगा|
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