दैनिक हिन्दुस्तान, 18 फरवरी 2011 : अपने पड़ौसियों के बारे में चीन का असली सोच क्या है, यह पता लगाना आसान नहींहै| साम, दंड, भेद से भरी चीनी कूटनीति कब कौनसा पैंतरा अख्तियार करेगी, पता नहीं चलता| कौटिल्य का अर्थशास्त्र् लिखातो गया है भारत में लेकिन उसे लागू किया जाता है, चीन में ! चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की प्रसिद्घ सैद्घांतिक पत्रिका, ‘सत्य कीखोज‘ के ताजा अंक में एक लेख छपा है, जिसमें भारत को अमेरिका का अनुचर और चीन का प्रतिद्वंदी बताया गया है| लेखकसू युन हांग ने भारत को युद्घ की धमकी भी दी है|
यह लेख इतना आक्रामक है कि भारतीय विदेश मंत्रलय को इस पर अधिकारिक आपत्ति पेश करनी चाहिए| चीनी सरकार सेकहा जाना चाहिए कि यह लेख वह वापस ले और इस पत्र्िका का संपादक खेद प्रकट करे| यदि चीनी सरकार इतना भी नहींकरती तो माना जाएगा कि उस लेख में प्रतिपादित भारत-विरोधी विचार ही चीन की असली नीति है| किसी भी विदेश नीतिविशेषज्ञ को अपनी राय प्रगट करने की पूरी छूट होनी चाहिए लेकिन पहली बात तो यह कि चीन लोकतांत्रिक देश नहीं है| वहांका संपूर्ण समाचार-तंत्र् सरकार के नियंत्र्ण में है| दूसरा, सू का लेख कम्युनिस्ट पार्टी की पत्रिका में छपा है| ऐसी पार्टी, जो चीनकी असली मालिक है| वह सरकार से भी अधिक शक्तिशाली है| इसीलिए इस लेख पर चुप्पी लगाए रखने का कोई कारणनहीं है|
सू ने भारत पर आरोप लगाया है कि वह अमेरिका का दुमछल्ला बन गया है| अमेरिका चीन को चारों तरफ से घेरने कीकोशिश कर रहा है| चीन के सभी पड़ौसियों भारत, जापान, वियतनाम, इंडोनेशिया, फिलीपिन्स, कोरिया, आस्ट्रेलिया आदिदेशों पर अमेरिका ने डोरे डाल दिए हैं| वह इन देशों की पीठ ठोकता है कि वे चीन का विरोध करें| इन देशों के साथ या तोपहले चीन का युद्घ हो चुका है या किसी न किसी मुद्दे पर तनाव रहता चला आया है| इन देशों को अमेरिका या तो नए-नएहथियार दे रहा है या अपूर्व आर्थिक सहायता पहुंचा रहा है या उनमें से कुछ को सुरक्षा परिषद में घुसवाकर वह चीन का महत्वघटाना चाहता है|
लेख में गिनाए गए तथ्य निराधार नहीं हैं लेकिन वे अतिरंजित जरूर है| इसमें शक नहीं कि पिछले साल चीन और जापान मेंकुछ टापुओं को लेकर चला आ रहा पुराना विवाद ज़रा तूल पकड़ गया था और द्वितीय महायुद्घ के दौरान किए गए जापानीअत्याचारों के लिए क्षमा-याचना के मुद्रदे ने भी दोनों देशों के बीच तनाव पैदा कर दिया था लेकिन इस तरह के दलदल में भारतको घसीटना कहां तक ठीक है ? चीन के साथ चल रहे सीमा-विवाद को बड़े सभ्य और शालीन तरीके से निपटाने के लिए भारतलगातार वार्ता कर रहा है और पिछले दिनों चीनी प्रधानमंत्री की भारत-यात्र के दौरान भी कोई अपि्रयता नहीं हुई| जापान केमामले में चीन अब भी दो-टूक शब्दों में कहता है कि वह उसे सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने के विरूद्घ है जबकिभारत के बारे में वह पहले से नरम पड़ा है| चीनी नेताओं और कूटनीतिज्ञों ने कई बार कहा है कि वे भारत की हसरत कोसमझते हैं| यह ठीक ही है कि भारत अंतरराष्ट्रीय जगत में अपने लिए बेहतर भूमिका चाहता है| माना यह जा रहा है कि चीनभारत के सुरक्षा परिषद में जाने का विरोध नहीं करेगा|
लेकिन इस लेख में इस बात का उल्लेख विशेष रूप से किया गया है कि ओबामा ने सुरक्षा परिषद के लिए भारत का समर्थनकिया है याने इसका अर्थ क्या यह लगाया जाए कि चीन भारत का समर्थन नहीं करेगा ? यह वह पेच है, जिसके बारे में भारतको चीनी सरकार का ध्यान तुरंत आकृष्ट करना चाहिए| यदि लेखक ओबामा के समर्थन को चीन-विरोधी कदम मानता है तोयह उसकी नासमझदारी है| सुरक्षा परिषद के मसले पर भारत का समर्थन बि्रटेन, फ्रांस, रूस, जर्मनी आदि देशों ने भी कियाहै तो क्या ये देश भी चीन को घेरने के लिए भारत को उकसा रहे हैं ? लेखक का बचपना इसी बात से जाहिर होता है कि वहभारत को पाकिस्तान-जैसे दुमछल्ले राष्ट्रों के बराबर समझता है| भारत की अपनी महत्ता है| क्या वह किसी राष्ट्र का मोहरा बनसकता है ?
जहां तक चीन के अन्य पड़ौसी राष्ट्रों का संबंध है, भारत उनसे अपने रिश्ते घनिष्ट बना रहा है, इसमें जरा भी शक नहीं है लेकिनइसका अर्थ यह कतई नहीं है कि भारत चीन को घेरने की कोशिश कर रहा है| यदि भारत वियतनाम, द. कोरिया, जापान औरआस्ट्रेलिया के साथ नए-नए सैन्य और व्यापारिक सहयोग के समझौते कर रहा है तो चीन भी तो भारत के निकट पड़ौसियों-नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार, श्रीलंका और अफगानिस्तान में अपनी उपस्थिति अपूर्व ढंग से बढ़ा रहा है| कुछ देशों के भारत-विरोधी तत्वों को वह खुले-आम प्रोत्साहित भी करता है| इन देशों में वह अपनी सामरिक उपस्थिति भी दर्ज करा रहा है| औरपाकिस्तान तो उसका पुराना मोहरा है ही ! पाकिस्तान और चीन के बीच मेल-जोल का कारण क्या है ? सिर्फ भारत-विरोध ! यहअंतरराष्ट्रीय जीवन का कटु यथार्थ है लेकिन भारत के बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि वह चीन के किसी भी पड़ौसी के साथइसलिए संबंध बढ़ा रहा है कि उसके मूल में चीन-विरोध है|
इसके बावजूद चीनी लेखक ने भारत को युद्घ की धमकी दी है| उसने कहा है कि पड़ौसी राष्ट्रों को यह स्पष्ट संकेत दे दियाजाना चाहिए कि चीन युद्घ से नहीं डरता| वह अपने राष्ट्रहितों की रक्षा के लिए युद्घ के मैदान में कूदने से नहीं डरेगा| इसतरह की उत्तेजक और आक्रामक बातें लिखनेवाला लेखक या तो अब भी माओत्से तुंग के दौर में जी रहा है या फिर लिखने केपहले उसने अफीम का भारी ‘डोज़‘ निगल लिया होगा| चीन-जैसा महाजनी देश आज युद्घ क्यों करना चाहेगा ? दुनिया मेंसबसे तेज़ रफ्रतार से आगे बढ़ता देश अपनी टांगे क्यों तोड़ना चाहेगा ? लेखक ने चीन की अर्थ-शक्ति को स्वयं रेखांकित कियाहै| इसके बावजूद उसने चीनी इरादों को इतने विकृत ढंग से पेश किया है कि उससे चीन की छवि तो खराब होती ही है, अंतरराष्ट्रीय संबंधों में संदेह और तनाव के दायरे भी फैलते जाते हैं|
चीनी लेखक ने अपनी सरकार को सुझाव दिया है कि वह अमेरिका को घेरने के लिए यूरोप और लातीनी अमेरिका में अपनाजाल बिछाए| इस दिशा में चीन पहले से सकि्रय है| उसने क्यूबा, वेनेजुएला और बा्रजील से अपने संबंध घनिष्ट बनाए हैंलेकिन यह मानना तो हास्यास्पद ही होगा कि चीन इतना शक्तिशाली हो गया है कि वह अमेरिका का घेराव करने में जुट जाए| यदि वह अपनी शक्ति और अपना पैसा इस निषेधात्मक अभियान में लगाएगा तो यह निश्चित है कि वह अपने करोड़ों नंगे-भूखेचीनियों के साथ अन्याय करेगा| अपूर्व आर्थिक समृद्घि के बावजूद चीन में अमीर और गरीब की खाई जितनी गहरी है, दुनियामें कहीं नहीं है| चीनी नेताओं को सोचना होगा कि वे इस खाई को पहले पाटें या पहले दो-धु्रवीय विश्व खड़ा करने की कोशिशकरें|
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