दैनिक भास्कर – 08 जनवरी 2004 : इस्लामाबाद में हुए दक्षेस सम्मेलन ने लगभग असंभव को संभव बना दिया है| आगरा में जो तार टूटा था, उसके जुड़ने की दूर-दूर तक कोई संभावना नज़र नहीं आ रही थी| शक यह था कि अटलजी और मुशर्रफ में शायद भेंट ही न हो लेकिन ये सब शक और शुबहे गलत साबित हुए| इस्लामाबाद में जो संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ है और जिस तर्ज़ पर वह लिखा गया है, वह ही अपने आपमें ऐतिहासिक उपलब्धि है| उसे किसी भी तरह ताशकंद या शिमला समझौते या लाहौर-घोषणा से कम नहीं ऑंका जा सकता| यह ऐसी पहली घोषणा है, जिसका न तो पाकिस्तान के अंदर विरोध हो रहा है और न भारत के ! दुनिया के सभी देश इसका स्वागत कर रहे हैं| इस घोषणा का महावाक्य यह है कि दोनों देश कश्मीर समेत सभी मुद्दों के शांतिपूर्ण समाधान पर तब तक बातचीत करते रहेंगे, जब तक कि दोनों को संतोष न हो जाए| इसका मतलब है, दोनों झुकेंगे, दोनों लचीले बनेंगे, व्यावहारिक हल ढॅूढेंगे| दोनों के संतोष की बात अब से पहले कभी नहीं कही गई थी| शिमला समझौते में दोनों आपस में बात करेंगे, यह कहा गया था लेकिन पारस्परिक संतोष की बात कहकर इस संयुक्त वक्तव्य ने भारत-पाक संबंधों को एक दम नए धरातल पर पहॅुंचा दिया है| कश्मीर पर बात करने के लिए मुशर्रफ ने भारत को मना लिया है, यह पाकिस्तान की विजय है और भारत ने सभी प्रकार के आतंकवाद पर प्रहार करने का वायदा पाकिस्तान से ले लिया है, यह भारत की विजय है| यह ऐसी घोषणा है, जिसने दोनों देशों की बात रख ली| किसी की नाक नीची नहीं होने दी| दोनों जीत गए !
न पाकिस्तान ने संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव का राग अलापा और न ही भारत ने, ‘कश्मीर हमारा अटूट अंग है’, कहा| आतंकवाद का मुकाबला करने की बात जितने जोर से संयुक्त वक्तव्य में कही गई है, उससे भी ज्यादा जोशीले ढंग से मुशर्रफ ने अपने पत्रकार-सम्मेलन में कही है| अभी-अभी दो प्राणलेवा हमलों में बचे मुशर्रफ अंदर से हिल गए हैं| उन्हें भी पता चल गया है कि आतंकवाद का जिन्न जिस बोतल में पनपता है, वह किसी दिन उस बोतल को ही उड़ा देता है| इस चमत्कारी संयुक्त वक्तव्य के जारी होने का यह पहला कारण है| दूसरा कारण, अमेरिकी दबाव है| पाकिस्तान अभी तक स्वायत्त राष्ट्र नहीं बन पाया है| उसकी सरकार पैसे, हथियार और समर्थन के लिए पश्चिमी देशों पर आजकल पहले से भी ज्यादा निर्भर है| इसीलिए उसे पहले अफगान आतंकवाद और अब कश्मीरी आतंकवाद के विरुद्घ स्पष्ट घोषणा करनी पड़ी है| तीसरा, पाकिस्तान के हुक्मरान अब यह समझ चुके हैं कि यदि वे हजार साल भी लड़ते रहेंगे तो भी डंडे के जोर पर भारत से कश्मीर छीन नहीं सकेंगे| आतंकवाद को वे जिस स्तर तक ले जा चुके हैं, उससे आगे नहीं बढ़ा सकेंगे| इसीलिए अब बात करना ही बेहतर है| चौथा, बात शुरू हो, इसके लिए जरूरी है कि वे सीमा-पार आतंकवाद को रोकने का आश्वासन दें| यह आश्वासन दिए बिना अगर पाक बात करना चाहे, जैसा कि वह चाहता रहा है तो भी भारत तैयार नहीं था| इसीलिए संयुक्त वक्तव्य में आतंकवाद के विरुद्घ पाक को दो-टूक रवैया अपनाना पड़ा| पॉंचवॉं, पाकिस्तान की जनता कश्मीर से थक चुकी है| आम आदमी जब भावावेश में नहीं होता तो आपस में पूछता है कि कश्मीर ने हमें क्या दे दिया? 1997 के आम-चुनाव में नवाज़, बेनज़ीर और इमरान ने कश्मीर का जि़क्र तक नहीं किया था| पाकिस्तान का आम आदमी भारत के साथ शांतिपूर्ण संबंध चाहता है| इस लोकमत की अभिव्यक्ति पाकिस्तान के वर्तमान रवैए में हुई है| छठा, मुशर्रफ ने जबसे तख्ता-पलट किया, वे कॉंटों की कुर्सी पर बैठे थे| पहली बार फौज के साथ-साथ संसद, विरोधी दल और जनता ने उनको अपना नेता माना है| ताज़ातरीन संवैधानिक समझौते ने उनकी राजनीतिक छवि और लोकपि्रयता में चार चॉंद लगाए हैं| 2004 के मुशर्रफ की स्थिति 1966 के अयूब और 1972 के जुल्फिकार अली भुट्टो से कहीं अधिक बेहतर है| इस नए आत्म-विश्वास ने मुशर्रफ को भारत के प्रति अधिक यथार्थवादी बनाया है| सातवॉं, पाकिस्तान के नीति-निर्माता यह भली-भॉंति समझ गए हैं कि अगर उन्हें मध्य एशियाई गणतंत्रों कीअपार सम्पदा का लाभ दुहना है तो भारत को वहॉं तक सुरक्षित रास्ता देना होगा| भारत के लिए ईरान और अफगानिस्तान के मार्ग अगले दो-तीन साल में खुलनेवाले हैं| अगर पाकिस्तान अडंगा बना रहेगा तो वह इस बहती गंगा में हाथ नहीं धो पाएगा| इसीलिए पाकिस्तानी नेताओं ने राजनीतिक विवादों को पर्दे के पीछे खिसकाने का मन बनाया है| आठवॉं, दक्षेस के सभी देशों ने मुक्त व्यापार के समझौते पर दस्तखत किए| अगर भारत-पाक व्यापार रुका रहता तो यह समझौता बेकार-सा हो जाता| इसीलिए पाकिस्तान ने हवा का रुख पहचाना और कश्मीर के रोड़े को पीछे सरका दिया| नौवॉं, संयुक्त वक्त के जारी होने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण स्वयं प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी भी हैं| उन्होंने मुशर्रफ को सचेत रहने को कहा| बड़े भाई की तरह उनका कुशल-क्षेम चाहा| मुशर्रफ का दिल पिघला और उन्हें यह महसूस हुआ कि भारतीय प्रधानमंत्री सदाशयी व्यक्ति हैं| इसीलिए राष्ट्रपति मुशर्रफ और प्रधानमंत्री जमाली ने अटलजी की तारीफ के पुल बॉंध दिए| नेहरू-लियाकत पेक्ट से लेकर अब तक कई समझौते भारत और पाकिस्तान के नेताओं के बीच हुए लेकिन पाकिस्तानी नेताओं ने भारतीय नेताओं की इतनी भावभीनी प्रशंसा पहले कभी नहीं की|
ऐसा लगता है कि भारत-पाक संयुक्त वक्तव्य से पाकिस्तानी नेता अत्यधिेक उत्साहित थे लेकिन अभी तो बात की बात हुई है, क्या बात होगी, यह फरवरी में ही पता चलेगा| उम्मीद है कि मुशर्रफ आतंकवाद और ‘तथाकथित स्वाधीनता संग्राम’ में फर्क करना बंद करेंगे| भारत सरकार को अब मुशर्रफ नहीं, मुशर्रफ के विरोधियों पर काम करना होगा| काज़ी हुसैन अहमद जैसे भारत-विरोधियों को नरम करना होगा| कश्मीरी जनता के साथ भारत और पाकिस्तान दोनों को सार्थक संवाद शुरू करना होगा| भारत-पाक मैत्री की राह अभी एकदम सपाट नहीं हुई है लेकिन जितने रोड़े इस बार हटे हैं, पहले कभी नहीं हटे| जिस भावना से संयुक्त वक्तव्य लिखा गया है, यदि वही भावना कुछ वर्षों तक सर्वोपरि रहे तो 21वीं सदी को एशिया की सदी बनाना कठिन नहीं होगा|
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