Dainik Hindustan, 16 March 2010 : रूसी प्रधानमंत्री ब्लादिमीर पुतिन की इस भारत-यात्रा ने दोनों देशों के संबंधों को नया आयाम दे दिया है। ख्रुश्चेव, बुल्गानिन और ब्रेझनेव का युग न तो अब लौट सकता है और न ही इस बहुध्रुवीय विश्व में अब उसकी जरूरत है लेकिन भारत-रूस संबंधों में अचानक जो ठंडापन आ गया था, उनमें ऊष्मा भरने का काम ब्लादिमीर पुतिन ने किया है, पहले राष्ट्रपति के रूप में और अब प्रधानमंत्री के रूप में। रूसी संविधान मेंप्रधानमंत्री की कोई खास हैसियत नहीं होती लेकिन पुतिन तो पुतिन हैं, वे राष्ट्रपति रहें या प्रधानमंत्री। वे सत्तारूढ़ दल के अध्यक्ष हैं और संपूर्ण रूसी सत्ता-प्रतिष्ठान के कर्णधार भी! वे अपने राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव को भी भारत भेज सकते थे लेकिन वे खुद भारत आए, यह अपने आप मेंमहत्वपूर्ण बात है। यह उनकी पाँचवी भारत-यात्रा थी। इतनी भारत-यात्राएं किसी भी रूसी नेता ने नहीं कीं।
पुतिन की इस यात्रा का सबसे बड़ा संदेश यही है कि शीत-युद्ध के अभाव के बावजूद भारत-रूस घनिष्ठता के नए दौर का प्रारंभ हो गया है। रूस को समझ में आ गया है कि अमेरिका और यूरोप के पीछे भागने से उसके राष्ट्रहितों की रक्षा नहीं हो सकती। वे राष्ट्र रूस को सदा अपने प्रतिद्वंद्वी की तरह देखते हैं और उनका प्रयत्न रहता है कि वे रूस को नाटो से घिरवाएं और उसकी कमजोरियों का फायदा उठाकर पूर्वी यूरोप और मध्य एशिया के उसके मित्र-राष्ट्रों को उससे अलग करें। लेकिन रूस के संबंध में भारत की महत्वाकांक्षाएं दूर-दूर तक इस तरह की नहीं हैं। सच्चाई तो यह है कि मध्य एशिया और दक्षिण एशियामें भारत के जो भी राष्ट्रहित हैं, इनसे रूस का रत्ती भर भी विरोध नहीं है बल्कि दोनों राष्ट्रों के हितों में अपूर्व सामंजस्य है। इस तथ्य की खुली स्वीकृति पुतिन ने दिल्ली में की। उन्होंने कहा कि अफगानिस्तान में भारत और रूस आतंकवाद को समान शत्रु के रूप में देखते हैं। उन्होंने यह भी कह दिया कि रूस पाकिस्तान को इसीलिए हथियार भी नहीं देता है। भारत के प्रति रूस और अमेरिका के रवैए में यहीं बुनियादी फर्क है। आतंकवाद भारत और अमेरिका का भी समान शत्रु है लेकिन इसके बावजूद अमेरिका पाकिस्तान को हथियार देता रहता है। वे हथियार ज्यादातर भारत के विरुद्ध ही इस्तेमाल होते हैं। दूसरे शब्दों में रूस अपने हितों की रक्षा के साथ-साथ भारत के हितों की भी रक्षा करता है जबकि अमेरिका का जोर सिर्फ अपने हितों की रक्षा पर रहता है।
अमेरिका के मुकाबले भौगोलिक दृष्टि से रूस हमारे ज्यादा निकट है। इस क्षेत्र में वह अपनी भूमिका कुछ और तेज क्यों नहीं करता? वह पाकिस्तान से अपने आर्थिक और सैन्य संबंध घनिष्ठ क्यों नहीं बनाता? यदि पाकिस्तान से उसकी घनिष्टता बढ़ेगी तो वह भारत के लिए भी लाभदायक हो सकता है। अमेरिका के मुकाबले वह पाकिस्तान पर ज्यादा और सही दबाव डाल सकता है। ज़रा याद करें अब से लगभग 30 साल पहले का वह समय जब ब्रेझनेव ने बार-बार फियरूबीन को इस्लामाबाद भेजकर इस तरह की कोशिश की थी। अफगानिस्तान से अमेरिकी वापसी के बाद इस क्षेत्र में रूसी भूमिका अपने आप बहुत बढ़ जाएगी। किसी भी क्षेत्रीय समाधान में रूस और भारत की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसी संदर्भ में पुतिन और मनमोहन सिंह को अपने पुराने और बुरे अनुभव के दुष्चक्र से भी बाहर निकलना होगा। तालिबान से बात करने का विरोध ठीक नहीं है। यदि हामिद करज़ई बात करना चाहते हैं और लंदन सम्मेलन का इस पहल को पूरा समर्थन है तो हमें भी पहल करनी चाहिए। अफगानिस्तान और पाकिस्तान के पठान भारत और रूस की घनिष्ठ मित्र रहे हैं। पांच-सात साल के तालिबानी दु:स्वप्न की वजह से हम अपने विकल्प क्यों रुंधने दें? यह सुखद संयोग है कि अफगानिस्तान के सवाल पर ईरान का रवैया भारत और रूस के काफी निकट है। यह ठीक है कि ईरान और अमेरिका के संबंध सहज नहीं हैं लेकिन भारत चाहे तो अब ईरानी और जल और थल-मागरें का इस्तेमाल करके अफगानिस्तान ही नहीं रूस और मध्य एशिया के राष्ट्रों से भी अपने संबंध काफी गहरे बना सकता है। भारत ने अफगानिस्तान के पश्चिमी सीमांत पर जरंज-दिलाराम सड़क बनाकर सहयोग की अनंत संभावनाओं के द्वार खोल दिए हैं।
पुतिन की इस भारत-यात्रा के दौरान जो समझौते हुए हैं, उन्होंने दोनों राष्ट्रों को दोबारा सच्चे सामरिक-मित्र बना दिया है। रूस भारत में न केवल लगभग दर्जन भर परमाणु संयंत्र लगाएगा बल्कि परमाणु ईंधन के पुर्नसशोधन की वे सुविधाएं भी देगा जो अमेरिका नहीं दे रहा है। वह ‘भारी पानी’ के संयंत्र भी लगाएगा। भारत के हर प्रांत में रूस परमाणु बिजलीघर बनाना चाहता है ताकि भारत के किसी घर में अंधेरा न रहे। वह भारत को उसके सखालिन द्वीप-समूह क्षेत्र में तेल निकालने की नई सुविधाएं भी देगा। मिग-29 युद्धक विमान भी भारत को मिलेंगे। विमानवाहक जलपोत गोर्शकोव की खरीदी का विवाद भी संतोषजनक ढंग से निपट गया हैं। ईरान और अफगानिस्तान के जरिए रूस तक पहुंचने वाले मार्गों का उपयोग होने लगे तो भारत-रूस व्यापार 8 बिलियन डॉलर पर ही नहीं अटका रहेगा। नए तेल की खोज दोनों राष्ट्रों के लिए सामरिक दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण होगी। दोनों राष्टों का यह सामरिक सहकार न तो अमेरिका के लिए कोई खतरा बनेगा और न ही चीन के लिए! वास्तव में भारत-रूससहकार तो चीन की उस विराट योजना में चार चांद लगाएगा, जिसके तहत वह पूरे एशिया को रेल द्वारा यूरोप से जोड़ना चाहता है। यदि मध्य एशिया के अछूते खनिज भंडारों को खोदने की स्वस्थ प्रतिस्पर्धा रूस, चीन और भारत के बीच चल पड़े तो अगले दस वर्षों में एशिया यूरोप से भी आगे निकल सकता है।
इस क्षेत्र में अमेरिका भी अपना वर्चस्व कायम करना चाहता है। इसीलिए उसने अफगानिस्तान में अपनी फौजें भेज रखी हैं और उज़बेकिस्तान और किरगिजीस्तान में अपनी उपलब्धि बढ़ा दी है, लेकिन अपने इराक़ और अफगानिस्तान के कटु अनुभवों ने उसे कुछ नई सीख भी दी है। अपनी विस्तारवादी प्रवृत्तियों के कारण उसकी अर्थ-व्यवस्था, समाज और फौज पर उलटा असर हो रहा है। वह आजकल मोह-भंग की मुद्रा मेंहै। ऐसी स्थिति से उत्पन्न होनेवाले शून्य को रूस, भारत और चीन ही भर सकते हैं। इन तीनों राष्ट्रों में जिन दो राष्ट्रों के बीच गहरा और अडिग पारस्परिक विश्वास रहा है, वे भारत और रूस ही हैं। वे अब भी मिलकर आगे क्यों न बढ़ें?
लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं
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