R Sahara, 2 Sept 2004 : मणिपुर में आया उफान ठंडा पड़ गया लगता है, लेकिन खतरे की घंटियों का बजना बंद नहीं हुआ है| यह संतोष की बात है कि अभी तक वहॉं राष्ट्रपति शासन की नौबत नहीं आई और न ही राज्य सरकार के मंत्रियों ने अभी तक कोई बगावत की है लेकिन यह किसी भयंकर तूफान के पहले की शांति भी हो सकती है| यों तो उत्तर-पूर्व के सभी राज्यों में बगावत के स्वर शुरू से खदबदाते रहे हैं और कुछ राज्यों में उन्हें जन-समर्थन भी मिला है लेकिन मणिपुर हमेशा अपवाद रहा है| वहॉं अलगाववादी आंदोलन की बेल को फलने-फूलने का अवसर पहली बार मिला है| मणिपुर तहे-दिल से भारत का अभिन्न अंग रहा है|
इसके कई कारण हैं| पहला तो यही कि मणिपुर के 80 प्रतिशत निवासी मैतई हैं, जो परम वैष्णव हैं| वे राधा और कृष्ण तथा चैतन्य महाप्रभु के भक्त हैं| उन्हें भारत के विरोध में भड़काना आसान नहीं| वहॉं विदेशी मिश्नरियों और पाकिस्तानी दलालों की दाल गल नहीं पाती, हालॉंकि सोमरेंद्र सिंह, सुधीरकुमार सिंह और विश्वेश्वर सिंह को मदद देकर चीन और पाकिस्तान ने अब से 40 साल पहले बगावत भड़काने और स्वतंत्र मणिपुर आंदोलन चलाने की कोशिश की थी| दूसरा, मणिपुर की राजनीति शुद्घ कूपमंडूक कभी नहीं रही| वहॉं अखिल भारतीय राजनीतिक दलों या संगठनों का प्रभाव कमोबेश सदा बना रहा| कॉंग्रेस के अलावा लोहियाजी की समाजवादी पार्टी, जनता पार्टी और भाजपा की प्रभावी उपस्थिति ने मणिपुर को नगालैंड, मिजोरम और मेघालय के मार्ग पर चलने से रोका| तीसरा, मणिपुर के संगीत, नाटक और नृत्य ने सारे भारत में अपूर्व लोकपि्रयता अर्जित की और वे उसे शेष देश से जोड़नेवाले सुदृढ़ सेतु बने| चौथा, हिन्दी जितनी अच्छी मणिपुर में बोली और समझी जाती है, उतनी उत्तर-पूर्व के किसी अन्य क्षेत्र में नहीं|
इन जोड़क तत्वों के बावजूद आज मणिपुर कश्मीर की राह पर जाने को मजबूर किया जा रहा है| यों भी भारत की आज़ादी के बाद मणिपुर कश्मीर से ज्यादा समय तक आज़ाद रहा है| भारत में मणिपुर का विलय 15 अक्तूबर 1949 को हुआ| यद्यपि मणिपुर में अब तक आठ बार राष्ट्रपति शासन थोपा गया लेकिन उसके कारण मूलत: राजनीतिक थे, इतने राजनीतिक कि चार बार तो कॉंग्रेसी केंद्र ने कॉंग्रेसी प्रादेशिक सरकार को ही भंग कर दिया| इसके बावजूद मणिपुर में वैसा जनोत्थान पहले कभी नहीं हुआ, जैसा कि 11 जुलाई को मनोरमा नामक युवती की हत्या के बाद हुआ| मनोरमा के बारे में फौज का कहना है कि वह आतंकवादी थी और वह गिरफ्तारी के बाद भागने की कोशिश कर रही थी| इसीलिए उसे गोली मार दी गई| मनोरमा की तरह पहले भी कई कसूरवार और बेकसूर मारे गए हैं लेकिन मनोरमा की हत्या ने पूरे मणिपुर को झनझना दिया| आखिर क्यों? इसलिए किम मनोरमा का शव एक खेत में पड़ा पाया गया और वह भी नग्नावस्था में| आरोप यह भी है कि उसके साथ बलात्कार भी किया गया| वह मुठभेड़ में नहीं मारी गई| वह फौज की हिरासत में थी और उसकी हत्या हो गई| मनोरमा की हत्या ने मणिपुर के नारी-समाज को इतना उद्वेलित किया कि दर्जन भर स्त्र्ियॉं असम राइफल्स के मुख्यालय पर पहॅुंचीं और उन्होंने नग्न होकर प्रदर्शन किया| उनमें एक 73 साल की वृद्घा महिला भी थी| उन्होंने नारे लगाए कि फौजियों, आओ तुम हमारे साथ भी बलात्कार करो| मणिपुर के समाज में स्त्रियों की लगभग वही स्थिति है, जो शेष भारत में पुरुषों की है| मणिपुरी स्त्रियॉं व्यापार-वाणिज्य तथा कला और संस्कृति की अधिष्ठात्री हैं| उन्हें नाराज़ करके मणिपुर को शांत नहीं रखा जा सकता| उनके प्रति सहानुभूति प्रकट करने के लिए पूरा मणिपुर ही इम्फाल की सड़कों पर उतर आया| एक छात्र-नेता के आत्म-दाह ने असंतोष की आग को नया तूल दिया| लगभग तीन दर्जन संस्थाओं के एक संयुक्त मोर्चे ने भारत में बनी चीजों के बहिष्कार का आह्रवान किया| मणिपुर आदि सीमांत राज्यों में तस्करी के ज़रिए विदेशी माल का अंबार लगा रहता है| उसी माल को अंगीकार करने के आह्रवान का मतलब है, स्पष्ट भारत-विरोध तथा तस्करी को मान्यता| इतना ही नहीं, अब हिन्दी फिल्मों, हिन्दी पढ़ाई और हिन्दी नामपटों का भी विरोध होने लगा है| भारत-विरोधी नारे लगने लगे हैं और भूमिगत मणिपुर को भारत से अलग करने की मॉंग खुले-आम होने लगी है| आंदोलनकारियों की फिलहाल मुख्य मॉंग यह है कि मनोरमा के हत्यारों को तुरंत सजा दी जाए, असम राइफल्स को मणिपुर से हटाया जाए और ‘आर्म्डफोर्सेस स्पेशल पॉवर्स एक्ट 1958′ को वापस लिया जाए| मामले ने इतना तूल पकड़ लिया कि मणिपुर में चल रही कॉंग्रेसी सरकार के मुख्यमंत्री ओकरम इबोबीसिंह ने उक्त अधिनियम को इम्फाल के म्युनिसिपल-क्षेत्र से हटा लिया और केंद्र सरकार को सूचित भी नहीं किया| यह बात गृहमंत्री शिवराज पाटील ने लोकसभा में स्पष्टत: स्वीकार भी की| वे असहाय थे, क्योंकि स्थिति अत्यंत विस्फोटक थी| यदि इबोबी सिंह उस ‘काले कानून’ की आंशिक वापसी भी नहीं करते तो 15 अगस्त तक उनके सभी मंत्री इस्तीफा दे देते| कितनी विडंबना है कि केंद्र और राज्य में एक ही दल की सरकार है लेकिन राज्य-सरकार ने केंद्र से परामर्श करना भी उचित नहीं समझा| इससे केंद्र सरकार की छवि जरूर बिगड़ी लेकिन देश का नुकसान होने से बच गया| इबोबी सिंह का यह स्वायत्त कदम शायद मणिपुर जनोत्थान का सेफ्टी-वॉल्व बन गया| अब मणिपुरी लोग मॉंग कर रहे हैं कि पूरे राज्य से उक्त अधिनियम को हटाया जाए|
केंद्र बड़े पसोपेश में है| उसे समझ नहीं पड़ रहा कि क्या किया जाए? गृहमंत्री ने कुछ ढील देने के संकेत भी दिए लेकिन रक्षा मंत्री ने लगाम कस दी| वे मानते हैं कि यदि यह अधिनियम हटा दिया गया तो फौज के जवान निहत्थे हो जाएंगे| आतंकवादी उन्हें गाजर-मूली की तरह काट डालेंगे| वे अपनी जान खतरे में डालकर देश की रक्षा करते हैं और क्या उन्हें हम न्यूनतम रक्षा-कवच भी नहीं दे सकते? यह बड़ा नाजुक मसला है| हमारे कई बड़े विधिवेता और उत्तर-पूर्व में हुक्मरान रहे कई बड़े अफसरों की राय है कि इस अधिनियम को रद्द किया जाना चाहिए| 1958 में जब गृहमंत्री गोविंदवल्ल्भ पंत ने इसे लोकसभा में पेश किया था तो कहा था कि यह सिर्फ छह माह के लिए है लेकिन अब 46 साल हो गए| न तो उत्तर-पूर्व की राजनीतिक स्थिति सुधरी है और न ही यह अधिनियम रद्द किया गया है| याने फौजी अधिनियम स्थिति-सुधार की गारंटी नहीं है| उल्टे इस अधिनियम में दिए गए असीमित अधिकारों के कारण फौजी जवान सर्वथा निरंकुश हो जाते हैं| वे निहत्थे नागरिकों पर वार करते हैं| लूट और बलात्कार की घटनाऍं भी होती हैं लेकिन दोषियों को दंड नहीं दिया जाता| इन सब तथ्यों के बावजूद फौजी अधिनियम के चलते चले जाने का मूल कारण यह नज़र आता है कि हमारी सरकारों के पास ऐसी कोई राजनीतिक तजवीज़ नहीं होती, जो समस्या को हल कर सके| शायद इसीलिए मणिपुर में इतनी बड़ी घटना हो गई और केंद्र से कोई बड़ा आदमी वहॉं गया तक नहीं| सहानुभूति के दो शब्द भी किसी ने नहीं बोले| मणिपुरियों के खौलते हुए घावों पर किसी ने मरहम का फाहवा भी नहीं रखा| एक तरफ कॉंग्रेस सरकार ‘टाडा’ और ‘पोटा’ के दुरुपयोग के विरोध में सारे देश को सिर पर उठाए हुए है और दूसरी तरफ इस फौजी अधिनियम के विरुद्घ उसने जुबान तक नहीं हिलाई? इसका मतलब क्या है? क्या यह नहीं कि हम मणिपुरियों के प्रति पत्थरदिल हैं? क्या वे हमारे भाई नहीं हैं? क्या वे भारत के नागरिक नहीं हैं? इसी तरह की पत्थरदिली, काहिली और उदासीनता ने हमारी छाती पर कश्मीर के दैत्य को खड़ा कर दिया है लेकिन कश्मीर में अगर पत्ता भी खड़कता है तो केद्र की नींद हराम हो जाती है, क्योंकि कश्मीर नज़दीक है और कश्मीर की पीठ पर पाकिस्तान है| मणिपुर ऐसा नहीं है| उसकी पीठ पर कोई नहीं है| न चीन, न पाक, न बांग्लादेश ! वह देशभक्तों का प्रदेश है| उसका क्रोध सात्विक है लेकिन उसका दोष यही है िक वह दिल्ली से बहुत दूर है| वहॉं होनेवाले अत्याचारों की गॅूंज दिल्ली पहॅुंचते-पहॅुंचते हवा में गुम हो जाती है| इसीलिए सरकार क्या, विरोधी दलों ने भी कुछ ध्यान नहीं दिया| हमारे नेताओं को शर्म नहीं आती? चुनाव के दिनों में सभी मणिपुरियों पर टूट पड़ते हैं लेकिन अब जबकि वे इतिहास के सबसे संकटपूर्ण दौर से गुजर रहे हैं, कोई भी उनके घावों को सहलाने-वाला दिखाई नहीं पड़ रहा| हम यह भूल जाते हैं कि मणिपुर के 80 प्रतिशत मैतई लोग मणिपुर की मुश्किल से 10 प्रतिशत जमीन पर रहते हैं जबकि 20 प्रतिशत अन्य लोग 90 प्रतिशत जमीन पर कब्जा किए हुए हैं तथा सरकारी नौकरियों में भी मैतई लोगों का प्रतिशत 15-20 से ज्यादा नहीं है| असंतोष का यह लावा अंदर ही अंदर बह रहा है| यदि इसे समय रहते संभाला नहीं गया तो भारत के उत्तर-पूर्वी सीमांत पर एक नया कश्मीर और खड़ा हो जाएगा| यह नया कश्मीर पुराने कश्मीर से ज्यादा खतरनाक सिद्घ होगा, क्योंकि उसके साथ लगे हुए अन्य सीमांत राज्यों में असंतोष की बारूद पहले से बिछी हुई है|
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