Dainik Hindustan, 04 Feb 2011 : ट्यूनीशिया के पूर्व तानाशाह बिन अली के मुकाबले मिस्र के तानाशाह हुस्नी मुबारक कहीं ज्यादा मंजे हुए खिलाड़ी हैं। उन्होंने पूरा एक सप्ताह निकाल दिया और वह अभी तक देश छोड़कर भागे नहीं। उनका बेटा गमाल लंदन भाग चुका है, लेकिन वह अभी तक काहिरा में डटे हुए हैं। उन्हें उम्मीद है कि जैसे उन्होंने 2003 के दंगों पर ठंडा पानी डाल दिया था, वैसे ही इस बार भी वह इस दावानल को शांत कर देंगे।
उन्होंने क्या-क्या नुस्खे नहीं आजमाए? सबसे पहले तो एक नए उप-राष्ट्रपति की नियुक्ति की, गृह मंत्री बदल दिया और बागी नौजवानों को उन्होंने आश्वासन दिया कि वह नए चुनाव शीघ्र ही करवाएंगे और खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्होंने बेरोजगारी, भुखमरी और भ्रष्टाचार को समाप्त करने का भी वायदा किया।
लेकिन इन मीठी गोलियों का मिस्र की जनता पर कोई असर नहीं हो रहा है। अब तक 300 लोगों ने अपनी जान दे दी है। काहिरा से भी बड़े प्रदर्शन एलेक्जेंड्रिया, स्वेज आदि शहरों में हो रहे हैं। प्रदर्शनकारियों पर सिर्फ पुलिस गोली चला रही है। फौज अभी तक तटस्थ है। वह केवल प्राचीन स्मारकों की पहरेदारी कर रही है।
टय़ूनीशिया की फौज की तरह कहीं मिस्र की फौज भी हाथ खड़े न कर दे, इस डर के मारे मुबारक सैनिक मुख्यालय गए और उन्होंने फौज को सतर्क किया, लेकिन प्रदर्शनकारियों के अन्य नारों में एक नारा यह भी है कि ‘फौजी जवान, हमारे भाई हैं।’ सड़कों पर घूम रहे फौजी टैंकों पर पथराव करने के बजाय बागी नौजवान घुटनों के बल बैठकर नमाज पढ़ रहे हैं और अनेक बड़े फौजी अफसर इन बागी नौजवानों के साथ हाथ मिला रहे हैं। फौज भी बगावत से अछूती नहीं है। मुबारक मूलत: फौजी हैं। उन्हें लगता है कि इस आड़े वक्त में फौज उनका साथ देगी।
बगावत की आग इस कदर फैल गई है कि कैदियों ने जेलें तोड़ दीं, सिपाहियों को मार दिया और कई मॉल लूट लिए गए। काहिरा का ‘तहरीर स्क्वेयर’, सचमुच आजादी का चौराहा बन गया है। लाखों लोग इस मैदान में उतर आए हैं। ईरान के शाह और टय़ूनीशिया के बिन अली की तरह मुबारक के पास भागने के अलावा कोई रास्ता बचा नहीं है। 84 साल के मुबारक 30 साल से मिस्र की जनता की छाती पर लदे हुए हैं। अब उनके खिलाफ सारा मिस्र एक हो गया है। सारे विरोधी दलों के नेताओं ने एक जगह बैठकर अपनी रणनीति बनाई है।
इस्लामी दक्षिणपंथी इखबान पार्टी ने अल-बरदेई जैसे सेक्यूलर और आधुनिक व्यक्ति पर कोई एतराज नहीं किया है। मोहम्मद अलबरदेई वियना की परमाणु एजेन्सी के प्रमुख रहे हैं और विश्व-विख्यात राजनयिक हैं। सभी प्रमुख संगठनों ने अलबरदेई से नेतृत्व का अनुरोध किया है। इखवान ने माना है कि यह बगावत स्वत:स्फूर्त है और सबसे शक्तिशाली विरोधी दल होने के बावजूद वह नेतृत्व का दावा नहीं करेगा।
लेकिन फौज को पता है कि अमेरिका का रुख तेजी से बदल रहा है। पहले राष्ट्रपति ओबामा ने मुबारक से कहा कि जनता की मांग पर वह ध्यान दें और अब उनकी विदेश मंत्री हिलेरी क्लिंटन ने कह दिया कि मिस्र में सत्ता का हस्तांतरण शांतिपूर्ण होना चाहिए। इसका अर्थ यही है कि मुबारक के प्रति अमेरिका तटस्थ होता जा रहा है।
जिस मुबारक को अब तक अमेरिका 35 बिलियन डॉलर की मदद दे चुका है और जो अमेरिका की अरब-नीति का सुद्दढ़ स्तंभ रहा है, उस पर से अमेरिका का भरोसा उठ गया-सा लगता है। सऊदी अरब और इजराइल नहीं चाहेंगे कि मुबारक की छुट्टी हो जाए, क्योंकि अब तक वे ही अरब-इजराइल शांति समझौते के पुरोधा बने रहे हैं।
यह भी पता नहीं कि मुबारक जाएंगे, तो उनकी जगह कौन आएगा? कोई अन्य फौजी आएगा या अलबरदेई जैसा कोई ‘डेमोक्रेट’? अमेरिका को अलबरदेई पर शायद ही कोई आपत्ति हो। यह बात दूसरी है कि इधर अलबरदेई ने अमेरिका की तटस्थता पर प्रश्नचिह्न् लगाए हैं। वह न तो उग्र इस्लामी हैं और न ही यहूदी-विरोधी।
अलबरदेई उदारपंथी और आधुनिक हैं, पर मिस्र की जनता में फलस्तीनियों के लिए अपार सहानुभूति है। वह फलस्तीन में ‘हमास’ और लेबनान में ‘हिजबुल्ला’ का समर्थन करती है। इन दोनों इजराइल-विरोधी संगठनों को ईरान का भी सक्रिय समर्थन है। अलबरदेई और अमेरिका, दोनों को फूंक-फूंककर कदम रखना होगा।
टय़ूनीशिया के बाद अब मिस्र की बगावत ने अरब और अफ्रीकी तानाशाहों की हड्डियों में कंपकंपी दौड़ा दी है। यमन और जॉर्डन भी खदाबदा रहे हैं। मध्य एशिया में कजाकिस्तान के तानाशाह नूर सुल्तान नजरबाएव के खिलाफ भी जनाक्रोश की घंटियां बजने लगी हैं। पिछले साल जैसा किरगिजिस्तान में हुआ, वैसा ही नक्शा अब कजाकिस्तान में भी उभर रहा है। जनाक्रोश को बंदूकों के जोर पर दबाया नहीं जा सकता। यदि मुबारक किसी तरह बच भी गए, तो भी वह चंद दिनों के मेहमान बनकर रहेंगे।
ऐसी स्थिति में भारत की स्थायी नीति रही है कि वह किसी भी देश के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करता। अब्दुल गमाल नासिर, अनवर सादात और मुबारक के साथ भी भारत के संबंध सदा अच्छे ही रहे हैं। इस मौके पर वह मुबारक का खुला विरोध करे और मिस्र की जनता को भड़काए, यह तो उचित नहीं होगा, लेकिन उसे यह संकेत क्यों नहीं देना चाहिए कि वह मिस्र की जनता की आकांक्षाओं का समर्थन करता है और काहिरा में जो भी सत्तारूढ़ होगा, उसके साथ उसके संबंध मधुर ही होंगे।
यदि मुबारक किसी वजह से टिके रह गए, तो भी वह क्या कर लेंगे? हम जरा अमेरिका से संकेत ग्रहण करें। क्या मुबारक के साथ हमारी घनिष्ठता अमेरिका से भी ज्यादा है? याद करें, ईरान की बगावत को। ईरान के शहंशाह के साथ भारत के संबंध काफी मधुर थे, लेकिन ज्यों ही बगावत शुरू हुई, मोरारजी देसाई सरकार ने पहले शाह के साथ धीरे-धीरे अपनी दूरी बनाई, फिर वह तटस्थ हुई और इस्लामी क्रांति के पहले उसने पेरिस में बैठे इमाम खुमैनी के साथ सीधा संबंध स्थापित कर लिया। इसीलिए कट्टर इस्लामी होने के बावजूद ईरान की जनता भारत के प्रति काफी मैत्रीपूर्ण रही है।
इस मौके पर मिस्र की जनता के समर्थन का मतलब है, संपूर्ण अरब जगत की भावनाओं का आदर। हमारे इस रवैये से अमेरिका और इजराइल के नाराज होने का प्रश्न ही नहीं उठता। मिस्र में फैली भारत की लोकप्रियता का लाभ बाद में इन देशों को भी मिल सकता है। भारत उत्तम मध्यस्थ की भावी भूमिका अपने लिए तैयार क्यों नहीं करता?
लेखक भारतीय विदेशनीति परिषद के अध्यक्ष हैं
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