NavBharat Times, 12 May 2007 : उत्तर प्रदेश के चुनाव को चमत्कारी न कहा जाए तो क्या कहा जाए? सारे सर्वेक्षण धराशायी हो गए, सारे अंदाजी घोड़ों के घुटने टूट गए, जोड़-तोड़ की सारी तिकड़में धरी रह गईं। देश के सबसे बड़े प्रदेश काताज सीधा आकर मायावती के सिर पर बैठ गया। स्वयं मायावती ने भी नहीं सोचा होगा कि यूपी की जनता उन्हें इतना स्पष्ट बहुमत देगी। यह चमत्कार है। जो चमत्कार नहीं है और जो अवश्यंभावी दिख रहा था, वह भी यूपी में हुआ। वह है एसपी की हार। मुलायम सिंह को हराने के लिए यूपी की जनता इतनी कटिबद्ध हो गई थी कि उसने बीजेपी और कांग्रेस को भी दरकिनार कर दिया। इन दोनों अखिल भारतीय पार्टियों को यूपी में इसलिए मुंह की खानी पड़ रही है कि यूपी की जनता अपने संकल्प से जरा भी नहीं डिगना चाहती थी। वह हर कीमत पर एसपी को हराना चाहती थी। यदि बीजेपी और कांग्रेस को ज्यादा वोट मिलते तो भी मायावती की सरकार तो बन जाती लेकिन वह अधर में झूलती रहती। जोड़-तोड़ का बाजार गर्म रहता और अधबीच में एसपी के लौटने की संभावनाएं प्रेत की तरह मंडराती रहतीं। यूपी की जनता ने गजब किया। उसने कांग्रेस से दोगुनी सीटें बीजेपी को, बीजेपी से लगभग दोगुनी एसपी को और उससे दोगुनी बीएसपी को दीं। अब मायावती को सरकार बनाने के लिए किसी की जरूरत नहीं है। अब बीजेपी औरएसपी की सांठगांठ भी बांझ साबित होगी। अब एसपी, बीजेपी, कांग्रेस औरबिकाऊ विधायक मिल जाएं, तो भी मायावती सरकार का बाल बांका नहीं कर सकते। अब तो एक ही रास्ता बचा है। वह है, दलबदल का। इतना बड़ा दलबदल करवाना अब असंभव है। मायावती सरकार को अब पांच साल तक कोई खतरा नहीं है।
यूपी की जनता मुलायम सिंह को सबक सिखाना चाहती थी, इसमें जरा भी संदेह नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मायावती को इतना बड़ा बहुमत सेंत-मेंत में मिल गया। ऐसा मान लेना उस विलक्षण सूझ-बूझ को अनदेखा करना है जो मायावती ने इस चुनाव के दौरान दिखाई है। मायावती ने सिर्फ दलितों के ही नहीं, ब्राह्माणों और मुसलमानों के वोट भी पाए। यूपी में यह नया गठजोड़ बना। यह वही गठजोड़ है, जो कभी कांग्रेस की रीढ़ रहा था। कल्पना कीजिए कि बहुजन, महाजन और अल्पसंख्यक का यह गठजोड़ अखिल भारतीय स्तर पर सक्रिय हो जाए तो क्या होगा? केन्द की राजनीति में भी आमूल-चूल परिवर्तन हो सकता है। यह ठीक है कि यह चुनावी गठजोड़ तात्कालिक और सतही होता है। इसमें समाज परिवर्तन की गहरी क्षमता नहीं होती। यह हमारे समाज की सदियों पुरानी जड़ता पर खरोंच भी नहीं लगा पाता, लेकिन यह भी सत्य है कि यह गठजोड़ सामाजिक कटुता को घटाएगा और दबे-पिसे लोगों के अभ्युदय के नए मार्ग खोलेगा। मायावती की यह विजय उन्हें पहले के मुकाबले अधिक मर्यादित व्यवहार के लिए मजबूर करेगी और उन्हें बेहतर लोकतांत्रिक नेता बनाएगी। मायावती ने जैसे अपने दलित वोट बैंक में ब्राह्माण और मुस्लिम वोटों की नई राशियां जोड़ी हैं, वैसे ही अगर वे यूपी से बाहर झांकना शुरू कर दें, तो वे न केवल राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनावों में नए समीकरण खड़े कर सकती हैं, बल्कि केन्द्र की राजनीति में स्वायत्त ध्रुव की तरह उभर सकती हैं।
यूपी में मायावती की विजय राजनीति के दोबारा पटरी पर लौटने की प्रतीक है। एसपी की राजनीति में दलालों औरकलाकारों का इतना वर्चस्व हो गया था कि मुलायम सिंह कहीं खो से गए थे। उत्तर भारत के सबसे तेजस्वी जनाधारी नेता की तंदा टूटी, यह अच्छा ही हुआ। जिस मुलायम सिंह को लोहिया का वैसा ही उत्तराधिकारी माना गया था जैसा कि लेनिन को मार्क्स का, उसका अराजनीतिकरण सभी के लिए चिंता का विषय था। अब यूपी में ही नहीं, राष्ट्रीय स्तर पर भी मुलायम सिंह चाहें तो अपने लिए महत्वपूर्ण भूमिका उकेर सकते हैं। तीसरे मोर्चे की राजनीति अब भी गोते खा रही है। उसके पास न सिद्धांत हैं, न नारे हैं, न कार्यक्रम है और न ही नेता है।
यूपी के चुनाव ने बीजेपी को गहरा झटका दिया है। कल्याण सिंह की वापसी निरर्थक साबित हुई। न मंडल काम आया, न कमंडल। राजनाथ सिंह और आडवाणी ने अभियान में जान झोंक दी, लेकिन मतदाताओं को वे रिझा नहीं पाए। मायावती औरमुलायम सिंह के साथ अलग-अलग समय की गई सांठगांठ और दलबदल के वक्त की गई धांधलियों को लोग भूल नहीं पाए। बीजेपी का कोई अपना स्पष्ट एजेंडा भी नहीं था। अटल बिहारी वाजपेयी जैसा कोई शब्दों का दूगर भी बीजेपी के लिए मैदान में नहीं उतरा। नगरपालिका के चुनावों ने जो आशाजाल खड़ा किया था, वह इन चुनावों ने छिन्न-भिन्न कर दिया। अखिल भारतीय पार्टी होने के नाते बीजेपी को अपनी रणनीति पर गहन चिंतन का मसाला मिल गया है। राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के चुनाव में बीजेपी जो भूमिका निभाना चाहती थी, अब उस पर उसे पुनर्विचार करना होगा।
बीजेपी से भी ज्यादा कांग्रेस को आशा थी कि यूपी में उसका सूर्य दोबारा उदय होगा, लेकिन उसे दोहरा नुकसान भुगतना पड़ रहा है। वोट और सीटों में कोई उल्लेखनीय वृद्धि होनी तो दूर रही, जो नया सिक्का उछाला था वह भी खोटा दिखाई पड़ने लगा। एक चुनाव विश्लेषण के अनुसार राहुल गांधी ने जिन लगभग 100 चुनाव क्षेत्रों का दौरा किया था, उनमें से मुश्किल से 6-7 पर ही कांग्रेसी उम्मीदवार जीते हैं। लगभग यही निष्कर्ष उन चुनाव क्षेत्रों से भी आया था जिनमें पिछले आम चुनाव के दौरान सोनिया गांधी गई थीं। दूसरे शब्दों में, वंशवाद का आरोप अपने आप निराधार सिद्ध हो जाता है। मीडिया और विरोधी नेतागण वंशवाद-वंशवाद चिल्लाते हैं, लेकिन जनता उसकी जरा भी परवाह नहीं करती। वह गुण-दोष के आधार पर ही वोट करती है। दूसरे शब्दों में, कांग्रेस के लिए अपने भविष्य के बारे में चिंतित होने की घंटी बज गई है। यदि केन्द्र सरकार के आचरण से जन साधारण को कोई असाधारण राहत मिली होती तो उसका असर जरूर दिखाई पड़ता, लेकिन वह भी नहीं दिखा।
यूपी में वामपंथी दलों और जन मुक्ति मोर्चे का सफाया भी चिंताजनक है। देश के इस सबसे बड़े प्रदेश में क्या जात औरमजहब का पता चले बिना कोई राजनीति नहीं हो सकती?
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