दैनिक भास्कर, 28 दिसंबर 2013: नरेंद्र मोदी की पगड़ी में सुरखाब का एक पंख और लग गया है। अभी उनके दाहिने हाथ अमित शाह बरी हुए ही थे कि अब उन पर लगे आरोपों को अहमदाबाद की मेट्रोपॉलिटन अदालत ने भी रद्द कर दिया। दूसरे शब्दों में गुजरात के मुख्यमंत्री मोदी निर्दोष हैं, उन्होंने 2002 में गुलबर्ग सोसायटी में हत्या नहीं करवाईं और उन्होंने दंगे रोकने में लापरवाही नहीं की, इस बात पर अब दोहरी मोहर लग गई।
सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष जांच दल बिठाया था। उसने सात साल लगाए, चार हजार लोगों की गवाही ली और हजारों दस्तावेज खंगाले। उसके बाद उसने मोदी को निर्दोष ठहराया, लेकिन इससे जकिया जाफरी सहमत नहीं थीं। वे खुद अहमदाबाद की गुलबर्ग सोसायटी में रहती थीं और उनकी आंखों के सामने उनके पति एहसान जाफरी और अन्य 68 लोगों की भीड़ ने हत्या कर दी थी। जकिया की प्रार्थना स्वीकार कर सर्वोच्च न्यायालय ने विशेष जांच समिति की रिपोर्ट को दुबारा विचारार्थ अदालत में भेज दिया था। जकिया के पति कांग्रेस की ओर से सांसद भी रह चुके थे।
जो लोग सोच रहे थे कि गुलबर्ग सोसायटी हत्याकांड में मोदी फंस जाएंगे, उन्हें काफी निराशा होगी। वे लोग अब भी जकिया जाफरी का पीछा नहीं छोड़ेंगे। वे उन्हें उकसाए बिना नहीं रहेंगे। उनका मकसद गुलबर्ग सोसायटी के असली हत्यारों को पकड़वाना नहीं है बल्कि यह है कि किसी भी तरह हत्याकांड के तार मोदी से जुड़ जाएं ताकि वे अपनी राजनीतिक पूरियां मजे से तल सकें।
गुलबर्ग सोसायटी में खून के फव्वारे छुड़ानेवाले अपराधियों को कानून के हवाले करवाना सर्वथा उचित है और जकिया जाफरी के प्रति हार्दिक सहानुभूति होना भी बिलकुल स्वाभाविक है, लेकिन मुख्यमंत्री या किसी मंत्री को तो कठघरे में तभी खड़ा किया जा सकता है जबकि उसके विरुद्ध अकाट्य प्रमाण उपलब्ध हों। हम राजनीतिक दृष्टि से देखें और नैतिक जिम्मेदारी तय करने बैठें तो राज्य में होनेवाली हर घटना के लिए मुख्यमंत्री या मंत्रियों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं, लेकिन उन्हें अपराधी या दोषी ठहराना हो तो हमें ठोस प्रमाण देने होंगे।
जो प्रमाण विशेष जांच दल के सामने रखे गए और जो अहमदाबाद की मेट्रोपॉलिटन अदालत के सामने पेश किए गए, वे प्रमाण कम, आरोप ज्यादा थे और वे तथ्य कम, अनुमान ज्यादा थे। उन सबको एक-एक करके अदालत ने ध्वस्त कर दिया और उसके पहले जांच समिति ने उन्हें निराधार पाया। अप्रैल में आई जांच समिति की रपट में साफ-साफ कहा गया था कि कई आरोप अनर्गल थे।
जिन पुलिस अफसरों ने मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर यह आरोप लगाया था कि उन्होंने एक उच्च स्तरीय बैठक में ‘हिंदुओं को अपना गुस्सा निकालने’ की छूट का समर्थन किया था, वे अफसर 27 फरवरी 2002 की उस बैठक में मौजूद ही नहीं थे। यह आरोप भी सच्चाई को झुठलाता है कि दंगे भड़काकर मोदी हाथ पर हाथ धरकर बैठ गए। उन्होंने पुलिस को नहीं दौड़ाया।
जांच समिति ने सप्रमाण नोट किया कि मोदी ने 28 फरवरी को ही फौज को बुला लिया था। पुलिस विभाग से निकले रिकॉर्ड और पुलिसवालों की गवाही से पता चलता है कि उन्हें दंगा रोकने के लिए जरूरी हिदायतें दी गई थीं। अदालत ने मोदी के इस निर्णय को भी ठीक बताया कि उन्होंने गोधरा में जिंदा जले कार-सेवकों की लाशों को अहमदाबाद लाने का इंतजाम किया। उनमें से ज्यादातर अहमदाबाद के ही लोग थे। यदि सरकार उन लाशों को लाने का इंतजाम नहीं करती तो उसे उसकी पत्थरदिली या क्रूरता कहा जाता और व्यक्तिश: लाशें अहमदाबाद लाई जातीं तो उसका सदमा और गुस्सा कहीं अधिक भयानक होता।
लाशें अहमदाबाद आईं, इस कारण लोग उत्तेजित जरूर हुए, लेकिन जांच समिति ने पर्याप्त खोज-बीन करने के बाद कहा है कि यह सरासर झूठ है कि उन लाशों का शहर में जुलूस निकाला गया। प्रकरण संबंधी जांच समिति इस तरह के कई आरोपों की गहराई में गई और उसने पाया कि आरोपों में बताई गईं घटनाएं घटी जरूर हैं, लेकिन आरोप लगानेवाले लोगों ने कोई ठोस प्रमाण नहीं दिए।
ऐसे में क्या ही अच्छा होता कि गुजरात के इस ग्यारह साल पुराने दुखद और शर्मनाक अध्याय को इस रपट के साथ ही भुलाने की कोशिश की जाती, लेकिन राजनीतिक दुराग्रह इतना विकट होता है कि उसके कारण असली हत्यारे तो आज तक पकड़े नहीं गए, उन्हें कोई सजा तक नहीं मिली और काल्पनिक हत्यारों की खोज में लोग पागल हुए जा रहे हैं। पागलपन इस हद तक बढ़ गया है कि किसी लड़की के फोन टेप करने के मामले को हमारी केंद्र सरकार ने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया है। यदि यह मामला, मान लें कि गुजरात सरकार के खिलाफ सिद्ध हो जाए तो भी क्या वह प्रदेश में कांग्रेस को डूबने से बचा सकता है?
काल्पनिक हत्यारों की खोज में मुकदमेबाज लोगों ने अपना संतुलन कैसे खोया, इसका प्रमाण अदालत के निर्णय से मिलता है। अदालत ने कहा है कि गुलबर्ग सोसायटी में हुए हत्याकांड के लिए ‘जातीय नरसंहार’ और ‘सामूहिक हत्या’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया है। ये शब्द विदेशी मूल के हैं। ग्रीक और लेटिन के हैं। इनका प्रयोग हिटलर और स्तालिन के कृत्यों के लिए किया जाता है। इनका इस्तेमाल गुजरात में कैसे किया जा सकता है? अदालत का कहना सही है, क्योंकि हिटलर व स्टालिन के दौर में लाखों लोग मारे गए थे।
विशेष जांच समिति ने अपनी रपट में यह भी पूछा था कि अहसान जाफरी ने भीड़ के सामने पिस्तौल तानी थी या नहीं? क्या जाफरी के इस पिस्तौल तानने के काम ने भीड़ को उकसाया नहीं होगा? भीड़ की इस प्रतिक्रिया को क्या एकतरफा जातीय नरसंहार कहा जा सकता है? जातीय नरसंहार तो एकतरफा होता है, बहुत पहले से सुनियोजित होता है और वह बिना किसी उत्तेजना के ही किया जाता है।
इसके विपरीत जांच दल ने पाया कि मोदी ने दूरदर्शन पर नियमित रूप से शांति की अपीलें कीं। अदालत ने इस अनर्गल आरोप को भी सिरे से खारिज कर दिया कि गोधरा में ट्रेन में आग लगवाने का काम भी गुजरात सरकार ने करवाया। यह उसकी साजिश थी। यह आरोप अपने आप में इतना बेहूदा और मूर्खतापूर्ण है कि आरोप लगानेवालों की बुद्धि पर तरस खाया जा सकता है।
जो दूसरे आरोप लगाए गए हैं, वे इस लायक तो हैं कि उनकी सच्चाई जांचकर देखी जा सके, लेकिन यह आरोप तो उस षड्यंत्रकारी दिमाग का पता देता है, जो अपने विरोधियों को फंसाने में लगा है। और विरोधी फंसे नहीं तो कम से कम उसे बदनाम तो कर ही दिया जाए, इस उद्देश्य में लगा हुआ है। इस तरह के आरोपों के कारण दूसरे आरोप भी अपने आप ढेर हो जाते हैं और असली अपराधी कानून की गिरफ्त से बच जाते हैं।
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