राष्ट्रीय सहारा, 18 जून 2009 : दूसरी बार प्रधानमंत्री बनने के बाद डॉ. मनमोहन सिंह ने जो पहली विदेश-यात्र की, उसने एक साथ कई लक्ष्य साधे| यों तो वे सिर्फ दो दिन के लिए रूस के शहर येकातिनबर्ग गए थे लेकिन उन्होंने दो अंतरराष्ट्रीय संगठनों की शिखर बैठक में भाग लिया और चीन, पाकिस्तान, कज़ाकिस्तान आदि के नेताओं से भी मिले| दूसरे शब्दों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भारत की बढ़ती हुई आर्थिक शक्ति से विदेश नीति के लक्ष्य साध रहे हैं और विदेश नीति को भारत की प्रगति का सशक्त साधन भी बना रहे हैं| वे विदेश-नीति को नए आयाम दे रहे हैं|
रूस और चीन की पहल पर दो संगठन बने हैं| एक तो ‘बि्रक’ याने ब्राजील, रशिया, इंडिया और चाइना ! इन चार देशों के नामों के पहले अक्षरों को जोड़कर अंग्रेजी शब्द बना है – ‘बि्रक’ ! दूसरा संगठन है – शांघाई सहयोग संगठन| यह भी चीन, रूस और मध्यएशिया के गणतंत्रें ने मिलकर बनाया है| इन दोनों संगठनों में रूस और चीन विद्यमान हैं लेकिन भारत सिर्फ ‘बि्रक’ का सदस्य है| वह शांघाई सहयोग संगठन का सदस्य नहीं है| वह पाकिस्तान और ईरान की तरह उसमें केवल पर्यवेक्षक की हैसियत से भाग लेता है| अब तक भारत उसकी बैठकों में मंत्रियों आदि को भेजता रहता था| यह पहली बार है कि भारत के प्रधानमंत्री उसमें भाग लेने गए थे| यह भी कम मज़ेदार बात नहीं कि दोनों संगठनों के शिखर सम्मेलन एक ही दिन एक ही जगह हो रहे थे| ‘बि्रक’ का शिखर सम्मेलन पहली बार हुआ है|
दोनों सम्मेलनों में भाग लेने के पहले भारतीय प्रधानमंत्री चीनी राष्ट्रपति हू जिन्ताओ और पाकिस्तानी राष्ट्रपति आसिफ ज़रदारी से मिले| चीनी नेता से हुई भेंट का कोई असाधारण महत्व नहीं है, क्योंकि चीन के साथ अनेक सहमतियों और असहमतियों के बावजूद आपसी संबंध मंथर गति से आगे बढ़ रहे हैं| इतना जरूर हुआ कि दोनों नेताओं के बीच जो व्यक्तिगत सौहार्द पहले से बना हुआ है, वह थोड़ा और अधिक सुद्दढ़ हुआ है| लेकिन आसिफ ज़रदारी से हुई भेंट का विशेष महत्व है| मनमोहन सिंह ने अपनी सारी विनम्रता के बावजूद ज़रदारी को बता दिया कि आतंकवाद ही मुख्य मुद्रदा है| दोनों नेताओं ने 15 जुलाई को काहिरा के गुट-निरपेक्ष सम्मेलन में दुबारा मिलने का निर्णय किया लेकिन उसके पहले विदेश सचिवों की बैठक भी तय हुई| इसका अर्थ यह नहीं लगाया जा सकता कि मुंबई-हमले को दरी के नीचे सरका दिया गया है और अब दोनों के बीच सब कुछ सहज हो गया है| इसका इतना अर्थ तो समझ में आता है कि यह भेंट अमेरिकी दबाव के कारण हुई हो सकती है लेकिन यदि पाकिस्तान अगले एक माह में भी मुंबई हमले के दोषियों को नही पकड़ता है तो जाहिर है कि बातचीत का यह नया सिलसिला अपने आप टूट जाएगा| यदि भारत सरकार, फिर भी, बातचीत करेगी तो भारतीय जनता के बीच उसकी छवि काफी गिरेगी|
जहॉं तक ‘बि्रक’ का सवाल है, सबसे पहले तो यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि यह कोई अमेरिका-विरोधी मोर्चा नहीं है, जैसा कि युद्घ के दिनों में नाटो, सीटो, सेंटो आदि के मुकाबले वारसा पेक्ट आदि बने हुए थे| उन दिनों अमेरिका और रूस ने अपने-अपने सैनिक गुट खड़े कर लिये थे और वे दोनों सारे संसार में एक-दूसरे को टक्कर देने में जुटे हुए थे| आजकल सारा विश्व एकध्रुवीय बना हुआ है| अमेरिका एक मात्र् महाशक्ति है, बल्कि महत्तम शक्ति है| रूस या चीन या कोई भी देश उसे चुनौती देने की स्थिति में नहीं है| मंदी के बावजूद डॉलर और अमेरिका आज भी संसार के सिरमौर हैं| रूस और चीन दोनों ही द्विपक्षीय स्तर पर अमेरिका से बेहतर संबंध बनाने का प्रयत्न करते रहते हैं| ऐसी स्थिति में येकातिनबर्ग के सम्मेलन को अमेरिका-विरोधी जमावड़े की संज्ञा नहीं दी जा सकती लेकिन इस सम्मेलन के चारों सदस्य एकधु्रवीय की बजाय बहुध्रुवीय विश्व-व्यवस्था के समर्थक हैं, इसमें ज़रा भी संदेह नहीं है| यह बात सबने खुलकर कह भी दी है ? इसका निहितार्थ क्या है ? केवल यही है कि वे सम्मान चाहते हैं, बराबरी चाहते हैं, वे अमेरिका की दबैल में नहीं रहना चाहते| सिर्फ अमेरिकी हितों की रक्षा में हाथ उठा देना, उनके लिए संभव नहीं है| वे चाहते हैं कि दुनिया के सभी देशों, खास तौर से कमज़ोर और पिछड़े देशों के हितों की रक्षा का पुख्ता इंतजाम हो| रूसी राष्ट्रपति दिमित्री मेद्वेदेव ने सम्मेलन के निष्कर्षों पर प्रकाश डालते हुए साफ़ कहा कि ‘बि्रक’ के देश विश्व के आर्थिक संकट का व्यावहारिक समाधान खोजेंगे| वे नए ढंग की विश्व वित्तीय-व्यवस्था का निर्माण करेंगे| वे चाहते हैं कि संसार के राष्ट्रों को अन्न और उर्जा का संकट न झेलना पड़े| इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए ‘बि्रक देशों’ के बेंकर्स और अन्य वित्तीय अधिकारी आपसी परामर्श के द्वारा कोई ऐसी ठोस योजना तैयार करेंगे, जो जी-20 के पीट्रसबर्ग-सम्मेलन में प्रस्तुत की जा सके| दूसरे शब्दों में ‘बि्रक’ की भूमिका पश्चिमी मालदार राष्ट्रों के प्रतिद्वंदी नहीं, सहायक की बन रही है| यह भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होगी|
इसलिए होगी कि ये चारों राष्ट्र-चीन, रूस, भारत और ब्राजील तेज रफ्रतार के साथ बढ़ रहे हैं, विश्व-मंदी का इन पर बहुत कम असर हुआ है और ये इसी तरह आगे बढ़ते रहे तो अगले तीन-चार दशक में ये पश्चिमी राष्ट्रों को पीछे छोड़ देंगे| आज दुनिया की लगभग 40 प्रतिशत आबादी इन सिर्फ चार राष्ट्रों में रहती है| दुनिया की एक चौथाई भूमि इन चार राष्ट्रों में सीमित है| दुनिया के सकल उत्पाद का आज भी 15 प्रतिशत भाग इन ‘बि्रक’ देशों में पैदा होता है| कुछ ही वर्षों में ‘बि्रक’ राष्ट्र दुनिया के सबसे बड़े उत्पादन-क्षेत्र् और सबसे बड़े बाजार बन जाएंगे| इस शक्तिशाली राष्ट्र-समूह को भारत के अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री से अमूल्य मार्गदर्शन मिल सकता है| रूस और चीन सुरक्षा परिषद के स्थायी सदस्य हैं| दोनों ने भारत और ब्राजील के लिए बड़ी भूमिका की मांग की है| ‘बि्रक’ का अर्थ होता है, ईंट ! ईंट पर ईंट धरते चले जाएं तो नई विश्व-व्यवस्था का महल अपने आप खड़ा हो जाएगा|
जहां तक शंघाई सहयोग संगठन का सवाल है, यह दक्षेस का ही बृहत्तर संस्करण है| भारत, रूस और चीन मिलकर इसे विश्व का सबसे शक्तिशाली क्षेत्र् बना सकते हैं| इस क्षेत्र् में जितनी उर्जा, खनिज और मानव-शक्ति है, किसी अन्य क्षेत्र् में नहीं है| यह क्षेत्र् आपसी सहयोग के लिए तरस रहा है| इसमें पाकिस्तान-जैसे देश ही नक़ली समस्याओं के आधार पर बाधाएं खड़ी कर रहे हैं| वास्तव में ईरान, अफगानिस्तान, पाकिस्तान और भारत जैसे देश इस संगठन के पूर्ण सदस्य बन जाएं तो पूरे क्षेत्र् को काफी लाभ हो सकता है| इस संगठन ने आपसी सहयोग के साथ-साथ आतंकवाद से लड़ने का भी संकल्प किया है| इस क्षेत्र् में अपना-अपना प्रभाव कायम करने के लिए रूस, चीन और भारत में प्रतिस्पर्धा का भाव जरूर हो सकता है लेकिन 19 वीं सदी की साम्राज्यवादी प्रतिद्वंद्विता के लिए अब कोई जगह नहीं रह गई है| क्षेत्रीय सहयोग की यह पहल भारतीय विदेश नीति को नए आयाम दिए बिना नहीं रहेगी|
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