दैनिक भास्कर, 1 जुलाई 2009 : जो मायावती कर रही हैं, देश के दलितों का इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है ? वे-उत्तर प्रदेश में जगह-जगह मूर्तियां लगवाने और पार्क बनवाने में लगभग 2700 करोड़ रू. खर्च कर रही हैं| जिस प्रदेश में दुनिया के सबसे ज्यादा गरीब और अशिक्षित लोग रहते हों, वहां अरबों रूपया रोजगार और शिक्षा पर खर्च न हो और मूर्तियों पर खर्च हो, इससे बढ़कर विवेकशून्यता क्या हो सकती है ? वह भी दलितों के नाम पर ! गरीबों और अशिक्षितों में भी दलितों की संख्या सबसे ज्यादा है| यह पैसा सिर्फ दलितों पर भी खर्च होता तो किसी को एतराज़ नहीं होता लेकिन इन मूर्तियों और पार्को से दलितों का कौनसा भला होनेवाला है ? यह तर्क बिल्कुल बोदा है कि आंबेडकर, कांशीराम और मायावती की मूर्तियां देखकर दलितों के दिल में आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास का संचार होगा|
मुझे डर है कि इसका एकदम उल्टा होगा| दलितों का मनोबल गिरेगा और उनके स्वाभिमान को ठेस पहुंचेगी| जिस दलित के पेट में अन्न नहीं है, शरीर पर कपड़ा नहीं है, सिर पर छत नहीं है, वह करोड़ों रूपए की इन मूर्तियों के बारे में क्या सोचगा ? वह सोचेगा, हमारे नेता धूर्त्त और फिजूलखर्च हैं| वे बेशर्म भी हैं| उन्हें शर्म नहीं आती कि हम भूखे मर रहे हैं और वे खुद को पुजवाने के लिए राज्य का पैसा पानी की तरह बहा रहे हैं| राज्य का पैसा तो किसी नेता के बाप का नहीं है| सबका है| सब टैक्स देते हैं तो राज्य-कोश जमा होता है इसमें दलितों का योगदान कितना हो सकता है ? नगण्य, फिर भी सारा समाज अपने दलित भाइयों के लिए ज्यादा से ज्यादा खर्च करके खुश होता है| इस खुशी को छीनकर मायावती राज्य के सभी करदाताओं की कोप-भाजन तो बन ही रही हैं, वे दलितों की अमानत में से भी खयानत कर रही हैं| वे दलितों के पांव पर कुल्हाड़ी मार रही हैं| मायावती और दलितों का नुक्सान करने का यह सबसे आसान तरीका है| यह मायावती के सवर्ण सलाहकारों के दिमाग की कुटिल उपज है| मायावती के ये सलाहकार लियो तॉल्सतॉय के लघु-दैत्यों की तरह हैं| तॉल्सतॉय की एक कहानी के ये लघु-दैत्य एक अत्यंत चरित्र्वान और दृढ़प्रतिज्ञ किसान को बड़ी चतुराई से भ्रष्ट करते हैं| पहले वे उस गरीब किसान को अमीर बनाने की विधि बताते हैं और फिर उसे शराबखोरी और रंडीबाजी में डुबो देते हैं| उस दृढ़प्रतिज्ञ किसान को पटखनी मारने का इससे अलग कोई और तरीका था ही नहीं| बेचारी मायवती पर भी वही फार्मूला लागू किया जा रहा है|
यदि मायावती और उनके चतुर सवर्ण सलाहकार यह मानते हों कि मूर्तियां लगवाना बेहद जरूरी है तो वे जरूर लगवाएं लेकिन अपना शौक पूरा करने के लिए वे अपनी गांठ का पैसा खर्च करें| सबको पता है कि उनकी गांठ में छिपा हुआ पैसा भी किसका है ? वह भी दलित-पैसा नहीं है| भारत के दलितों की जेब में आया एक-एक पैसा खून-पसीने की कमाई का पैसा होता है| वह लूटपाट और ब्लेकमेल का पैसा नहीं होता| वह हराम की कमाई नहीं होती| लेकिन दलित-नेता कितने काइयां हैं कि वे अपनी इस हराम की कमाई को भी खर्च करने को तैयार नहीं हैं| वे आम जनता की हलाल की कमाई को बर्बाद करने पर तुले हुए हैं, जिसमें दलितों की ख्ूान-पसीने की कमाई भी शामिल है|
सार्वजनिक धन की इस बर्बादी को सही ठहराने के लिए एक से एक मूखर्तापूर्ण तर्क दिए जा रहे हैं| कहा जा रहा है कि गांधी, नेहरू, सुभाष, भगतसिंह वगैरह की मूर्तियों में से जातिवादी बदबू आती है| ये सब उंची जात के हैं ? ऐसा क्यों है ? इसका जवाब यह है कि तथ्य, तथ्य है| उसे आप कैसे झुठला सकते हैं ? कुछ अज्ञात दलितों को यदि आप जबर्दस्ती स्वाधीनता संग्राम का पुरोधा बनाने की कोशिश करेंगे तो उनकी तो मज़ाक बनेगी ही, आप भी मसखरे बन जाएंगे ? यदि मूर्तियां लगवाने में देश के लोगों का जातिवादी दुराग्रह होता तो यह बताएं कि सारे भारत में आंबेडकर की मूर्तियां क्यों लगी हुई हैं ? क्या वे सब दलितों ने लगवाई हैं ? आंबेडकर तो कोई बड़े स्वाधीनता-सेनानी भी नहीं थे| इसके अलावा उन्हें भारत का संविधान-निर्माता तक कह दिया जाता है| इसके अलावा क्या गांधी की मूर्ति सारे देश में बनियों ने और नेहरू की मूर्तियांॅ ब्राह्रमणों ने लगवाई हैं ? सुभाष की मूर्तियां कायस्थों ने और भगतसिंह की मूर्तियॉं क्या सिखों ने लगवाई हैं ? यदि नही तो मूर्ति-स्थापना जैसे भावपूर्ण कार्यो को मूर्तिबाज़ी में क्यों बदला जा रहा है ?
मूर्तिबाजी करनेवाले नेता यह भूल जाते हैं कि मूर्ति आपकी सुरक्षा या स्मृति-रक्षा का ताबीज़ नहीं है| भारत में बुद्घ की जितनी मूर्तियॉं बनीं, उतनी कई देवताओं और भगवानों की कुल मिलाकर नहीं बनी| क्या वे जड़ मूर्तियां बौद्घ धर्म की रक्षा कर पाई ? जो मूर्तियां खुद की रक्षा नहीं कर सकतीं, वे किसी धर्म या नेता या राजा की रक्षा क्या करेंगी ? क्या किसी ने हजरत मुहम्मद या इमाम अली या अल्लाह की कोई मूर्ति कभी देखी है ? कभी नहीं, फिर भी आज करोड़ों लोगों के दिलों में वे साक्षात और सजीव हैं कि नहीं ? जो जिंदा विश्वास होता है, उसे जड़ मूर्तियों की जरूरत नहीं होती| आपने मूर्तियां बनाना शुरू किया तो मान लीजिए कि जड़ता ने आपको घेरना शुरू कर लिया है| जब यह काम अनुयायी करते हैं तो मान लीजिए कि वे अपने आराध्य के मार्ग से डिग रहे हैं और इस डिगाव के विकल्प के तौर पर मूर्तियां खड़ी कर रहे हैं| सजीव के आसन पर निर्जीव को बिठा रहे हैं| शिव की जगह शव को सजा रहे हैं|
मायावती इसी शव-पूजा में लगी हुई हैं| यह कितना अचंभा है कि वे अपनी मूर्तियां खुद बनवा रही हैं| यह वैसा ही है, जैसे यूरोप के मालदार ईसाई जीते-जी अपनी कब्र ‘या समाधि स्थल’ बनवा लेते हैं| डॉ. राममनोहर लोहिया ने क्या खूब कहा था कि किसी की भी मूर्ति उसके मरने के 300-400 साल बाद लगाई जानी चाहिए| तब तक इतिहास किसी के बारे में भी सही-सही फैसला कर पाता है| जिन लोगों की मूर्तियां उनके रहते ही बनीं, उनका हश्र क्या हुआ, यह हमने अभी देखा नहीं क्या ? सद्रदाम हुसैन, लेनिन, स्तालिन और हमारे देश में लगे अंग्रेजों के पुतले क्या गटर की हवा नहीं खा रहे हैं ? कांशीराम या मायावती ने दलितों या देश के लिए यदि कुछ किया है तो इसका फैसला इतिहास को करने दें| आप खुद इतिहास की छाती पर खड़े होने का फैसला करेंगे तो इतिहास का हिमालय आपकी छाती पर चढ़ बैठेगा| वह आपके वर्तमान को भी नष्ट कर देगा| वर्तमान आपके लिए बिल्कुल निर्मम बन जाएगा| जनता अपनी गाढ़ी कमाई के लुटेरों को दंडित किए बिना छोड़ेगी नहीं|
राज्य के पैसे को इस बेरहमी से बर्बाद करनेवाले नेताओं को जो भी सजा दी जाए, कम है| उन्हें चुनाव में हरा देना तो कुछ भी नहीं है| चुनाव तक इंतजार करना घोर आलस्य है| जिंदा कौमें पांच साल या तीन साल या दो साल इंतजार क्यों करें ? उन्हें तत्काल कार्रवाई करनी चाहिए| कोई भी मूर्ति बनने नहीं देनी चाहिए और जो बनी हुई हैं, उन्हें तत्काल नष्ट कर देना चाहिए| मायावती की मूर्तियों की वही दशा होनी चाहिए, जो फ्रांसीसी क्रांति के समय बूरबों राजवंश की हुई थी और सोवियत क्रांति के समय जारवंश की हुई थी| उस समय पेरिस और सेंट पीटर्सबर्ग की सड़कों पर लोग भूख से दम तोड़ रहे थे और बूरबों और ज़ार गुलछर्रे उड़ा रहे थे| अपने आपको को बादशाह समझनेवाले नेताओं को मजबूर करना चाहिए कि वे तत्काल इस्तीफा दें और अगर इस्तीफा न दें तो उनका हुक्का-पानी बंद कर देना चाहिए| उन्हंे इस लायक नहीं छोड़ना चाहिए कि वे जनता के बीच अपना मुंह दिखा सकें| ऐसे मामलों में अदालतें अक्सर ‘स्टे आर्डर’ लगाकर संतुष्ट हो जाती हैं| यह काफी नहीं है| ऐसे नेताओं को समस्त राजनीतिक अधिकारों से सदा के लिए वंचित किया जाना चाहिए और उनकी सारी संपत्ति कुर्क करके राज-कोष में जमा करवाया जाना चाहिए| सार्वजनिक पैसे का दुरूपयोग करनेवाले नेताओं की हडि्रडयों में कंपकंपी दौड़नी चाहिए| भारत के राजनीतिशास्त्र् में ऐसे नेताओं के लिए एक नए शब्द का आविष्कार होना चाहिए- मायावतीकरण !
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