NavBharat Times, 5 Aug 2005 : प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह और अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के बीच जो परमाणु समझौता हुआ है, उसके तकनीकी पक्षों पर विशेषज्ञों के बीच काफी बहस हो चुकी है| प्रधानमंत्री ने संसद में अमेरिका के साथ समान पारस्परिकता का आश्वासन देकर अनेक संशय दूर कर दिए हैं| लेकिन फिलहाल यह जरूरी है कि इस समझौते को विदेश नीति की तात्कालिक और दीर्घकालिक दृष्टि से देखा जाए|
भारत-अमेरिका समझौता भारतीय विदेश नीति में मूलभूत परिवर्तन का प्रतीक है| यह गुटनिरपेक्षता की नीति को भारत का अंतिम प्रणाम है| भारत पहली बार विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के साथ जुड़ा है| सोवियत संघ के साथ भारत का जुड़ाव वर्षों रहा है लेकिन वह दोयम दर्जे की महाशक्ति के साथ जुड़ना था| उस समय शीतयुद्घ के कारण एक प्रकार का शक्ति-संतुलन बना हुआ था| इसीलिए सोवियत समीपता के बावजूद भारत को उसके आगे अपने घुटने टेकने नहीं पड़े| अब डर यह है कि अमेरिका दुनिया की एकमात्र सर्वोच्च शक्ति है| कोई शीतयुद्घ भी नहीं है| तो क्या भारत को अमेरिका के परमाणु-सहयोग के बदले उसके आगे घुटने टेकने पड़ सकते हैं? यदि प्रणव मुखर्जी वाले ‘फ्रेमवर्क समझौते’ पर नजर डालें तो लगता है कि ऐसी नौबत कई मुद्दों पर आ सकती है और हम अमेरिका को इस बारे में पहले ही आश्वस्त कर चुके हैं| याने लोकतंत्र बचाने, समान हितों की रक्षा करने, प्रक्षेपास्त्र-विरोधी परमाणु छतरी लगाने, अमेरिकी शस्त्रास्त्र आदि खरीदने के मुद्दों पर भारत को ऐसे सब काम करने पड़ सकते हैं, जिनका वह अब तक विरोध करता रहा है| जैसे एराक़ और अफगानिस्तान तथा जरूरत पड़ने पर ईरान में भी अमेरिकी इशारे पर फौजें भेजना, हिंद महासागर की चौकीदारी करना, पाकिस्तान के प्रति नरम रवैया अपनाना, संयुक्तराष्ट्र में अमेरिका के पक्ष में मतदान करना, तीसरी दुनिया के राष्ट्रों में अमेरिका की वकालत करना आदि ! मनमोहनसिंह-बुश समझौते में इस तरह की संभावनाओं का दूर-दूर तक जि़क्र नहीं है लेकिन मुखर्जी-रम्सफेल्ड समझौते ने जो रपटीला गुप्त-मार्ग पहले ही खोल दिया है, यदि मनमोहन-सरकार ने उस पर फूंक-फूंककर कदम नहीं रखा तो जो भारत तीसरी दुनिया का अग्रगण्य माना जाता है, उसकी हैसियत अमेरिका के पिछलग्गू की तरह हो जाएगी| यह स्थिति भारत की जनता बर्दाश्त नहीं करेगी| यह सरकार स्वयं खटाई में पड़ जाएगी|
सरकार की चतुराई इसी में है कि वह अमेरिकी-समीपता का भरपूर लाभ उठाए लेकिन न तो वह अपने राष्ट्रहित की हानि होने दे और न ही अपनी छवि बिगड़ने दे| अमेरिका के साथ अपनी घनिष्टता बढ़ाने के लिए उसके पूर्व-विरोधी रूस और चीन ने क्या-क्या पापड़ नहीं बेले हैं? भारत का तो कोई विचारधारात्मक मतभेद भी अमेरिका के साथ नहीं रहा है| दोनों देश लोकतांत्र्िाक हैं, भारत के अंग्रेजीदां लोग अमेरिका की सहर्ष कुलीगीरी में निमग्न हैं और भारत उसके लिए चीन की तरह कोई चुनौती भी नहीं बननेवाला है| ऐसी स्थिति में भारत पीछे क्यों रहे? फायदे की दौड़ में वह चाहे तो सबसे आगे निकल सकता है लेकिन उसे यह ध्यान रखना होगा कि अगर विश्व-राजनीति में सिर्फ एक गुलीवर रह गया तो बाकी सारे राष्ट्र लिलिपुट बन जाएंगे याने अमेरिका संपूर्ण विश्व का एकमात्र निरंकुश अधिपति बन जाएगा और चीन व भारत जैसे विशाल राष्ट्रों को भी उसके इशारों पर नाचना होगा| हम यह न भूलें कि पिछले कुछ वर्षोंं में हमारा कोई भी प्रधानमंत्री जब भी किसी यूरोपीय, रूसी, चीनी या एशियाई नेता से मिला है तो उसने सदा अनेकध्रुवीय विश्व राजनीति का राग अलापा है| यदि भारत अमेरिका का अनुचर बन गया तो यह 21वीं सदी एशिया की नहीं, अमेरिकी साम्राज्य की सदी बन जाएगी|
अमेरिकी साम्राज्य एशिया में सर्वथा निरापद होना चाहता है| उसे चीन से भय है| अमेरिकी विशेषज्ञों की भविष्यवाणी है कि अगले 15 वर्ष में अमेरिका के मुकाबले चीन अधिक मालदार हो जाएगा| उसकी सैन्य शक्ति भी कई गुना बढ़ जाएगी| इसीलिए भारत को मोहरा बनाना जरूरी है| चीन को चित करने का अमेरिकी इरादा पक्का हो सकता है और उसका संकेत अमेरिकी विदेश मंत्री कंडोलीज़ा राइस ने स्पष्ट रूप से दिया भी है लेकिन भारत को सावधान रहना होगा कि वह अमेरिका का मोहरा किसी क़ीमत पर न बने| उसे हर कदम बढ़ाते समय सोचना होगा कि वह चीन को बेवजह नाराज़ न करे| उसने बुश-मनमोहन समझौते की स्पष्ट आलोचना नहीं की है लेकिन चीनी अखबारों ने पेन्टागॉन की उस रपट पर तेजाबी संपादकीय लिखे हैं, जिसमें चीन को अमेरिका के लिए खतरा बताया गया है और भारत को उसके विरुद्घ खड़ा करने की वकालत की गई है| अमेरिकी ये भूल रहे हैं कि 58 साल में भारत से उनका व्यापार सिर्फ 20 बिलियन डॉलर तक गया है जबकि चीन से यह व्यापार पिछले पॉंच-सात साल में कूदकर 15 बिलियन डॉलर हो गया है| अगले दो-तीन वर्षों में चीन भारत का सबसे बड़े टे्रड-पार्टनर बन जाएगा| दोनों पड़ौसी हैंं दोनों में संस्कृति और सभ्यता के गहरे और सुदीर्घ संबंध हैं| अफ्रो-एशियाई राजनीति के अनेक मुद्दों पर उनकी एक राय है| वे अपना सीमा-विवाद भी बातचीन से सुलझा रहे हैं| वे अमेरिका की खातिर आपस में क्यों झगड़ेंगे?
जहां तक पाकिस्तान का सवाल है, भला वह अपने स्वामी की निंदा कैसे कर सकता है? उसने बुश-मनमोहन समझौते पर प्रहार नहीं किया, हालांकि इस समझौते ने पाकिस्तान को भारत के मुकाबले एक पायदान नीचे उतार दिया है| बुश ने पाकिस्तान को नाटोतुल्य माना है जबकि अब भारत को अमेरिकातुल्य मान लिया है| कोई आश्चर्य नहीं कि अब पाकिस्तान अमेरिका के आगे तीन मांगें रखे| एक तो उसे भी भारत की तरह असैनिक परमाणु-सहयोग दिया जाए, एफ-16 जैसे युद्घक शस्त्रास्त्र बड़ी मात्रा में दिए जाएं, कश्मीर आदि मुद्दों पर भारत को दबाया जाए लेकिन क्या अमेरिका भारत की तरह पाकिस्तान को ‘उच्च परमाणु तकनीक सम्पन्न जिम्मेदार राष्ट्र’ घोषित कर सकता है? बिल्कुल नहीं| चोरी की तकनीक से बनाए गए बम और बम-निर्माता ए.क्यू. क़दीर खान के विरुद्घ मुकदमा चलना चाहिए या उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए? अब पाकिस्तान को उसी खेमे में रहना है, जिसमें भारत भी जाकर उच्चासन पर बिराज गया है| यह स्थिति विस्फोटक भी हो सकती है और संतोषजनक भी हो सकती है| पाकिस्तान हमेशा के लिए चुप भी हो सकता है|
बुश-मनमोहन समझौते ने ईरान के भी कान खड़े कर दिए हैं| ईरान ने भारत की आलोचना बिल्कुल नहीं की लेकिन यह जरूर कहा है कि अमेरिकी परमाणु नीति दुरंगी है| जिस भारत ने परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं किए, उसे परमाणु सहयोग से नवाज़ा जा रहा है और जिस ईरान ने किए हैं, उसका गला दबाया जा रहा हैं| यह आपत्ति अर्जेन्टिना, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका, इटली जैसे ‘दहलीज़ राष्ट्र’ भी उठाएंगे, जो बम बना सकते थे लेकिन जिन्होंने एन.पी.टी. पर दस्तखत कर दिए और बम नहीं बनाया| अमेरिका चाहेगा कि अब भारत मध्य एशिया के गैस और तेल के लिए भी ज्यादा हाथ-पांव न मारे| उन पर अमेरिका अपना एकाधिकारी वर्चस्व चाहता है| यदि इस मुद्दे पर भारत दब गया तो वह पूर्णतया अमेरिका का शरणागत बन जाएगा और विश्व-शक्ति बनना तो दूर रहा, क्षेत्रीय महाशक्ति बनने का उसका सपना भी चूर-चूर हो जाएगा| अमेरिकी असैनिक परमाणु-सहयोग के द्वार खुलने से रूस, फ्रांस और बि्रटेन जैसे परमाणु-सप्लायर्स क्लब के राष्ट्र भी भारत को अपना परमाणु माल बेचेंगे और भारत शक्तिशाली बनेगा लेकिन यह कितना दुखद होगा कि गांधी और नेहरू का यह देश विश्व-निरस्त्रीकरण के मुद्दे पर मौनी बाबा बनकर बैठ जाए| मनमोहनसिंह को तय करना है कि भारत मुस्कराता हुआ बुद्घ बने या होठ सिला हुआ मौनी बाबा?
03 अगस्त 2005
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