Dainik Hindustan, 16 March 2011 : भारत की राजनीति में भ्रष्टाचार फिर एक बार बड़ा मुद्दा बन गया है, लेकिन हैरत की बात यह है कि किसी के पास उसका कोई ठोस इलाज नहीं दिख रहा। प्रधानमंत्री माफी मांग लेते हैं और विपक्षी दल की नेता उन्हें तुरंत माफ कर देती हैं। विपक्ष संयुक्त संसदीय कमेटी बिठाने की मांग करता है और कुछ नखरों तथा संसद का एक पूरा अधिवेशन ठप्प करने के बाद यह काम भी हो जाता है। अब दोनों खुश हैं कि संसदीय जांच कमेटी बिठा दी। लगता है कि न्यायपालिका अगर चाबुक नहीं फटकारती, तो सरकार और संसद क्या कर रही हैं, यह देश को पता ही नहीं चलता।
यहां मूल प्रश्न यह है कि क्या न्यायपालिका का हस्तक्षेप और जांच कमेटियां देश को भ्रष्टाचार से मुक्त करवा सकेंगी? उनकी अपनी सीमाएं हैं। अदालतें सजा तो तभी दे सकती हैं, जबकि भ्रष्ट आचरण सिद्ध हो। सिद्ध कौन करेगा? सरकारी वकील और सरकारी जांच एजेंसियां? वे क्यों करेंगी? सरकार अपने, अपने नेताओं और अफसरों के गले में खुद फंदा क्यों डालेगी?
बोफोर्स घोटाले का क्या हुआ? 60 करोड़ रुपये के घोटाले की जांच में 250 करोड़ रुपये खर्च हो गए। 25 साल बाद रो-धोकर सरकार ने सारे मामले पर ढक्कन दबा दिया। हसन अली न तो नेता है और न अफसर, उसके विरुद्ध अब तक कोई कार्रवाई क्यों नहीं हुई? अदालतों की चीख-पुकार के बावजूद 79 हजार करोड़ रुपये के हर्जाने में से अभी तक उससे एक पाई भी वसूल नहीं हुई। क्यों? क्योंकि वह तो सिर्फ मुखौटा है। असली चेहरे तो और ही हैं।
संसदीय कमेटियां और एजेंसियों की जांच तो वक्त काटने का बहाना है। जांच के नतीजे आने तक लोग सब कुछ भूल चुके होंगे। नेताओं को यह पता है। यदि वे सचमुच भ्रष्टाचार के विरुद्ध होते, तो राष्ट्रमंडल खेल और टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले की सारी राशि अब तक ब्याज समेत वसूल कर लेते। सारे अपराधियों और उनके सहायकों की चल-अचल संपत्ति जब्त कर लेते और ऐसा माहौल बना देते कि भावी अपराधियों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ जाती। इस तरह के कदम कोई साहसिक नेता ही उठा सकता है, लेकिन ऐसे नेतृत्व के अभाव में कम से कम हमारी सरकार और हमारी संसद कुछ कम आक्रामक कदम तो उठा ही सकती है। ये कदम दूरगामी और बुनियादी होंगे।
सबसे पहला काम तो यही होना चाहिए कि हमारी शासन व्यवस्था के चारों स्तंभों का वित्तीय ब्योरा नियमित रूप से देश के सामने पेश किया जाए और ये चार स्तंभ हैं- विधानपालिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और खबरपालिका। ये चारों स्तंभ अत्यंत शक्तिशाली हैं। जहां शक्ति है, वहां भ्रष्टाचार है। विधानपालिका यानी सिर्फ संसद नहीं, विधानसभाएं, विधान परिषदें, नगर-निगम, नगरपालिकाएं और पंचायतें भी। इन सबके सदस्यों की चल-अचल संपत्तियों का ब्योरा सिर्फ चुनाव के वक्त ही नहीं, हर साल सार्वजनिक किया जाना चाहिए।
यह भी काफी नहीं है। समस्त राजनीतिक दलों के समस्त पदाधिकारियों – राष्ट्रीय अध्यक्ष से लेकर जिला कार्यकारिणी के सदस्यों तक का वार्षिक वित्तीय ब्योरा जनता के सामने होना चाहिए। यह छोटा-सा कानूनी प्रावधान भारत की राजनीति की जबर्दस्त सफाई कर देगा। जो पैसा बनाने के लिए राजनीति की शरण लेते हैं, वे सब के सब भाग खड़े होंगे।
जहां तक कार्यपालिका का प्रश्न है, तो देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से लेकर प्रदेशों के राज्यपालों, मुख्यमंत्रियों और मंत्रियों का भी वार्षिक वित्तीय ब्योरा देश के सामने होना चाहिए। इसी प्रकार कैबिनेट सचिव से लेकर पंचायतों के चपरासी तक सभी सरकारी कर्मचारियों का लेखाजोखा भी प्रतिवर्ष प्रकट किया जाना चाहिए।
देश के सभी न्यायाधीशों का वित्तीय ब्योरा भी सार्वजनिक करने में किसी को कोई आपत्ति क्यों होनी चाहिए? न्यायाधीश अपने ब्योरे सिर्फ प्रधान न्यायाधीश के पास जमा करवाएं, यह काफी नहीं है। न्यायाधीशों का वित्तीय जीवन तो सभी के लिए अनुकरणीय होना चाहिए। शासन के इन तीन स्तंभों के अलावा चौथे स्तंभ खबरपालिका का भी संपूर्ण वित्तीय ब्योरा लोक-परीक्षण के लिए उपलब्ध होना चाहिए।
चारों स्तंभों पर लागू वार्षिक वित्तीय ब्योरे का यह कानून मुख्य पात्रों के अलावा उनके अत्यंत निकट रिश्तेदारों पर भी लागू किया जाना चाहिए। इसके अलावा गलत ब्योरे भरने वालों और तथ्यों को छिपाने वालों को कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। इसके साथ-साथ यह भी जरूरी है कि जैसे टैक्स चुराने वाले व्यापारियों पर छापे डाले जाते हैं, वैसे ही नेताओं और अफसरों पर भी छापे मारे जाने चाहिए।
व्यापारियों का पैसा अपना कमाया हुआ होता है, जबकि नेताओं और अफसरों का पैसा रिश्वत का होता है। यही पैसा विदेशी बैकों में छिपाया जाता है। यही पैसा तस्करी, आतंकवाद और चुनावी भ्रष्टाचार के काम आता है। चुनाव-खर्च को घटाए बिना राजनीति का शुद्धिकरण असंभव है। चुनाव अभियान की अवधि घटाने के साथ-साथ संसद और विधानसभा की सीटों की संख्या दोगुनी या तिगुनी क्यों नहीं कर दी जानी चाहिए? यदि चुनाव-क्षेत्र छोटे होंगे, तो खर्च भी कम होगा। दुनिया के छोटे-छोटे देशों की संसदों में भारत से भी ज्यादा सांसद हैं।
लोकपाल बिल तो दूर का ढोल है, लेकिन सबके आचरण पर निगरानी रखने वाली सीवीसी, सीबीआई और लोकपाल को न्यायपालिका की तरह लगभग स्वायत्त बना दिया जाए, तो उसके परिणाम चमत्कारी होंगे। शासन के चारों स्तंभों को भ्रष्टाचार-मुक्त रखने के लिए कई अन्य कठोर प्रावधान भी किए जा सकते हैं, लेकिन यदि जनता स्वयं को भ्रष्टाचार-मुक्त नहीं करेगी, तो शासन कभी स्वच्छ नहीं होगा। क्या भारत के लोग यह संकल्प करेंगे कि अपना कोई भी काम करवाने के लिए वे रिश्वत कभी नहीं देंगे? थोड़ी परेशानी सहेंगे, थोड़ा नुकसान भरेंगे, थोड़ी लड़ाई लड़ेंगे, लेकिन भ्रष्टाचार के आगे घुटने नहीं टेकेंगे?
अगर वे ऐसा संकल्प कर सकें, तो फिर वे उस हद तक भी जा सकते हैं, जो गांधी ने बांधी है, यानी उस सरकार को टैक्स देने से मना कर दें, जो भ्रष्टाचारियों से पैसा वसूलने या विदेशी बैंकों से हमारा पैसा लाने में असमर्थ है। ऐसी जागरूक जनता भारत में ऐसा उपभोक्तावादी और तड़क-भड़कवाला समाज बनने ही नहीं देगी, जिसके मूल में प्रलोभन है और जो सारे भ्रष्टाचार की जड़ है। यह जरूरी है कि भ्रष्टाचार का भांडाफोड़ करने वाले बहादुर लोगों की सुरक्षा और सम्मान का बीड़ा जनता खुद उठाए और भ्रष्टाचारियों के विरुद्ध अहिंसक प्रतिकार की अलख जगाए।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
Leave a Reply