प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की यह पहली मुलाकात इतनी सरस होगी, इसकी संभावना पर सभी को शक था लेकिन ट्रंप ने जैसा भावभीना स्वागत किया, उसने सभी संदेहों को दूर कर दिया है। दोनों नेताओं के बीच जैसा वार्तालाप हुआ, दोनों ने जैसा संयुक्त वक्तव्य जारी किया और जैसी संयुक्त पत्रकार-वार्ता की, उससे सभी विश्लेषकों को यह मानने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है कि ट्रंप के अमेरिका के साथ भारत के संबंध उतने ही घनिष्ट अब भी हैं, जितने कि वे जार्ज बुश और ओबामा के ज़माने में रहे हैं। बल्कि ज़रा ज्यादा स्पष्टवादिता आई है। जैसे पाकिस्तान से दो-टूक शब्दों में कहा गया है कि वह पड़ौसी देशों में आतंक फैलाने से बाज आए। इसके अलावा हिजबुल मुजाहिद्दीन के मुखिया सलाहुद्दीन को आतंकवादी घोषित करना और मोदी के वाशिंगटन पहुंचने पर करना, अपने आप में एक तोहफा है। मोदी ने ट्रंप को शाॅल और हस्तशिल्प की नायाब चीज़ें भेंट की तो अमेरिका ने भी दक्षिण एशिया में बनाई अपनी कृति (आतंकवादी) मोदी को भेंट की। इस पर पाकिस्तान का आग-बबूला होना स्वाभाविक है। ट्रंप ने चीन को भी सावधान किया कि वह ‘ओबोर’ के चक्कर में पड़ौसी देशों की संप्रभुता पर चोट न करे। इस पर चीन बौखला गया। उसके सरकारी अखबार में कहा गया कि भारत कहीं जापान और आस्ट्रेलिया की तरह अमेरिका का मोहरा तो नहीं बनने जा रहा। भारत और अमेरिका ने आतंक के विरुद्ध संयुक्त संघर्ष की भी घोषणा की। अफगानिस्तान में भारत की भूमिका की भी प्रशंसा की गई। अमेरिका ने अपने शस्त्रास्त्र बेचने के लिए पूरा जोर लगाया। भारतीय बाजारों को खोलने, व्यापार का संतुलन बनाने और रणनीतिक भागीदारी पर भी अमेरिका ने जोर दिया लेकिन पता नहीं, मोदी ने एच 1बी वीज़ा और भारतीयों के रोजगार की बात भी उठाई या नहीं ? पेरिस जलवायु समझौते पर भी चुप्पी-सी ही रही। परमाणु-भट्ठियों का समझौता अभी भी अधर में ही लटका हुआ है। जहां तक जबानी जमा-खर्च का सवाल है, मोदी और ट्रंप के बीच वह तो जमकर हुआ है लेकिन उसकी कुछ भी कीमत तभी मानी जाएगी, जब उस पर अमल किया जाए। एक-दूसरे को ‘महान’, ‘महान’ कहने से माहौल तो रसीला बन जाता है लेकिन इस व्यक्तिगत दिखावे का महत्व तभी माना जाता है, जबकि उससे अपने राष्ट्रहितों का संपादन हो।
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