नया इंडिया, 24 अक्टूबर 2013: इधर नरेंद्र मोदी के दो बयानों को लेकर चर्चा गर्म रही। एक तो देवालय बनाम शौचालय वाला और दूसरा सोने की खुदाईवाला। मोदी ने अपनी सभाओं में इन दोनों मुद्दों पर अपनी दो-टूक राय जाहिर की थी। देवालय बनाम शौचालय वाले बयान पर काफी बहस छिड़ी लेकिन मोदी बिल्कुल चुप्पी मार गए। उन्होंने ऐसी मुद्रा धारण कर ली कि जैसे उन्हें याद ही नहीं कि उन्होंने वैसा बयान दिया भी था या नहीं। सोने की खुदाई वाले बयान पर तो मोदी ने उस साधु, शोभन सरकार से लगभग माफी ही मांग ली, जिसके सपने के आधार पर भारत सरकार उन्नाव के एक किले से सोना खोदने पर तुल गई है। मोदी ने उस साधु के तप और त्याग की प्रशंसा की है और उसकी लोकप्रियता को रेखांकित किया है। तो इसका क्या अर्थ निकाला जाए? क्या यह कि मोदी के बयान बिना सोचे-समझे ही दे दिए जाते हैं? उनके मन में जब भी जो भी आता है, वे उगल देते हैं और बाद में उसकी लीपा-पोती कर देते हैं। क्या मोदी वास्तव में डरपोक आदमी है? इस तरह के सवाल आजकल पूछे जा रहे हैं।
इन्हीं सवालों के आधार पर कुछ लोगों ने मुझसे यह पूछा है कि इस तरह अपने बयानों से पलट जानेवाले नेता पर कितना विश्वास किया जा सकता है? वास्तव में मोदी के दोनों बयान बिल्कुल सही थे लेकिन इन दोनों को वे दोहराते रहते तो उन्हें काफी नुकसान हो सकता था। साधु-संत और धर्मध्वजी पाखंडप्रेमी उनके खिलाफ अनर्गल प्रचार करने लगते और वे तथ्यों को इस सफाई से तोड़-मरोड़कर पेश करते कि मोदी की जो शक्ति प्रधानमंत्री बनने में लगनी चाहिए, वह इन लोगों को पटाने में बर्बाद हो जाती। मोदी का लक्ष्य अभी प्रधानमंत्री बनना है, कोई समाज-सुधारक बनना नहीं। उन्होंने जो रास्ता अपनाया, वह बहुत ही चतुराई भरा है। पहले बयान पर वे चुप्पी साध गए और दूसरे बयान पर शोभन सरकार की तारीफों के पुल बांध दिए लेकिन उन्होंने यह एक बार भी नहीं कहा कि साधु शोभन का सपना सही है और सोना खोदने से सरकार की जगहंसाई नहीं हो रही है। याने मोदी ने अपनी सफाई इस अदा से दी है कि सांप भी मर गया और लाठी भी नहीं टूटी। साधु शोभन के चेलों ने मोदी और भाजपा के विरुद्ध जो जोरदार पत्र जारी किया है, उसका विवाद भी ठंडा पड़ गया है। इस संपूर्ण प्रकरण का निष्कर्ष क्या है? क्या यह नहीं कि मोदी में काफी लचीलापन है। वे जन-भावना का सम्मान करते हैं। वे डरपोक नहीं, चतुर हैं। इन बयानों ने यह भी सिद्ध किया है कि मोदी पोंगापंथी नहीं है। जनता के वोटों से चुने जानेवाले नेताओं से कोई यह आशा कैसे कर सकता है कि समाज सुधारकों की तरह जनता के कान उमेठने लगेंगे।
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