दैनिक भास्कर, 23 मार्च 2011 : कैसी विडंबना है कि जूलियान असांज जैसा आदमी हमारे प्रधानमंत्री के कथन को सफेद झूठ बता रहा है और यह भी कह रहा है कि वे जानबूझकर लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं| असांज को अदालत में घसीटना तो दूर रहा, भारत सरकार क्या उसके तीखे आरोपों का दो-टूक खंडन करने की स्थिति में भी है ? जब से ‘विकीलीक्स’ के जरिए सांसदों की खरीदी का मामला उठा है, सरकार के पसीने छूट रहे हैं|
जुलाई 2008 में अपनी सरकार बचाने के लिए कांग्रेस ने साम, दाम, दंड, भेद का सहारा लिया था, यह बात जग-जाहिर है| विकीलीक्स ने कोई नया रहस्योद्रघाटन नहीं किया है लेकिन फिर भी यह तहलका क्यों मच रहा है ? इसका कारण यह है कि 22 जुलाई 2008 को संसद में जो घोर शर्मनाक दृश्य देखे गए, उनके पीछे के सत्यों को विकीलीक्स ने अब परिपुष्ट कर दिया है| यों तो वी. किशोर चंद्रदेव की अध्यक्षता में एक जांच कमेटी भी बनी थी लेकिन जैसा कि अक्सर होता है, यहां भी हुआ कि जांच ऐसी करो कि आंच किसी पर न आए| सारा मामला ही आया-गया हो गया, क्योंकि जांच करनेवाले और जांचे जानेवाले लोग एक ही होते है| ऐसी मिलीभगत से आज तक कभी कुछ ठोस नहीं निकला लेकिन एक अमेरिकी राजनयिक ने अपनी सरकार को इस कांड के बारे में जो गुप्त रपट भेजी थी, उसके छप जाने पर सरकार और संसद हिल गई है|
ऐसा इसलिए हो रहा है कि वह गुप्त रपट हमारी किसी भी जांच या फैसले से ज्यादा विश्वसनीय समझी जा रही है| किसी विदेशी कूटनीतिज्ञ को भारत के इस या उस दल और नेता से वैसा लगाव नहीं हो सकता, जैसा कि किसी भारतीय संस्था या व्यक्ति को हो सकता है| वह कोई झूठ बात क्यों लिखेगा ? वह अपनी सरकार को गुमराह क्यों करेगा ? वह वही लिखेगा जो उसे मालूम पड़ेगा या वह देखेगा| अमेरिकी राजनयिक ने जो रपट वाशिंगटन भेजी, उसकी तारीख, ज़रा याद रखिए, 17 जुलाई 2008 थी याने 22 जुलाई को जो हुआ, उसके पांच दिन पहले ! पांच दिन बाद संसद में मतदान हुआ, एक करोड़ रू. की रिश्वत की गडि्रडयॉं उछाली गई, सरकार बच गई| 19 सांसदों ने पाला बदला और 10 ने मतदान में भाग नहीं लिया| क्या उस अमेरिकी राजनयिक को कोई सपना आया था ? या वह कोई भविष्यवक्ता या ज्योतिषी है ? उसने वही लिखा, जो उसे सतीश शर्मा, उनके सहयोगी और अन्य सत्तारूढ़ स्त्रेतों से पता चला था|
उसकी रपट में जितने नेताओं के नाम आए हैं, सबने खंडन जारी कर दिया है| क्या उनके खंडन पर भारत की जनता विश्वास कर सकती है ? एक नेता ने कहा कि मेरे सांसदों ने यदि दस-दस करोड़ खाए होते तो वे कांग्रेस के खिलाफ वोट क्यों देते ? ये नेताजी इस वाक्य को पढ़ना शायद भूल गए कि ”दस-दस करोड़ के बावजूद उनका कुछ भरोसा नहीं कि वे वोट किधर डालेंगे” ? हो सकता है कि वे 20-20 करोड़ मांग रहे हो| हो सकता है कि वे पैसा और वोट दोनों ही डकार जाए| यह मामला इतना नाजुक था कि पिटनेवाला आह भी नहीं भर सकता था| जहां तक कांग्रेस का सवाल है, वह तो यह मानने को ही तैयार नहीं है कि जुलाई 2008 में सांसदों को रिश्वत देने की कोई घटना भारत में घटी थी ?
जरा देखें कि जब यह मामला संसद में गूंजा तो हमारे प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री ने क्या कहा| प्रधानमंत्रीजी ने संसद में कहा कि ”मुझे सांसदों की खरीदी के बारे में कोई भी जानकारी नहीं है” उन्होंने दढ़तापूर्वक यह कहा कि ”…मैंने वोट खरीदने के लिए किसी को भी अधिकृत नहीं किया|” अब खुद को निर्दोष सिद्घ करने के लिए उन्होंने दुबारा कहा कि ”…उस लेन-देन से मेरा कोई लेना-देना नहीं था|” इससे अधिक दो-टूक जवाब क्या हो सकता था ? हो सकता है कि इस बयान का एक-एक शब्द सत्य हो| लेकिन पहली बात यह कि पूरा राष्ट्र आंखों देखी मक्खी कैसे निगल सकता है ? जिस घटना को करोड़ों नागरिकों ने अपनी आंखों से टेलिविज़न पर देखा, उसके बारे में प्रधानमंत्री कहते हैं कि उन्हें उसके बारे में कुछ भी पता नहीं है| इस मासूमियत पर कौन न मर जाए या खुदा ? बेचारे असांज का मुंह हम कैसे बंद कर पाएंगें ?
यदि रिश्वत के बंडलों को करोड़ों लोगों ने न देखा होता तो भी क्या किसी प्रधानमंत्र्ी के लिए यह कहना शोभा देता है कि ‘मुझे कुछ भी पता नहीं|” यदि यह सत्य है तो यही बयान प्रधानमंत्री की असलियत का पता भी बता रहा है| चाहे ए. राजा की कारगुजारियॉं हों, चाहे पी.जे. थामस की नियुक्ति हो, चाहे अंतरिक्ष-घोटाला हो और चाहे, सांसदों का रिश्वत-कांड हो — सभी मामलों में प्रधानमंत्री की टेक एक ही है – मुझे कुछ भी पता नहीं| आप देश के सूचना-तंत्र्, गुप्तचर-तंत्र् और लोकतंत्र् के सिरमौर हैं और आपको कुछ पता ही नहीं रहता तो फिर आपको इस पद पर बने रहने की मजबूरी क्या है ? आपसे कौन जबर्दस्ती कर रहा है ? आप अपनी और इस पद की साख निरंतर क्यों गिराए जा रहे हैं ?
मान लें कि आप सचमुच पवित्र्ता के अवतार हैं और सारी तिकड़म कोई और ही कर रहा है तो यह भी लोकतंत्र् का मजाक ही है| जुर्म कोई करे और हर्जाना कोई भरे ! यदि सचमुच कोई रिश्वत-कांड हुआ ही नहीं तो किशोरचंद्र देव कमेटी क्यों बिठाई गई थी ? देव-कमेटी ने रिश्वतों की जांच के लिए जो सुझाव दिए थे, उनको दरी के नीचे क्यों सरका दिया गया ? अभी तक रिश्वत देनेवालों और लेनेवालों को पकड़कर अंदर क्यों नहीं किया गया ? अब तो सरकार ऐसा कानून बनाने पर विचार कर रही है कि रिश्वत देने को अपराध माना ही न जाए|
प्रधानमंत्र्ी ने रिश्वत-कांड को अनहुआ सिद्घ करने के लिए अजब-सा तर्क दिया है| वे पूछते हैं कि यदि कांग्रेस रिश्वत की दोषी थी तो 2009 के चुनाव में उसकी सीटें क्यों बढ़ गई और प्रतिपक्ष की सीटें क्यों घट गई ? क्या यही तर्क वे बोफोर्स-कांड पर लागू करेंगे और मानेंगे कि राजीव ने रिश्वत खाई थी ? अपराधों के फैसले हम चुनावों से करने लगें तो देश की अदालतों पर ताले लग जाएंगे| इसी तरह वित्त मंत्री का यह तर्क भी बिल्कुल बोदा है कि पिछली लोकसभा के मामले पर इस लोकसभा में बहस नहीं हो सकती| दर्जनों नज़ीरें इस तर्क को गलत साबित करती हैं| उनके इस तर्क में भी कोई दम नहीं है कि विकीलीक्स के रहस्योद्रघाटन पर वे इसलिए विचार नहीं कर सकते कि वे ‘राजनयिक उन्मुक्ति’ के सिद्घांत का उल्लंघन नहीं करना चाहते| जिस दस्तावेज को करोड़ों लोगों ने देख और पढ़ लिया हो, क्या अब भी वह गोपनीय रह गया है ? इस सरकार की खूबी यह है कि जो बात सारी दुनिया को पता होती है, उसके बारे में वह कहती है कि ‘मुझे कुछ भी पता नहीं|”
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