Dainik Hindustan, 23 December 2010 : इस साल पांचों महाशक्तियों के नेता भारत आए, लेकिन रूस के राष्ट्रपति दिमित्री मेदवेदेव ने सबको पीछे छोड़ दिया। वे सबसे बाद में आए, लेकिन वे सबसे आगे रहे। उन्होंने भारत की हर राजनीतिक शिकन की चिंता की और उसको दूर करने में सहयोग का वादा किया। जो बातें केमरॉन, सरकोजी, ओबामा और वेन जियाबाओ नहीं कह सके या कहते वक्त हकलाते रहे, वे उन्होंने दो-टूक शब्दों में कही और हमें जितनी आशा थी, उससे भी बेहतर ढंग से कही।
सबसे पहले पाकिस्तान को ही लें। अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के नेताओं ने पाकिस्तान में पनपे आतंकवाद की निंदा जरूर की, लेकिन रूसी नेता मेदवेदेव ने जिन शब्दों का प्रयोग करने की हिम्मत दिखाई है, वह बेजोड़ है। उन्होंने संयुक्त व्यक्तव्य और पत्रकार सम्मेलन में साफ-साफ कहा कि कोई भी सभ्य राष्ट्र आतंकवादियों को प्रोत्साहित करने और अपने यहां छिपाकर रखने का काम नहीं कर सकता।
उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान की जमीन पर पनप रहे आतंकवादी अड्डों को जब तक उड़ाया नहीं जाएगा, इन राष्ट्रों में स्थायित्व और शांति का लौटना असंभव है। आतंकवादियों को प्रोत्साहित करने और संरक्षण देनेवाले खुद भी आतंकवादी माने जाने चाहिए।
संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव को लागू करते हुए आतंकवादियों को अब तक गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया? मुंबई के आतंकवादी खुलेआम कैसे घूम रहे हैं? ऐसे सीधे सवाल किसी भी अन्य विदेशी नेता ने नाम लेकर पाकिस्तान से नहीं पूछे। उनकी इस भारत-यात्रा ने खुश्चेव और बुल्गानिन की भारत-यात्रा की याद ताजा कर दी। उन्होंने यह भ्रम दूर कर दिया कि पश्चिमी देशों के साथ भारत की बढ़ती हुई घनिष्टता के कारण भारत-रूस संबंध जरा निचले पायदान पर खिसक गए हैं।
रूसी नेता ने अफगान-संकट के हल में विशेष रुचि दिखाई। वास्तविकता तो यह है कि अफगानिस्तान जितना बड़ा सिरदर्द रूस और भारत के लिए बन सकता है, उतना वह अमेरिका और पश्चिम के लिए नहीं रहा है। यदि 9/11 नहीं होता तो अफगानिस्तान की तरफ मुड़कर भी नहीं देखता अमेरिका, जबकि भारत पर ज्यादातर आतंकवादी हमलों की खिचड़ी पाक-अफगान सीमांत के अड्डों पर ही पकती रही है।
सोवियत संघ के विघटन में अफगान युद्ध का विशेष हाथ रहा है। आज रूस को मादक-द्रव्यों के नशे में डुबोनेवाला अफगानिस्तान ही है। हाल ही में रूस और अमेरिका ने मिलकर कंधार के मादक-द्रव्यों के अड्डों पर छापे मारे हैं। आजकल नाटो फौजों को रूस अपनी सीमा में से पारगमन की सुविधा भी दे रहा है। यदि भारत और रूस चाहें तो दोनों मिलकर पांच लाख जवानों की एक शक्तिशाली अफगान फौज सिर्फ साल भर में खड़ी कर सकते हैं, जो तालिबान को तो ठिकाने लगा ही देगी।
मेदवेदेव ने सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सीट के बारे में भी फैले भ्रम का भी निराकरण कर दिया। कुछ विशेषज्ञ यह मानने लगे थे कि इस मामले में चीन और अमेरिका के टालू बयानों को देखते हुए रूस का उत्साह भी ठंडा पड़ने लगा है, लेकिन मेदवेदेव के शब्दों पर अगर हम ध्यान दें तो पता चलेगा कि इस मुद्दे पर भारत का शक्तिशाली प्रवक्ता बन गया है रूस।
रूसी राष्ट्रपति ने कहा है कि सुरक्षा परिषद की स्थायी सीट पाने का भारत ‘पूरा हकदार है और सुयोग्य है।’ उन्होंने यह भी कहा कि अगले दो साल के दौरान, जबकि भारत को अस्थायी सदस्यता मिली हुई है, भारत और रूस सुरक्षा परिषद में मिल-जुलकर काम करेंगे। क्या किसी अन्य महाशक्ति ने ऐसा शुभ-संकल्प व्यक्त किया? अमेरिकी विदेश विभाग के एक अधिकारी ने तो यहां तक कह दिया था कि इन दो वर्षो में भारत के आचरण की निगरानी करेगा अमेरिका यानी भारत ‘प्रोबेशन’ पर रहेगा।
रूसी राष्ट्रपति ने भारत को परमाणु-शक्ति के रूप में भी मान्यता दी है। उन्होंने भारत की तुलना अमेरिका, फ्रांस और रूस से की है। भारत को उन्होंने परमाणु-संगठनों की सदस्यता ग्रहण करने में सहयोग का आश्वासन दिया है। वे चाहते हैं कि भारत शंघाई परिषद और एपेक जैसे क्षेत्रीय संगठनों का भी सदस्य बने और उनमें अग्रगण्य भूमिका निभाए।
दोनों राष्ट्रों ने परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोगों के लिए संयुक्त कार्यक्रम चलाने की भी इच्छा प्रकट की है। ये कार्यक्रम अन्य देशों में भी चलेंगे। इस तरह का परमाणु-सहयोग अभी तक किसी अन्य महाशक्ति के साथ भारत ने प्रारंभ नहीं किया है। ऐसा लगता है, मानो भारत और रूस के संबंधों में वैसी ही घनिष्टता उत्पन्न होती जा रही है, जैसी कभी भारत-सोवियत संबंधों में थी।
इस यात्रा के दौरान संपन्न हुए 30 समझौते 30 बिलियन डॉलर से भी ज्यादा के हैं। पांचवीं पीढ़ी के युद्धक विमानों को बनाने का जो सौदा अभी हुआ है, वह 1500 करोड़ रुपये का है, लेकिन जब ये 300 विमान तैयार हो जाएंगे तो यह सौदा लगभग डेढ़ लाख करोड़ रुपये का होगा। इतना बड़ा रक्षा-सौदा अभी तक भारत ने किसी अन्य राष्ट्र के साथ नहीं किया है।
कुंदनकुलम में लग रहे चार रूसी रिएक्टरों के अलावा अब तीन अन्य स्थानों पर 18 परमाणु रिएक्टर बनाने पर भी दोनों पक्षों ने चर्चा की है। रूसी पक्ष अभी भारत के परमाणु हर्जाना कानून को थोड़ा और समझना चाहता है, अन्यथा नए रिएक्टरों पर ठोस समझौता इसी यात्रा के दौरान हो जाता।
दोनों देशों के बीच व्यापार उस तेज गति से नहीं बढ़ पा रहा है, जितना भारत और चीन के बीच बढ़ता रहा है। इसका एक बड़ा कारण तो यह है कि भारत और रूस के बीच कोई सीधा थल या जलमार्ग नहीं है। यदि पाकिस्तान अड़ंगा न लगाए तो अफगानिस्तान होकर रूस पहुंचना कठिन नहीं है।
पूर्व-सोवियत गणतंत्रों में रेलों और सड़कों का जाल बिछा हुआ है। इसके अलावा रूस को हमारे कच्चे लोहे जैसे किसी खनिज की भी वैसी जरूरत नहीं है, जैसी चीन को है। फिर भी दोनों राष्ट्रों ने लक्ष्य रखा है कि 2015 तक द्विपक्षीय व्यापार 4.7 से बढ़कर 20 बिलियन डॉलर तक पहुंच जाएगा। इस व्यापार में दवाइयों की खरीद-फरोख्त और निर्माण का बड़ा योगदान हो सकता है।
व्यापार और आवागमन बढ़े, इसलिए रूस ने अपनी वीजा-नीति को भी उदार बनाने की घोषणा की है। दोनों राष्ट्र हाइड्रो-कार्बन सेक्टर और अंतरिक्ष तकनीक के क्षेत्र में सहयोग बढ़ाएंगे। इन सब क्षेत्रों में दोनों देशों को अपूर्व सफलता अवश्य मिलेगी, क्योंकि पारस्परिक सहयोग का काफी पुराना इतिहास उनके साथ है, इसके अलावा दोनों पक्षों ने माना है कि भारत-रूस संबंध ‘अत्यंत विशिष्ट और अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।’
लेखक भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं
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