16 April 2005 : पाकिस्तानी लड़कियॉं जब से लाहौर लौटी हैं, लगभग रोज़ ही किसी न किसी अभिभावक का फोन आ रहा है| 16 छात्राऍं और उनकी अध्यापिकाऍं भारत की स्थायी राजदूत बन गई हैं| भारत के बारे में अपनी राय वे पाकिस्तानी अखबारों और टी वी चैनलों पर प्रकट कर रही हैं और लेख लिखकर वेबसाइटों पर भी लगा रही हैं| भारत के चित्र भी जीवंत कहानियॉं कह रहे हैं| एक तो वे गैर-राजनीतिक हैं, दूसरा वे युवा हैं, तीसरा वे लड़कियॉं हैं| इसीलिए उनकी बातों का पाकिस्तानियों के दिलों पर गहरा असर हो रहा है| उनकी बात में कोई बनावट-लगावट नहीं है| पाकिस्तानी जान रहे हैं कि भारत के लोग वैसे नहीं हैं, जैसा कि उन्हें बचपन से बताया जाता है| इन लड़कियों को विभिन्न मुख्यमंत्रियों, मेरे मित्रों और रिश्तेदारों तथा अन्य लोगों ने इतने उपहार दिए हैं कि उन्हें ले जाने के लिए उन्होंने नए बेग खरीदे| इन उपहारों को देख-देखकर उनके माता-पिता खुश होते रहते हैं| इन लड़कियों ने अपने स्कूल ‘रिसोर्स एकेडेमिया’ में जो प्रदर्शनी लगाई है, उसमें उपहारों का एक सेट भी दिखाया जा रहा है| उनकी भारत-यात्रा से पाकिस्तान में इतना सद्रभाव उत्पन्न हुआ है कि खुद जनरल परवेज़ मुशर्रफ लाहौर के नाजि़म मियॉं आमेर महमूद के घर गए, उन्हें बधाई देने ! ये छात्राऍं मियॉं आमेर की पहल पर ही भारत आई थीं|
चीनीप्रधानमंत्रीऔरहमारेमार्क्सवादी
चीनी प्रधानमंत्री वन च्यापाओ के सम्मान में हमारे प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहनसिंह ने जो राज-भोज आयोजित किया था, उसमें भाजपा के श्री लालकृष्ण आडवाणी और भाकपा के श्री ए.बी. बर्धन तो थे लेकिन मार्क्सवादियों में से कोई भी दिखाई नहीं पड़ रहा था| यह आश्चर्य की बात थी| 1964 में जब कम्युनिस्ट पार्टी टूटी तो हमारे मार्क्सवादी चीन के साथ थे| वे चीन को ही अपना काबा समझते थे और माओ त्से दुंग को अपना पैगम्बर ! अब माओ और चाऊ एन लाई के बाद चीन का नेतृत्व पूंजीवादी राह पर चल पड़ा| बिल्ली काली है कि गोरी, इससे हमें क्या? यह देखो कि वह चूहे मार सकती है या नहीं? यह नारा तंग श्याओ पिंग ने उछाला| हमारे मार्क्सवादियों को यह नारा, यह रास्ता, यह चीन बिल्कुल भी पसंद नहीं है| यह तो भाजपा और कॉंग्रेस से भी बदतर है| ऐसी मनस्थिति में हमारे मार्क्सवादी, जो कभी चीकम्मू (चीनी कम्युनिस्ट) कहलाते थे, चीनी प्रधानमंत्री के सम्मान-भोज में शामिल न हों तो इसमें आश्चर्य क्या है? भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव बर्धन से मैंने जब पूछा कि आज मार्क्सवादी क्यों नहीं आए? तो पहले वे चुप रहे और फिर बोले कि वे लोग अपने पार्टी-अधिवेशन में व्यस्त होंगे| मेरा जवाब यह था कि यदि चीन और हमारे मार्क्सवादियों में सद्रभाव होता तो वे वन च्यापाओ को अपने अधिवेशन में जरूर ले जाते और प्रधानमंत्री मनमोहनसिंह के यहॉं भी आते !
सच्चीविनम्रता
प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति के भोजों में बैठने का इंतजाम बड़ी सावधानी से होता है| प्राय: 15-20 अतिथि होते हैं| हर अतिथि को गेट पर ही एक छोटा-सा कार्ड दे दिया जाता है, जिसमें यह संकेत रहता है कि उसे कहॉं बैठना है| भोज कक्ष में एक विस्तृत चार्ट भी लगा होता है, जिसमें बैठने का क्रम स्पष्टत: लिखा होता है| यह इसीलिए किया जाता है कि लोग गलती से कहीं भी बैठ सकते हैं और उससे नयाचार (प्रोटोकॉल) भंग हो सकता है| बैठक-क्रम में आपका स्थान कहॉं रहेगा, यह आपके राजनीतिक महत्व के आधार पर तय होता है| इस बार चीनी प्रधानमंत्री के भोज में मुझे जहॉं बैठाया गया, उसके सामनेवाली पंक्ति में चीनी मामलों की एक विख्यात पंडिता भी थीं| सामनेवाली पंक्ति में वे सबसे अंत में थीं| यह मुझे अच्छा नहीं लगा| उनके ऊपर एक हिंदी की संपादिका, कुछ अन्य लोग और फिर प्रधानमंत्री कार्यालय की संयुक्त सचिव सुजाता मेहता थीं| सुजाताजी मेरे सामने थीं| मैंने उन पंडिता को इशारा किया कि वे मेरी सीट पर आ जाऍं| वे नहीं मानीं| इतने में सुजाताजी उठीं और उन्होंने अपना नाम-कार्ड ले जाकर सबसे अंत में रख दिया| विवश होकर शेष चार लोगों को ऊपर खिसकना पड़ा| ऐसी पहल करते हुए मैंने किसी अफसर को पहले कभी नहीं देखा| हमारे अफसरों को यह समझ ही नहीं होती कि अतिथियों को आगे रखना चाहिए और खुद पीछे रहना चाहिए|
भारत मॉं के पुत्र जिन्ना
पाकिस्तान के राष्ट्रपिता मोहम्मद अली जिन्ना पर एशियानंद की नई किताब का विमोचन रक्षामंत्री प्रणव मुखर्जी ने किया| मुझे बहुत शक था कि वे आऍंगे, क्योंकि किताब बहुत विवादास्पद है| वे तो आए ही, तेल मंत्री मणिशंकर अय्रयर भी आए| एक अर्थ में यह किताब कॉंग्रेस-विरोधी है| यह कहती है कि भारत-विभाजन की जिम्मेदारी जितनी जिन्ना की है, उससे ज्यादा गॉंधी-नेहरू की है और जितनी मुस्लिम लीग की है, उससे ज्यादा कॉंग्रेस की है| एशियानंद ने गॉंधी और जिन्ना की व्यक्तिगत प्रतिद्वंद्विता को भी विभाजन का कारण बताया| ऐन विमोचन के वक्त एशियानंद ने मुझे फोन किया कि मैं भी जल्दी पहॅुंचूॅं| उनके आग्रह को टालना कठिन जान पड़ा| सो पहुॅंचा| देखा कि अय्रयर ने सिद्घ कर दिया कि कॉंग्रेस का रवैया सचमुच बहुत कठोर था| यदि वह थोड़ा भी नरम होता तो शायद पाकिस्तान बनता ही नहीं| इसीलिए उन दिनों कॉंग्रेस को ‘भारत की हिन्दू पार्टी’ कहा जाता था| इस बहस में कूदने की बजाय मैंने यह बेहतर समझा कि लोगों को यह बताऊॅं कि जिन्ना और गॉंधी कौन थे| मैंने बताया कि दोनों गुजराती थे, दोनों बनिए थे, दोनों वकील थे और दोनों भारत-कोकिला सरोजिनी नायडू के मित्र थे| दोनों में मज़हबी संकीर्णता नहीं थी| जिन्ना ने पाकिस्तान बनने के बाद उसकी संविधान सभा में जो पहला भाषण दिया, उसमें पाकिस्तानियों से कहा कि अब मज़हब को राज्य का आधार मत बनाना| सब मज़हबवालों के साथ बराबरी का बर्ताव होना चाहिए| जिन्ना के अनेक व्यक्तिगत गुणों का भी मैंने उल्लेख किया और बताया कि भारत के लोग जिन्ना के बारे में जितना जानते हैं, उससे कहीं ज्यादा पाकिस्तान के लोग गॉंधी के बारे में जानते हैं| जिन्ना पाकिस्तान के राष्ट्रपिता हैं या नहीं, इस पर विवाद हो सकता है लेकिन वे भारत मॉं के पुत्र हैं, क्या इस पर भी विवाद हो सकता है? वे चाहते थे कि अपने आखिरी दिन भारत में ही बिताऍं|
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