नवभारत टाइम्स, 20 अप्रैल, 2005 : मुशर्रफ की यह यात्रा, मुशर्रफ के लिए एतिहासिक सिद्घ हो सकती है| यह उन्हें इतिहास का महानायक भी बना सकती है और खलनायक भी ! दोनों लक्ष्यों के संकेत उन्होंने स्पष्ट रूप से दिए हैं| उन पर यह आरोप कभी नहीं लगाया जा सकेगा कि उन्होंने हमें धोखे में रखा| यह हम पर निर्भर है कि उनके संकेतों को हम कैसे ग्रहण करते हैं| उन्होंने अपने संकेत इतनी चतुराई से दिए हैं कि उनका जो चाहे वैसा मतलब लगा सकता है| भारत के राजनीतिक दल और अखबारी टिप्पणीकार जिस उत्साह के प्रवाह में बहे जा रहे हैं, वह उक्त तथ्य की पुष्टि करता है| प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने प्रवाह के विरुद्घ तैरने की कोशिश की है| उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज़ में ही गहरी बात कह दी कि मुशर्रफ के दिल की मैं क्या जानॅू?
सबसे पहले तो हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि मुशर्रफ की यह भारत-यात्रा हुई कैसे? इसकी पहल उन्होंने स्वयं की| क्रिकेट तो सिर्फ बहाना था| उन्होंने पहल क्यों की? इसीलिए कि उनकी अपनी अनिवार्यताऍं थीं| वे क्या थीं? पहली तो यही कि साढ़े पॉंच साल सत्ता में रहने के बाद उन्हें लगा कि अब उनका फौजी चेहरा बदलना चाहिए| पाकिस्तान में यों भी आंदोलन चल पड़ा है कि वे अपनी वर्दी उतारें याने सर्वोच्च सेनापति का पद छोड़ें| यदि वे सेनापति का पद छोड़ दें और लोकनेता का पद उनके पास न हो तो वे कहीं के न रहेंगे| पिछली बार भारत आते समय उन्होंने खुद को राष्ट्रपति बना लिया था लेकिन पाकिस्तान में उनकी हैसियत अब तक भी किसी लोकनेता की तरह नहीं बन पाई है| यदि बेनजीर भुट्टो और नवाज़ शरीफ लौट आए तो वे क्या करेंगे? मुशर्रफ का भारत आना उसी युद्घ का एक पैंतरा है| उन्हें अब अपनी पार्टी मैदान में उतारनी होगी| भारत-यात्रा उन्हें लोकतांत्र्िाक प्रतिष्ठा प्रदान करेगी| दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र के नेताओं से जो बराबरी के स्तर पर बात कर सकता है, उसे सिर्फ फौजी तानाशाह कहकर कैसे रद्द किया जा सकता है? दूसरी, श्रीनगर-मुजफ्फराबाद बस के खुलने पर जो लोकपि्रय प्रतिक्रिया हुई और पिछले साल भर में दोनों तरफ से लोगों की जो आवाजाही हुई, उसने स्पष्ट संकेत दे दिए कि इस दिशा में जो भी शासक कदम बढ़ाएगा, वह लोकपि्रय हो जाएगा| इसीलिए मुशर्रफ ‘नरम सीमा’ का नारा लगाए हुए हैं| जो काम भुट्टो, नवाज़ और बेनज़ीर जैसे राजनेता नहीं कर सके, वह मुशर्रफ ने कर दिया| तीसरी, अपने सरपरस्त अमेरिका को खुश करने का इससे बेहतर तरीक़ा क्या हो सकता है कि मुशर्रफ शांति के मसीहा दिखने लगें| चौथी, इस्लाम को आतंकवाद से जुदा दिखाने की भी यह एक अदा है|
इन मजबूरियों के चलते मुशर्रफ ने खुद को भारत में निमंत्र्िात कर लिया और अपनी यात्रा को बहुत सफल और सार्थक घोषित कर दिया| उन्होंने यह भी कह दिया कि अन्य मुद्दों पर तो प्रगति हुई ही है, कश्मीर पर भी हम आगे बढ़े हैं| यदि मुशर्रफ की यात्रा के दौरान केवल संयुक्त वक्तव्य जारी हुआ होता और सिर्फ प्रधानमंत्री से उनकी बात हुई होती तो सचमुच इस यात्रा का केवल एक ही संदेश होता और वह बिल्कुल स्पष्ट होता कि मुशर्रफ ने 58 साल से सिर के बल खड़े भारत-पाक इतिहास को पॉंव के बल खड़ा कर दिया है लेकिन उन्होंने संपादकों के साथ अपनी नाश्ता-बातचीत में जो कुछ कहा है, उसे सुनने के बाद लगता है कि वे अन्तर्विरोधों के बंडल हैं या कूटनीति के महापंडित हैं|
एक तरफ वे कहते हैं कि भारत-पाक शांति प्रक्रिया अब पल्टा नहीं खा सकती| वह सदा आगे बढ़ेगी और दूसरी तरफ संपादकों से उन्होंने कहा कि अगर कश्मीर हल नहीं हुआ तो भविष्य में कुछ भी हो सकता है (याने परंपरागत या परमाणु युद्घ भी हो सकता है)| ताशकंद और शिमला इसके प्रमाण हैं| नेता बदले और शांति प्रक्रिया खत्म ! एक तरफ वे कहते हैं कि उनकी दृष्टि एकांगी (यूनिफोकल) नहीं है और साथ ही उन्होंने यह भी कहा कि असली मुद्दा तो कश्मीर ही है| सियाचिन और बगलीघर भी कोई मुद्दे हैं? इन्हें तो एक दिन में हल किया जा सकता है| आतंकवाद के बारे में उन्होंने घुमा-फिराकर वही कहा, जो आगरा में कहा था| जब उनसे पूछा गया कि भारत और पाकिस्तान आतंकवाद के विरुद्घ संयुक्त-मोर्चा कैसे चलाएंगे? इस पर मुशर्रफ थोड़ा बिदके और फिर बोले, ये सब कहने की (सैद्घांतिक) बातें हैं| यथार्थ कुछ और ही है| ”जिन्हें हम आतंकवादी कहते हैं, उन्हें दूसरे लोग स्वतंत्रता-सेनानी कहते हैं, जैसे फलस्तीन और चेचन्या में| यह पता नहीं चलता कि कौन असली आतंकवादी है, राज्य या लड़ाकू संगठन?” यहॉं उन्होंने कश्मीर का नाम या तो जान-बूझकर नहीं लिया या लेना भूल गए ! उन्होंने यह भी कहा संयुक्त-वक्तव्य पर गौर कीजिए| वह दो घंटे बाद जारी होनेवाला है| संयुक्त वक्तव्य में क्या है? उसका सबसे महत्वपूर्ण वाक्य यह है कि ”दोनों नेताओं ने प्रतिज्ञा की है कि वे आतंकवाद के कारण शांति-प्रक्रिया रुकने नहीं देंगे|” अर्थात्र आतंकवादी गतिविधियॉं जारी रहें तो भी कोई बात नहीं, शांति-प्रक्रिया बंद नहीं होगी| इसका अर्थ क्या यह भी नहीं हुआ कि कश्मीर पर जो प्रच्छन्न-आक्रमण हो रहा है, वह चलता रहे तो भी भारत कोई आपत्ति नहीं करेगा? यह बात क्या उस सहमति से बेहतर है, जो 6 जनवरी 2004 को वाजपेयी और मुशर्रफ के बीच हुई थी? दोनों ने लिखित में माना था कि पाकिस्तान अपनी भूमि का इस्तेमाल आतंकवादियों को भारत के विरुद्घ नहीं करने देगा| सवा साल बाद हम आगे बढ़े या पीछे हटे? मुशर्रफ शायद इसी को अपनी सफलता मान रहे हैं| पाकिस्तान लौटकर वे इसी वाक्य को भुनाएंगे| यह वास्तव में मुशर्रफ की बड़ी उपलब्धि है| उन्होंने यथास्थिति पर भारत से मुहर लगवा ली| प्रच्छन्न-युद्घ अब निरापद हो गया|
कश्मीर का हल कैसे होगा, इस पर भी उन्होंने कोई स्पष्ट संकेत नहीं दिए| उन्होंने कहा कि नियंत्रण-रेखा को मान्य करने से समाधान नहीं होगा| याने उनका कश्मीर उनके पास और हमारा कश्मीर हमारे पास रहे, यह मान्य नहीं होगा| उन्होंने कहा कि मनमोहनसिंह इस पर सहमत हैं| इसका क्या मतलब? पाकिस्तानियों को मुशर्रफ इसका मतलब यह समझाएंगे कि हम आधा नहीं, पूरा कश्मीर लेंगे| मनमोहनसिंहजी इसका क्या मतलब लेंगे? वे कहेंगे कि हमारी संसद का प्रस्ताव है| हम पूरा कश्मीर लेकर रहेंगे| एक ही बात के दो मतलब ! मुशर्रफ ने कहा कि उन्हें मनमोहन ने कहा है कि सीमाओं में कोई फेर-बदल नहीं होगा| इसका मतलब मुशर्रफ अपनी जनता को एक ढंग से समझाएंगे और मनमोहन दूसरे ढंग से ! तीसरी बात मुशर्रफ ने यह कही कि दोनों मानते हैं कि भौगोलिक-सीमाएं धीरे-धीरे निरर्थक हो जाऍं| याने दोनों नेता नियंत्रण-रेखा और सीमा-रेखाओं को नरम करें, ढीला करें, ज़रा खोलें ! यही प्रक्रिया अब ज़रा तेज हो जाएगी| खोकरापार-मुआबाओ रेल चलेगी, मुम्बई-कराची जहाज भी चल सकते हैं, नियंत्रण-रेखा के आर-पार मालवाही ट्रक भी चलेंगे, संयुक्त व्यापार परिषद भी बनेगी, गैस पाइपलाइन भी डलेगी, वीज़ा की कंजूसी भी मिटेगी, मुंबई और कराची में दूतावास फिर खुलेंगे तथा लोगों के सीधे सम्पर्कों की प्रक्रिया भी तेज होगी| अगर यह सब ठीक-ठाक होता रहे तो जैसा कि सय्रयद अली जीलानी ने कहा है कि कश्मीर अपने आप ताक पर पहॅुंच जाएगा| जिन्हें व्यापार से करोड़ों कमाने हैं, जिन्हें अपने रिश्तेदारों और दोस्तों से मिलना है, जिन्हें भारत देखने की हसरत है और जो इस उप-महाद्वीप को महाशक्ति का पुंज बना हुआ देखना चाहते हैं, वे कश्मीर के लिए अपना खून और पैसा क्यों बहाएंगे? यदि मुशर्रफ के ‘नए दिल’ में यही जज़्बा है तो वे दक्षिण एशिया के महानायक बने बिना नहीं रहेंगे| फौजी होते हुए भी उनकी लोकपि्रयता जिन्ना और भुट्टो की ऊंचाइयों को छू सकती है| अंततोगत्वा यही प्रक्रिया कश्मीर के हल की जननी भी बन सकती है लेकिन अगर शांति की यह पहल मुशर्रफ पर मियादी बुखार की तरह उतरी है तो निश्चित जानिए कि दूसरा करगिल मुशर्रफ के तरकस में तैयार खड़ा है| कश्मीर का कोई विकल्प निकले या न निकले मुशर्रफ ने भारत आकर अपने विकल्प खोल लिए हैं|
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